एनडीए के उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार सीपी राधाकृष्णन बतौर राज्यपाल और नेता कई मायनों में अलग पहचान रखते हैं. जहां कई राज्यों के राज्यपाल लगातार विवाद और टकराव की वजह से सुर्खियों में रहे, वहीं राधाकृष्णन ने चुपचाप और सादगी से अपनी जिम्मेदारियां निभाईं. आइए जानते हैं वो 3 बातें जो सीपीआर (CPR) को सबसे अलग बनाती हैं.
लंबी दौड़ के खिलाड़ी, राजनीति में भी ‘मैराथन रनर’
सीपी राधाकृष्णन असल जिंदगी में भी लंबी दौड़ के खिलाड़ी हैं. जैसे खिलाड़ी मैदान पर दौड़ते वक्त मुंह से बेवजह बोलने की बजाय सांस लेते हैं, वैसे ही राधाकृष्णन ने भी बिना विवादों में उलझे, चुपचाप अपने काम किए. यही वजह है कि जहां कई राज्यपाल राज्यों की सरकारों से भिड़ंत की वजह से चर्चा में रहे, वहीं राधाकृष्णन ने शांत रहकर अपनी जिम्मेदारी निभाई.
राजनीति की लंबी दौड़ लगाने वाले राधाकृष्णन को अब बीजेपी ने एनडीए की तरफ से उपराष्ट्रपति पद के लिए नामित किया है. रविवार को बीजेपी संसदीय बोर्ड ने उनके नाम पर मुहर लगाई.
68 साल के राधाकृष्णन दो बार कोयंबटूर से सांसद रह चुके हैं और तमिलनाडु बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष भी रह चुके हैं. चार दशक से ज़्यादा का राजनीतिक अनुभव और पार्टी के साथ गहरी जुड़ाव उन्हें इस पद के लिए स्वाभाविक दावेदार बनाता है.
उपराष्ट्रपति पद इसलिए भी अहम है क्योंकि इस पद पर बैठा नेता राज्यसभा का सभापति भी होता है. ऐसे में सदन की कार्यवाही को गरिमा के साथ चलाने के लिए अनुभव और साख दोनों ज़रूरी हैं. दिलचस्प यह है कि राधाकृष्णन की छवि विपक्ष में भी अच्छी है. कभी डीएमके के एक वरिष्ठ नेता ने उन्हें लेकर कहा था, 'अच्छे आदमी हैं, बस गलत पार्टी में हैं.' ये वही समय था जब राधाकृष्णन दूसरी बार लोकसभा पहुंचे थे और इसमें डीएमके का समर्थन भी शामिल था.
बिना टकराव के काम करने वाले राज्यपाल
तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि, बंगाल के सीवी आनंद बोस, पंजाब के गुलाबचंद कटारिया या फिर पूर्व राज्यपाल जगदीप धनखड़ और सत्यपाल मलिक जैसे कई नाम टकराव की वजह से सुर्खियों में रहे. इसके उलट सीपी राधाकृष्णन अपने शांत और सादगीभरे कामकाज के लिए जाने जाते हैं.
जुलाई 2024 से महाराष्ट्र के राज्यपाल बने राधाकृष्णन का कार्यकाल अब तक कम प्रोफ़ाइल और विवादों से दूर रहा है. कुछ लोग कह सकते हैं कि महाराष्ट्र में बीजेपी की सरकार होने की वजह से ऐसा हुआ, लेकिन उनका झारखंड का अनुभव भी यही दिखाता है कि वे पद की गरिमा बनाए रखते हैं.
झारखंड के राज्यपाल रहते हुए उन्होंने ज्यादा ध्यान जनता और ज़िला अधिकारियों से संवाद पर दिया, बजाय इसके कि झामुमो (कांग्रेस की सहयोगी पार्टी) से टकराव मोल लें. राज्यसभा के सभापति की भूमिका में यही संतुलन और धैर्य उनके लिए बड़ी ताकत साबित हो सकता है.
जड़ों से जुड़े नेता, कई राज्यों में सक्रिय
तमिलनाडु के तिरुपुर ज़िले से ताल्लुक रखने वाले राधाकृष्णन की राजनीतिक शुरुआत किशोरावस्था में आरएसएस स्वयंसेवक के तौर पर हुई. बाद में वो जनसंघ और फिर बीजेपी से जुड़े. वो तिरुपुर शहर और ज़िले में आरएसएस के प्रमुख भी रहे.
उन्होंने 1996 में तमिलनाडु बीजेपी के सचिव और 2004 से 2007 तक प्रदेश अध्यक्ष की भूमिका निभाई. इसी दौरान उन्होंने 19 हज़ार किलोमीटर लंबी और 93 दिन की रथ यात्रा निकाली. इस यात्रा का मकसद नदियों को जोड़ने, आतंकवाद खत्म करने और छुआछूत मिटाने जैसे मुद्दे थे. उनकी यही जमीनी पकड़ और खामोशी से काम करने की आदत उन्हें पार्टी के भरोसेमंद नेताओं में शामिल करती है. सिर्फ तमिलनाडु ही नहीं, राधाकृष्णन ने केरल में भी अहम भूमिका निभाई, जहाँ वे कॉयर बोर्ड के चेयरमैन रहे.
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने भी उनके अनुभव की सराहना करते हुए कहा था कि सांसद और राज्यपाल के रूप में आपकी भूमिकाएं संवैधानिक जिम्मेदारियों को निभाने में महत्वपूर्ण रही हैं. मुझे विश्वास है कि आपका अनुभव और समझ राज्यसभा की प्रतिष्ठा बढ़ाएंगे और नए मील के पत्थर गढ़ेंगे.
कोयंबटूर के ‘वाजपेयी’
राधाकृष्णन को स्थानीय स्तर पर ‘कोयंबटूर का वाजपेयी’ भी कहा जाता है, उनकी मिलनसार छवि की वजह से. यही गुण उन्हें विपक्ष के बीच भी स्वीकार्य बनाता है, जो राज्यसभा अध्यक्ष जैसे पद पर बेहद अहम है. 1999 में उनकी लोकसभा जीत डीएमके के समर्थन से हुई थी, जबकि 1998 में उन्होंने एआईएडीएमके के समर्थन से जीत हासिल की थी. यानी उन्होंने दोनों प्रतिद्वंद्वी दलों के साथ तालमेल बिठाने की क्षमता दिखाई.
हालांकि 2004, 2014 और 2019 में उन्हें कोयंबटूर से हार का सामना भी करना पड़ा. लेकिन उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि भी अब अहम मानी जा रही है. गोंडर (ओबीसी) समुदाय से आने वाले राधाकृष्णन का यह उत्थान तमिलनाडु की 2026 विधानसभा चुनाव से पहले इस वोट बैंक को साधने की रणनीति के तौर पर भी देखा जा रहा है. चाहे जातीय समीकरण हों या उनकी गैर-टकराव वाली शैली, सीपी राधाकृष्णन की पूरी राजनीतिक यात्रा यह साबित करती है कि वो सचमुच राजनीति के लॉन्ग-डिस्टेंस रनर हैं.
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