वृंदावन का बांके बिहारी मंदिर... किसी भी सामान्य दिन में भारी भीड़ इकट्ठी हो जाना यह इस धार्मिक स्थल के लिए आम बात हो चुकी है. मौका अगर जन्माष्टमी या होली के दौरान का हो तब तो जो तस्वीर बनती है, बयां करने की जरूरत नहीं. गलियां हजारों भक्तों से भर जाती हैं, जो दर्शन के लिए आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं. बाहर की तंग गलियों में दुकानदार अपनी आवाज बुलंद करने के लिए चिल्लाते रहते हैं. प्रसाद की थालियों को हाथों में संभालते हुए दुकानदार जगह बनाने की कोशिश करते हैं. बीच में कुछ गायें भी भटकती हैं, जिससे हालात बद से बदतर हो जाती है.
नतीजा... भक्ति भाव और आस्था के जयकारों के बीच बांके बिहारी मंदिर एक अव्यवस्था से भरा और असुरक्षित स्थल बन जाता है. यहां के लोग अब भी जन्माष्टमी 2022 की बात करते हैं. उस दिन भारी भीड़ में दो लोगों की जान चली गई थी और कई भक्त घायल हो गए थे. कई लोग कहते हैं कि वह याद नहीं मिटती, हर बार भीड़ बढ़ने पर वह सामने आ जाती है. मंदिर के अंदर और बाहर बहुत ज्यादा लोग थे, निकास के रास्ते कम थे, कोई व्यवस्थित कतार नहीं थी और आपात स्थिति में मदद का कोई तरीका भी नहीं था.
प्रस्तावित बांके बिहारी कॉरिडोर इसी अव्यवस्था से निपटने का तरीका है, जो श्रद्धा और वास्तविकता के बीच संतुलन बनाने की कोशिश है. सरकारी अधिकारी मानते हैं कि यह कॉरिडोर मंदिर तक जाने वाले रास्ते को चौड़ा करेगा, दर्शन प्रक्रिया को व्यवस्थित करेगा और शौचालय, पीने का पानी और मेडिकल पोस्ट जैसी बुनियादी सुविधाएं जोड़ेगा, लेकिन इस योजना को उन लोगों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है, जो परंपराओं की कीमत पर चिंतित हैं.
स्थानीय लोग और नियमित दर्शनार्थी स्थिति से अच्छी तरह वाकिफ हैं. शौचालय? शायद कुछ ही हैं, लेकिन अक्सर खराब हालत में हैं. साफ पानी? ज्यादातर छोटे स्टालों से मिलता है. प्राथमिक चिकित्सा? आपात स्थिति में मदद के लिए कोई जगह नहीं है. व्यस्त दिनों में तंग रास्ते भीड़ से दब जाते हैं, बिना किसी औपचारिक भीड़ प्रबंधन के. कॉरिडोर का खाका चौड़े प्रवेश और निकास बिंदुओं, दर्शन के लिए अलग-अलग लेन, बुजुर्ग तीर्थयात्रियों के लिए विश्राम क्षेत्र और मेडिकल स्टेशनों की मांग को पूरी कर सकता है. यह एक ऐसे मंदिर के लिए बेहद जरूरी बुनियादी सुविधाएं हैं जो हर साल लाखों लोगों को आकर्षित करता है, बल्कि ये बुनियादी सुविधाएं तो सालों पहले होनी चाहिए थीं.
विरोध का नेतृत्व सेवायत गोस्वामी समुदाय कर रहा है, जो पीढ़ियों से मंदिर की सेवा करने वाले वंशानुगत पुजारी हैं. उनकी मुख्य चिंता सुविधाओं से नहीं, बल्कि मंदिर के दैनिक अनुष्ठानों और परंपराओं पर नियंत्रण खोने की है. उन्हें यह भी डर है कि सदियों से बनी अनूठी आध्यात्मिकता हमेशा के लिए बदल सकती है. सरकारी अधिकारियों ने वादा किया है कि सेवा-पूजा व्यवस्था वैसी ही रहेगी, सेवायतों की भूमिका बरकरार रहेगी और विस्थापित लोगों (दुकानदारों, निवासियों) को उचित मुआवजा और पुनर्वास दिया जाएगा. सुप्रीम कोर्ट को भी राज्य के तर्क में कुछ दम दिखता है. लेकिन यह आलोचकों को मनाने के लिए काफी नहीं लगता.
वाराणसी का काशी विश्वनाथ कॉरिडोर भी शुरू में ऐसी ही उलझनों से गुजरा था. जब योजना पहली बार सामने आई, तो स्थानीय समूहों और विरासत की आवाजों ने इमारतों को तोड़े जाने, पुरानी पहचान खोने और क्षेत्र के अति-वाणिज्यिक होने की चिंता जताई थी. लेकिन जैसे-जैसे काम आगे बढ़ा, पुरानी इमारतों की मरम्मत हुई, अनुष्ठानों के लिए खुली जगह बनी और पहुंच आसान हुई. अब तो शुरुआती विरोधी भी मानते हैं कि इससे मदद मिली है, बिना मंदिर के मूल स्वरूप को नुकसान पहुंचाए.
योजना के तहत, राज्य सरकार मंदिर के आसपास पांच एकड़ जमीन अधिग्रहित करने जा रही है. लेकिन इस क्षेत्र में वर्तमान में करीब 300 मंदिर और आवासीय इमारतें हैं, जहां लोग सैकड़ों सालों से रहते हैं, जिन्हें अब तोड़ा जाएगा. सरकार का कहना है कि कॉरिडोर से भक्तों की आवाजाही आसान होगी. यह भी उम्मीद है कि क्षेत्र का उचित विकास अधिक पर्यटकों और तीर्थयात्रियों को आकर्षित करेगा. आस्था हमेशा वृंदावन में भीड़ खींचेगी. लेकिन मंदिर के बाहर की गलियां उन संख्याओं के लिए तैयार नहीं हैं और जब कुछ गलत होता है, तो कीमत भक्तों को चुकानी पड़ती है. समर्थक कहते हैं कि कॉरिडोर 2022 की पुनरावृत्ति रोकने का एकमात्र तरीका है. विरोधी कहते हैं कि विकास की कीमत पर विरासत को नहीं छूना चाहिए. इन दोनों के बीच कहीं मध्य मार्ग है: सुरक्षित, साफ-सुथरे रास्ते और बांके बिहारी की परिभाषित करने वाली परंपराओं को बिना छुए.
मंजीत नेगी