कहानी रिकॉर्डतोड़ जलेबियों की... कहीं नर्म, करारी, कुरकुरी तो कहीं 70 किलो वजनी और 9 फीट लंबी

जलेबी तो जलेबी है, लाख काजू कतली खा लो, बेसन के लड्डुओं का भोग लगा लो. मथुरा के पेड़े चख लो, रबड़ी-इमरती खाकर दोना भी चाट जाओ, लेकिन जलेबी की जो लज्जत है उसका कोई तोड़, कोई सानी नहीं है. बड़े शहर वाले तो न जाने जलेबियां कब और कहां खाते हैं, लेकिन छोटे टू टियर वाले शहरों का तो सुबह-सुबह का भोग है जलेबी.

Advertisement
हरियाणा विधानसभा चुनाव में छायी रही जलेबी हरियाणा विधानसभा चुनाव में छायी रही जलेबी

विकास पोरवाल

  • नई दिल्ली,
  • 11 अक्टूबर 2024,
  • अपडेटेड 11:42 AM IST

गोल-गोल चकरी, गली-गली में रस
बूझो भैया पहेली तो रुपिया मिलेंगे दस

कुछ इसी तरह हुआ था जलेबी से पहला वास्ता. देसी घी में पहले फूल की तरह खिली, और फिर उठाकर चाशनी में डुबो दी गई और जब तक पत्ते के बने दोने में होकर हाथ में आती कि उससे पहले सामने आ गई ये पहेली. जवाब सामने था, लेकिन मन जलेबी की चकरी में ऐसा घनचक्कर था कि बुझाया ही नहीं कि बगल में खड़ा, खिचड़ी दाढ़ी वाला वो बूढ़ा बाबा पूछ क्या रहा है? उसके 10 रुपयों से हमें क्या मतलब था. हमारे पास तो थे अपनी जलेबी के 10 रुपये. 

Advertisement

तब से लेकर आज तक सोचता हूं कि ये जलेबी है तो वाकई बड़ी पहेली. कब ये हलवाई की कड़ाही से निकलकर 'संविधान बचाने की मुहिम' में शामिल हो जाए, चुनाव भर विरोधी खेमे में रहे और चुनाव बाद ऐसी पल्टी मारे कि विरोधी जलेबी सुन भी लें तो मुंह कड़वाहट से भर जाए. तिस पर तुर्रा ये कि कोई उनके नाम पर जलेबी भिजवा दे और मोड रखे कैश ऑन डिलीवरी... अब बताइए, इतनी चाशनीदार चीज का इस्तेमाल, ऐसे नश्तर चुभोने और तीखे कटाक्ष मारने में हो रहा है, ये भी कोई बात है भला? 

जलेबी के स्वाद का कोई सानी नही
लेकिन जलेबी तो जलेबी है, लाख काजू कतली खा लो, बेसन के लड्डुओं का भोग लगा लो. मथुरा के पेड़े चख लो, रबड़ी-इमरती खाकर दोना भी चाट जाओ, लेकिन जलेबी की जो लज्जत है उसका कोई तोड़, कोई सानी नहीं है. बड़े शहर वाले तो न जाने जलेबियां कब और कहां खाते हैं, लेकिन छोटे टू टियर वाले शहरों का तो सुबह-सुबह का भोग है जलेबी. एक तरफ पूरब के आसमान पर लालिमा छायी तो दूसरी ओर कड़ाही में लाल-लाल चकरियां आकार लेने लगीं. फिर तो उन्हें दूध के साथ खाया गया, दही के साथ लपेटा गया. छोले-पूड़ी के बाद अनिवार्य मीठे की तरह निपटाया गया. इंदौरी-भोपाली लोगों ने पोहे के साथ खाया तो गुजरातियों ने फाफड़ा-जलेबी का बहुबिधि स्वाद बताया. 

