बिहार में जाति आधारित सर्वे की रिपोर्ट सोमवार को जारी हो गई. इस रिपोर्ट के जारी होने के बाद लोकसभा चुनाव से पहले बिहार में एक बार फिर नए सिरे से फारवर्ड बनाम बैकवर्ड की राजनीति शुरू होने की आशंका जताई जा रही है. अगर, राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार फारवर्ड बनाम बैकवर्ड की राजनीति को हवा देने में सफल होते हैं तो यह 2024 लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी के लिए खतरे की घंटी है.
2015 बिहार विधानसभा में जब लालू यादव और नीतीश कुमार ने एक साथ आए थे और फारवर्ड बनाम बैकवर्ड की राजनीति हुई थी तो उसमें बीजेपी को मुंह की खानी पड़ी थी. सोमवार को बिहार सरकार ने जो जाति आधारित सर्वे की रिपोर्ट पेश की है, उसके मुताबिक, बिहार में 63% से अधिक आबादी पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग की है. इसे लालू प्रसाद और नीतीश कुमार का वोट बैंक माना जाता है.
वहीं, बीजेपी जिसका वोट बैंक उच्च जाति का माना जाता है, उसके लिए मुश्किल का सबब यह है कि जाति आधारित सर्वे की रिपोर्ट में अनारक्षित वर्ग की आबादी मात्र 15.5 प्रतिशत ही है. 2019 लोकसभा चुनाव में जब नीतीश कुमार की जदयू और रामविलास पासवान की LJP एनडीए का हिस्सा थी तब गठबंधन ने 40 में से 39 सीटें बिहार में जीती थी. लेकिन बीजेपी के लिए अब ये लक्ष्य आसान नहीं है, क्योंकि जदयू NDA का हिस्सा नहीं है.
असमंजस में बीजेपी!
जातिगत सर्वे की रिपोर्ट आने के बाद बीजेपी असमंजस में है कि वह क्या स्टैंड ले? बिहार बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष सम्राट चौधरी ने सरकार को घेरते हुए केवल इतना कहा कि आखिर बिहार सरकार ने जाति आधारित सर्वे के साथ-साथ जो आर्थिक आधार पर सर्वे करवाया था, उस रिपोर्ट को पेश क्यों नहीं किया गया?
सूत्रों के मुताबिक, बिहार बीजेपी के नेताओं ने जाति आधारित सर्वे के सामने आने के बाद इस पूरे मामले को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के सामने रखा है और इस रिपोर्ट पर क्या स्टैंड लिया जाए, इसके लिए पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के आदेश का इंतजार किया जा रहा है.
नए साथी तलाशेगी बीजेपी?
माना जा रहा है की जाति आधारित सर्वे के रिपोर्ट सामने आने के बाद भाजपा बिहार में नए सिरे से गठबंधन की साथियों की तलाश शुरू कर सकती है, जिसमें विकासशील इंसान पार्टी प्रमुख और मल्लाह नेता मुकेश सहनी महत्वपूर्ण है. जाति आधारित सर्वे में जो आंकड़े सामने आए हैं उसके मुताबिक बिहार में केवट और मल्लाहों की आबादी तकरीबन 3.3% है. इस वर्ग पर बीजेपी की नजर है. मुकेश सहनी फिलहाल ना तो विपक्षी गठबंधन का हिस्सा है ना ही एनडीए का. ऐसे में इस बात की संभावना है कि बीजेपी अपनी रणनीति में बदलाव करते हुए मुकेश सहनी से गठबंधन के लिए संपर्क साध सकती है.
वहीं दूसरी तरफ बीजेपी बिहार में बसपा को अपने साथ गठबंधन में लाने की कोशिश कर सकती है. क्योंकि मायावती की पार्टी अभी न तो विपक्षी गठबंधन का हिस्सा हैं और न ही एनडीए का. बिहार की बात करें, तो यहां चमार और मोची आबादी 5.3 प्रतिशत है, इस पर मायावती की पकड़ मानी जाती है. ऐसे में इन वोटों पर फोकस करते हुए बीजेपी मायावती को अपने साथ ला सकती है.
ओवैसी गठबंधन के लिए बन सकते हैं चुनौती
बिहार में महागठबंधन के लिए कोई मुश्किल पैदा कर सकता है, तो वे हैं AIMIM चीफ असदुद्दीन ओवैसी. 2020 विधानसभा चुनाव में ओवैसी की पार्टी ने सीमांचल क्षेत्र में चुनाव लड़ा था और 5 सीट पर जीत हासिल की. आरजेडी को इस बात का अहसास है कि ओवैसी की पार्टी ने जो नुकसान उसे पहुंचाया था, उसी की वजह से तब RJD की सरकार नहीं बन पाई थी.
रोहित कुमार सिंह