संत तुलसीदास ने जब रामचरितमानस लिखी तो उन्होंने लोकभाषा का बहुत ख्याल रखा है. भाषा की इसी स्वीकार्यता के कारण भी मानसपाठ लोगों के मन में रचा-बसा हुआ है. जीवन का हर उदाहरण मानस से ही निकलता है और आज भी समाज, समस्याओं का निराकरण भी रामकथाओं में ही खोजता है. यह संत तुलसीदास की न सिर्फ भारतीय समाज को बल्कि अखिल विश्व को एक अनोखी भेंट है. उन्होंने रामकथा कहते हुए, इसकी चौपाई-दोहों में सिर्फ अलंकार जड़ने के लिए ऐसे-ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है, जिनका वर्णन किया जाए तो पता चलता है कि एक रामकथा में कई अलग-अलग कथाएं चल रही हैं. ऐसी ही एक कथा शिवजी से जुड़ी है.
तुलसीदास ने शिवजी को कहा है नयन पंचदस, आखिर क्यों?
रामचरित मानस के बालकांड में संत तुलसीदास ने श्रीराम बारात का वर्णन करते हुए एक जगह शिवजी को 15 नेत्रों वाला कहा है. उन्होंने एक चौपाई में उन्हें 'नयन पंचदस' कहकर पुकारा है. उन्होंने न सिर्फ शिवजी को बल्कि, अन्य देवताओं को भी उनकी आंखों की संख्या से पुकारा है. इसमें ब्रह्मा जी को आठ आंखों वाला, कार्तिकेय को 12 आंखों वाला और इंद्र को तो हजार आंखों वाला कहा है. संत तुलसीदास का सिर्फ इतना उल्लेख करना ही अपने आप में एक कथा है.
पहले बालकांड में राम बारात के समय की यह चौपाई देखिए
जेहिं बर बाजि रामु असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा॥
संकरु राम रूप अनुरागे। नयन पंचदस अति प्रिय लागे॥
तुलसीदास लिखते हैं कि, जिस श्रेष्ठ घोड़े पर श्रीराम सवार हैं, उसका वर्णन सरस्वतीजी भी नहीं कर पा रही हैं, जिन्होंने सारे संसार को वाणी दी है, लेकिन उसकी सुंदरता का बखान करने में उनकी भी बोली नहीं निकलती. वहीं महादेव शंकरजी श्रीराम के रूप में ऐसे अनुरक्त हुए कि उन्हें अपने पंद्रह नेत्र इस समय बहुत ही प्यारे लगने लगे.
कैसे हो गईं शिवजी की 15 आंखें?
सवाल उठता है कि आम जनमानस तो शिवजी को त्रिनेत्र (तीन आंखों वाला) ही जानता है, और यह भी जानता है कि शिवजी का तीसरा नेत्र विनाश लाता है. इसी नेत्र से उन्होंने कामदेव को भस्म कर दिया था. फिर तुलसीदास ने मानस में उन्हें 15 नेत्रों वाला कैसे कह दिया?
असल में तुलसीदास ने शिवजी को यहां पंचमुखी शिव कहा है. पौराणिक आख्यानों में भी महादेव शिव के पांच मुखों का वर्णन है. भारत में जगह-जगह शिव के पंचमुखी मंदिर मिल जाएंगे. रुद्राक्ष में भी पंचमुखी रुद्राक्ष का बहुत महत्व है.
ये हैं शिवजी के पांच स्वरूप
असल में शिवजी के विषय में वर्णन करने वाले शिवपुराण में उन्हें पंचानन कहा गया है, यानि शिवजी के पांच मुख बताए गए हैं. इसी आधार पर तुलसीदास ने उनके 15 नेत्र गिन लिए हैं, यानी कि हर मुख पर तीन आंखें. इसीलिए मानस के इस प्रसंग में उन्हें नयन पंचदश कहा गया है. महादेव शिव के पांच मुख वाले स्वरूप को 'पंचमुख' या 'पंचानन' कहा जाता है. शिवजी के ये अलग-अलग मुख पांच तत्वों और पांच दिशाओं के प्रतीक हैं. इन्हें ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव तथा सद्योजात कहा जाता है.
कौन हैं तत्तपुरुष?
रुद्रगायत्री मंत्र में भी शिव को तत्पुरुष कहा गया है. तत्पुरुष का अर्थ है कारक पुरुष. यानी वह, जो प्रकृति के हर कर्म का निर्धारण करने वाला पहला तत्व है. यह वायु तत्व का अधिपति भी है. पौराणिक मान्यताओं के आधार पर यह महादेव का पूर्वदिशा में निर्धारित मुख है.