Advertisement

हर प्रदेश हर इलाके की अलग जलेबी
बंगाल से बिहार तक, यूपी से हरियाणा तक और बीच में दिल्ली भी. मध्य प्रदेश से महाराष्ट्र और राजस्थान से गुजरात तक... कोस-कोस पर पानी इतना नहीं बदला, जितना कि बदला जलेबियों का स्वाद और बदल गई उनकी रंगत. कहीं मैदे में खमीर लगाकर उनका घोल गाढ़ा किया गया, कहीं वह मिठास के बीच हल्की सी खटास की तासीर लिए रहीं. किसी कढ़ाही में उन्हें करारा सुर्ख रंग मिला तो कहीं  जलेबियों को हल्की पीली रंगत भी नसीब हुई. जिस चाशनी में केसर नहीं मिला था वहां वह सिंकने-तलने के बाद कुछ मटमैली रंगत में नजर आईं तो बड़ी-बड़ी दुकानों ने खुद को प्रतिष्ठान घोषित करते हुए अपनी नारंगी जलेबी को स्पेशल कहकर बेचा. 

जब जलेबियों पर बने रिकॉर्ड
जलेबियों की कहानी ऐसी बढ़ी कि इस पर तो होड़ मच गई और रिकार्ड बनने लगे. साल 2015 में मुंबई के एक रेस्तरां ने 9 फुट व्यास वाली और 18 किलो वज़न की जलेबी बनाई थी. इस रेस्तरां ने लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में दो नए रिकॉर्ड अपने नाम किए थे. पहला रिकॉर्ड 'एक कड़ाही में सबसे ज्यादा जलेबियां बनाने' का था, जहां 64 लोगों ने मिलकर 1036 जलेबियां बनाईं. जलेबी खाने की प्रतियोगिता में विनोद बोरिचा ने 2 मिनट में सबसे ज्यादा जलेबियां खाकर रिकॉर्ड कायम किया था. बोरिचा ने 480 ग्राम जलेबियां खाईं और लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में अपना नाम दर्ज करा लिया था.

Advertisement

महाराष्ट्र का रिकॉर्ड यूपी में टूटा
लेकिन, रिकॉर्ड तो बनते ही हैं टूटने के लिए. बात जलेबी की हो तो कोई कैसे पीछे रहे. यूपी के महाराजगंज में गणेश चतुर्थी के मौके पर इस रिकॉर्ड को तोड़ने की कवायद शुरू हुई. नौजवान बाजुओं में दम था और दिमाग में बस एक ही बात कि जो बनना है गोल बनाना है और 9 फीट की मियाद से ज्यादा का बनाना है. फिर क्या, कड़ाही नहीं आग पर कड़ाहा चढ़ाया गया और कपड़े में फेंटा मैदा लपेटकर उसे जब कड़ाही में घुमाना शुरू किया गया तो ये परिधि 11 फीट के दायरे से बाहर निकल गई और इस जलेबी का वजन हो गया 70 किलो से ज्यादा. साढ़े चार घंटे की मेहनत और बिना टूटे जलेबी नहीं विशालयकाय जलेबा जब रस के कुंड में नहाकर बाहर निकला तो उसका नाम गिनीज बुक वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज हो गया. 

गुलाम से आजाद मुल्क तक जलेबी की मिठास
वैसे जलेबी राष्ट्रीय मिठाई के तौर पर जानी जाती है, कबसे और कैसे कह नहीं सकते, लेकिन 1947 में 15 अगस्त की उस रोज जब लोगों को अहसास हुआ कि वह अब खुली हवा में सांस ले रहे हैं तो इस खुशी का स्वाद उन्होंने अपनी जुबान पर जलेबी खाकर महसूस किया. जलेबी की इस मिठास ने 200 सालों की गुलामी की कड़वाहट एक पल में भुला दी और इस तरह कभी ईरान से सफर करके भारतीय बाजार में पहुंची जलेबी ने हिंदुस्तानी आवाम के दिलो-दिमाग पर ऐसी जगह बना ली कि इसके बिना अब सुबहें नहीं होतीं, कहीं शामें नहीं ढलतीं. कही स्वाद नहीं बनता तो कहीं यारी-दोस्ती की बात नहीं बनती. 

