सखि, वे मुझसे कहकर जातेः राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की जयंती पर यशोधरा से विशेष

'जयद्रथ-वध' और ‘भारत भारती’ के प्रकाशन से लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचे मैथिलीशरण गुप्त को 1930 में महात्मा गांधी ने कवि से राष्ट्रकवि कहा था. आज उनकी जयंती पर उनके कालजयी खंडकाव्य यशोधरा के अंश

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मैथिलीशरण गुप्त साहित्य के तहत प्रकाशित यशोधरा का कवर [सौजन्यः लोकभारती प्रकाशन] मैथिलीशरण गुप्त साहित्य के तहत प्रकाशित यशोधरा का कवर [सौजन्यः लोकभारती प्रकाशन]

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 03 अगस्त 2019,
  • अपडेटेड 12:24 PM IST

राजभवन की सुख-समृद्धि तथा ऐश्वर्य और भोग-विलास को हीन ही नहीं वरन् यशोधरा जैसी पत्नी तथा राहुल जैसे एकमात्र पुत्र का परित्याग करके निर्वाण के मार्ग में निकले भगवान बुद्ध की कथा इतनी महान बनी कि स्वयं बौद्ध धर्म के जन्म और विस्तार की प्रेरक कथा बन गई. 'जयद्रथ-वध' और ‘भारत भारती’ के प्रकाशन से लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचे मैथिलीशरण गुप्त को 1930 में महात्मा गांधी ने कवि से राष्ट्रकवि कहा था.

अपने खंड काव्य 'यशोधरा' में उन्होंने भगवान बुद्ध की कथा को काव्य-कथा के रूप में प्रस्तुत किया है. इस रचना में गुप्त ने यशोधरा के त्याग की परम्परा को मुख्ख्य रूप से उद्घोषित किया है, जिसने भगवान बुद्ध के राजभवन लौटने और स्वयं यशोधरा के कक्ष में उससे भेंट करने जाने पर अपने बेटे राहुल का महान पुत्रदान देकर अपने मन की महानता को प्रतिष्ठित किया. राष्ट्रकवि की यह रचना मनोरंजक ही नहीं प्रेरक भी है.

आज राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की जयंती पर यशोधरा के अंश

यशोधरा के अंश

सिद्धि-हेतु स्वामी गये, यह गौरव की बात;
पर चोरी-चोरी गये, यही बड़ा व्याघात।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते;
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?
मुझको बहुत उन्होंने माना,
फिर भी क्या पूरा पहचाना?
मैंने मुख्य उसी को जाना,
जो वे मन में लाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,
प्रियतम को, प्राणों के पण में
हमीं भेज देती हैं रण में,
क्षात्र-धर्म के नाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

हुआ न यह भी भाग्य अभागा,
किस पर विफल गर्व अब जागा?
जिसने अपनाया था, त्यागा।
रहें स्मरण ही आते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,
पर इनसे जो आँसू बहते,
सदय हृदय वे कैसे सहते?
गये तरस ही खाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

जाएँ, सिद्धि पावें वे सुख से,
दुखी न हों इस जन के दुख से,
उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से?
आज अधिक वे भाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

गये, लौट भी वे आवेंगे,
कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे?
रोते प्राण उन्हें पावेंगे?
पर क्या गाते गाते,
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।


***
मिला न हा! इतना भी योग,
मैं हंस लेती तुझे वियोग!
देती उन्हें विदा में गाकर,
भार झेलती गौरव पाकर,
यह नि:श्वाय न उठता हा कर,

बनता मेरा राग न रोग।
मिला न हा! इतना भी योग।

पर वैसा कैसे होना था?
वह मुक्ताओं का बोना था।
लिखा भाग्य में तो रोना था

यह मेरे कर्मों का भोग!
मिला न हा! इतना भी योग

पहुँचाती मैं उन्हें सजाकर,
गये स्वयं वे मुझे लजाकर।
लूंगी कैसे?-वाद्य बजाकर,
लेंगे जब उनको सब लोग।
मिला न हा! इतना भी योग।

***
दूँ किस मुँह से तुम्हें उलहना?
नाथ, मुझे इतना ही कहना।
'हाय!, स्वार्थी थी मैं ऐसी; रोक तुम्हें रख लेती?
'जहाँ राज्य भी त्याज्य, वहाँ मैं जाने तुम्हें न देती?
आश्रय होता या वह बहना?
नाथ, मुझे इतना ही कहना।

विदा न लेकर स्वागत से भी वंचित यहाँ किया है;
हन्त! अंत में यह अविनय भी तुमने मुझे दिया है।
जैसे रक्खो , वैसे रहना!
नाथ, मुझे इतना कहना।

ले न सकेगी तुम्हें वही बढ़ तुम सब कुछ हो जिसके,
यह लज्जा यह क्षोभ भाग्य में लिखा गया कब, किसको?
मैं अधीन, मुझको सब सहना।
नाथ, मुझे इतना ही कहना!
***

पुस्तकः यशोधरा
लेखक: मैथिलीशरण गुप्त
विधाः कविता
प्रकाशकः लोकभारती प्रकाशन
मूल्यः 150/- रूपए- हार्डबाउंड
पृष्ट संख्या: 112

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