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्र: प्रचोदयात”
अघोर स्वरूप क्या है?
वहीं शिव का एक स्वरूप अघोर है. अघोर संसार की नश्वरता का प्रतीक है. जन्म के बाद मरण की अनिवार्यता और फिर जन्म के चक्र को समझाने वाला अघोर ही है. इसीलिए इसका स्वरूप भयानक है. यह शिवजी का विनाशक स्वरूप है. इसकी वंदना इस मंत्र से की गई है. यह मुख दक्षिण दिशा में है.
अघोरेभ्योSथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्य:, सर्वेभ्य सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेSस्तु रूद्ररुपेभ्य:
ईशान क्यों है शिवजी का नाम?
शिवजी का एक नाम ईशान भी है. यह आकाश तत्व का अधिपति है और बताता है जिस तरह आकाश अनंत है, ठीक वैसी ही आत्मा भी है. उसका कोई अंत नहीं है और न ही कोई उसका अंत कर सकता है. आत्मा एक ऊर्जा है और वही ऊर्जा शिव है. ईशान का एक अर्थ स्वामी भी होता है. शिवजी की यह मुख आकाश की दिशा में ऊपर की ओर है.
ॐईशानः सर्वविध्यानामीश्वरः सर्वभूतानां ब्रम्हाधिपतिर्ब्रम्हणोधपतिर्ब्रम्हा शिवो मे अस्तु सदाशिवोम..
कैसा है सद्योजात स्वरूप?
शिव का एक स्वरूप सद्योजात भी है. यह पृथ्वी तत्व का प्रतीक है. पृथ्वी, जो सभी का पालन करती है और जो सभी जीवों का आधार है. यह परम स्वच्छ है, शुद्ध है और ज्ञान का सम्यक स्वरूप है.
“सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमः. भवे भवे नाति भवे भवस्व मां भवोद्भवाय नमः॥”
क्या है वामदेव स्वरूप?
वामदेव भी शिवत्व का जल स्वरूप है. यह वरुण का अधिपति है और विकारों का नाश करता है. शिवजी का यह मुख उत्तर दिशा में है और काले रंग का है.
वामदेवायनमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय
नमो रुद्राय नमः कालाय नमः.
परब्रह्म हैं महादेव शिव
शिवजी के इसी स्वरूप को परब्रह्म की संज्ञा दी गई है. यह सदाशिव का प्रकट स्वरूप है, शिवजी को इस स्वरूप का एक अंश बताया जाता है. तुलसीदास ने मानस में शिवजी के इसी वेद वर्णित साकार स्वरूप की कल्पना करते हुए उन्हें नयन पंचदश कहा है.
ब्रह्माजी के आठ और कार्तिकेय के 12 नेत्र कैसे?
इसी तरह संत तुलसीदास ने अगली चौपाई में ब्रह्माजी को आठ नेत्रों वाला कहा है. सभी को पता है कि ब्रह्मा जी चार मुखों वाले हैं. इस हिसाब से हर चेहरे पर उनकी दो आंखें यानी कि आठ आंखें हो गईं. लेकिन आगे उन्होंने लिखा है कि ब्रह्माजी अपने आठ आंख होते हुए भी पछताने लगे, क्योंकि उन्होंने देखा कि श्रीराम बारात को कार्तिकेय अपनी 12 आंखों से देख पा रहे हैं, जो कि ब्रह्माजी की डेढ़गुनी हैं.
तुलसीदास लिखते हैं...
हरि हित सहित रामु जब जोहे। रमा समेत रमापति मोहे॥
निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठइ नयन जानि पछिताने॥
छहमुख वाले हैं कार्तिकेय जी
अगली चौपाई में उन्होंने कार्तिकेय को 12 आंखों वाला कहा है. पौराणिक आख्यानों में कार्तिकेय को छहमुख वाला माना जाता है. इस हिसाब से देव सेनापति कार्तिकेय की 12 आंखें हैं. गौरी पूजा में भी मां सीता, पार्वतीजी को गजबदन, षडानन माता कहकर पुकारती दिखीं थीं. जिसका अर्थ है गजबदन (गणेश जी) और षडानन ( छह मुख वाले कार्तिकेय जी की माता). अपनी 12 आंखों के कारण ही देव सेनापति बहुत उत्साहित हैं,क्योंकि उनके पास ब्रह्मा जी से डेढ़ गुनी आंखें हैं.
यहां तुलसीदास लिखते हैं...
सुर सेनप उर बहुत उछाहू। बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू
साधारण नहीं था शिव पुत्र कार्तिकेय का जन्म
असल में भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय का जन्म साधारण नहीं था. शिव और पार्वती के अंशपुंज को अग्निदेव ने समय से पहले ही चुरा लिया पर वह उसका तेज नहीं सहन कर पाए. इसलिए उन्होंने उसे गंगा में बहा दिया. गंगा में बहते हुए वह अंशपुंज एक सरकंडे से टकराकर छह भागों में बंट गया और तैरता हुआ आगे बढ़ने लगा. एक स्थान पर देवलोक की छह कृत्तिकाएं स्नान कर रही थीं. अंशपुज उन्हीं में समागया और कार्तिकेय का जन्म छह अलग-अलग शिशुओं के रूप में हुआ, लेकिन जब सभी शिशु एक साथ रखे गए तो वह एक हो गए. उन्हीं कृत्तिकाओं ने उस शिशु का पाला, इसलिए वह शिशु कार्तिकेय कहलाया. जिसके छह मुख माने जाते हैं. यही 6 कृत्तिकाएं आगे जाकर छठ माता के रूप में जानीं गई, जिनके लिए बिहार में महापर्व छठ मनाया जाता है. ये कृत्तिकाएं सूर्यदेव की किरणें मानी जाती हैं. इसलिए उन्हें उनकी बहन भी कहा जाता है.
इंद्र को क्यों कहा गया है हजार नेत्रों वाला
इसी के आगे बढ़ते हुए तुलसीदास इंद्र को हजार नेत्रों वाला बता देते हैं. जबकि इंद्र का तो मुख भी एक है. सवाल उठता है कि आखिर उन्होंने किस आधार पर देवराज इंद्र को सहस नयन कहा है? बल्कि आगे अगली चौपाई में वह इंद्र से जोड़कर किसी श्राप की भी बात कर रहे हैं.
तुलसीदास लिखते हैं कि सभी देवता देवराज इन्द्र से ईर्ष्या कर रहे हैं (और कह रहे हैं) कि आज इन्द्र के समान भाग्यवान दूसरा कोई नहीं है.
रामहि चितव सुरेस सुजाना। गौतम श्रापु परम हित माना॥
गौतम ऋषि ने दिया था इंद्र को श्राप
आखिर इंद्र के हजार नेत्र कैसे हो गए और वह किस श्राप की बात कर रहे हैं. असल में इंद्र यहां गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या का जिक्र कर रहे हैं. वह गौतम ऋषि के दिए श्राप की बात कर रहे हैं. जब इंद्र ने ऋषि गौतम का वेश बनाकर अहिल्या के साथ छल किया था, तब गौतम ऋषि ने उन्हें श्राप दिया था कि जो वासना तुम्हारे मस्तिष्क में हमेशा हावी रहती है, वह तुम्हारे शरीर पर प्रकट हो जाए. इसी श्राप के कारण इंद्र के शरीर के सारे रोम छिद्र स्त्री की यौनि में बदल गए थे.
इस तरह इंद्र बन गए सहस्त्र नयन
जब इंद्र ने इस श्राप से मुक्ति का उपाय पूछा तो गौतम ऋषि ने कहा कि, तुम्हारे इस श्राप को अगर कोई सती नारी क्षमा कर दे तो वे श्राप मुक्त हो जाएंगे. संसार में सबसे सती नारी देवी पार्वती हैं, लेकिन वहभी इंद्र के इस कांड बहुत क्रोधित थीं, बल्कि वह तो इंद्र वध के लिए तैयार थीं, लेकिन देवता अमर थे. इसलिए, देवी पार्वती ने श्राप से मुक्ति तो नहीं दी, लेकिन स्त्री यौनि की मर्यादा के कारण उन सभी को आंखों में बदल दिया. इसके साथ ही कहा, अब तुम हर समय पीड़ा का अनुभव करते रहोगे. मनुष्य की तो दो ही आंखें हैं और उनमें एक कतरा भी चला जाए तो वह बिलबिला जाता है, लेकिन इंद्र हमेशा इस बिलबिलाहट से परेशान रहेगा.
लेकिन, आज वही इंद्र अपने शरीर की हजार आंखों के कारण खुद को भाग्यशाली समझ रहे हैं और बार-बार गौतम ऋषि के श्राप का बखानकर उनका धन्यवाद कर रहे हैं. संत तुलसीदास लिखते हैं कि श्रीराम चरित मानस और इसकी कथा का प्रभाव ही ऐसा है कि सभी दुखों का नाश हो जाता है.
विकास पोरवाल