Advertisement

हरियाणा के गोहाना की फेमस जलेबी
जैसे-जैसे शहर बदलता है, जलेबी बनाने की तौर तरीके भी बदल जाते हैं. नाम वही रहता है, बस थोड़ा सा स्वाद बदल जाता है. अब हरियाणा के गोहाना को ही ले लीजिए. यहां कांग्रेस नेता राहुल गांधी रैली करने गए और मंच से जलेबी का जिक्र क्या कर दिया, फिर तो जलेबी ऐसी छायी कि चुनाव भर जीभ पर ही नहीं जेहन में भी रही और लाला मातूराम को फेमस कर गई. 

मातूराम की जलेबी में खासियत ये है कि यहां एक जलेबी 250 ग्राम की होती है और अगर आप 1 किलो जलेबी लेंगे तो सिर्फ 4 पीस ही हासिल होंगे. बेशक उनका आकार सामान्य जलेबी से बड़ा है और इसीलिए इसे जलेबियों का बड़ा भाई भी कह देते हैं और किसी ने तो इसे जलेबा भी कह दिया. मीठे के शौकीन हैं तो कोई बात नहीं, लेकिन शुगर-बीपी की ज्यादा चिंता है तो जलेबी का एक टुकड़ा भी काफी है. खाइए और पानी पीजिए. 

उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड और मध्य प्रदेश की सीमा से जुड़े इलाकों में जलेबी का एक और कलेवर अपनी धाक जमाए हुए हैं. यहां खोये की जलेबी की बादशाहत कायम है. किनारों पर कुरकुरी, बीच में नर्म, तसल्लीबख्श तरीके से तैयार, देरतक चाशनी में डूबकर उसे पूरी तरह ऐसे आत्मसात कर लेना, जैसे दो जिस्म एक जान हैं. यहां संत कबीर की साखी याद आती है, कि 'प्रेम गली अति सांकरी, तामें दो न समाही' और ऐसा लगता है कि खोये की जलेबियों ने उनकी इस बात को बेहद ध्यान से सुना है. खाने वाले को भी इस बात का अहसास रहता है कि उसकी जुबान पर जो मिठास घुल रही है, उसमें कारीगर की करामात और जलेबी के रसपान दोनों का पूरा योगदान है. 

Advertisement

जलेबियों का मार्केट में एक और चेहरा मौजूद है, पनीर जलेबी. हालांकि देखकर लगता है कि इसे खरीदने की जहमत कम ही लोग उठाते हैं और तारीफ के कसीदकारों ने इस पर शायद ही कोई टिप्पणी कभी की हो. हो सकता है कि इसके प्रशंसक छिपे तौर पर मौजूद होंगे और सही समय आने पर बाहर निकल आएं. 

जलेबियों की बात जलेबी के साथ
जलेबी पर बात चलती है तो यहीं नहीं रुकती है, दूर तलक जाती है. कोई इसे आयुर्वेदिक औषधि घोषित करने पर तुला है. गूगल बाबा से पूछो तो वह इसे वजन बढ़ाने और ताकतवर बनाने के नुस्खे के तौर पर भी सुझा देते हैं. गर्म दूध और जलेबी पहलवानों का पसंदीदा आहार रहा है और माइग्रेन के मरीज को इसके पथ्य (रोगी को दिया जाने वाला आहार) दिए जाने की बात सामने आती है. यह भी बताते हैं कि संस्कृत में इसे रस वल्लिका, रस कुंडिलनी तक कहा गया है. ऐसे भी बड़े-बड़े दावे हैं कि ये जलेबी पहले जलाबिया थी और ईरान से भारत आकर यहां के रंग-ढंग में बदल कर जलेबी बन गई.  

अब क्या मानें क्या नहीं, कायदे से तो कुछ भी मानने की जरूरत नहीं. बिना किसी बहस के आराम से जलेबी खाइए, स्वाद बनाइए. दिन बनाइए. वैसे भी किसी मशहूर आदमी ने कहा ही है कि नाम में क्या रखा है? तो इसी बात पर गरमा-गरम जलेबी हो जाए...

---- समाप्त ----

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement