देश के जाने-माने संतूर वादक पंडित शिवकुमार शर्मा का जन्म 13 जनवरी, 1938 को हुआ था. 17 साल की उम्र में अपना पहला स्टेज परफॉर्मेंस देने वाले शिवकुमार शर्मा ने पांच साल की उम्र में अपनी ट्रेनिंग शुरू की थी. वे संतूर वादक के साथ-साथ अच्छे गायक भी हैं. उन्होंने बचपन से संगीत की पढ़ाई की. उनके पिता उमादत्त शर्मा जम्मू के ख्यात सिंगर थे. वे लोक गीतों में इस्तेमाल होने वाले संतूर पर रिसर्च कर रहे थे. तब उन्होंने एक दिन तय किया. मेरा बेटा तबला और गायन के फेर में ढेर नहीं होगा. वो तो संतूर पर क्लासिक मौसिकी पैदा करेगा. नतीजा सामने है.
शिवकुमार शर्मा ने बांसुरी वादक पंडित हरिप्रसाद चौरसिया के साथ कई फिल्मों में संगीत भी दिया. इस जोड़ी को शिव-हरि नाम दिया जाता है. हालांकि इससे पहले उन्होंने एक एलबम निकाला था. 1967 में घाटी की पुकार के नाम से. साथ में तबले पर पंडित ब्रजभूषण कालरा भी थे.
शिवकुमार शर्मा ने स्विटरजलैंड का एक वाकया शेयर किया था. उन्होंने बताया, आल्प्स में वह एक गांव जैसी जगह थी. वहां केवल किसान रहते थे. एक गिरिजा घर था. थोड़े-बहुत घर, कार भी ऊपर नहीं आती थी. एक डाकघर था. रात में खाना खाकर हम जो बैठे तो चारों ओर केवल सन्नाटा हो गया. तब सुनाई दिया कि कहीं कोई गा रहा है. पास में कहीं पहाड़ी पर कोई किसान कहीं बैठा हुआ है. अकेला, स्विस, उसकी भाषा भी हमें समझ में नहीं आ रही थी. गा रहा था. उसे निकट से सुनने के लिए, जहां हम ठहरे थे, उस मकान में एक बाथरूम था जिसकी खिड़की खुली हुई थी और बत्ती बंद थी, हम अंधेरे में धीरे धीरे उस बाथरूम में जाकर बैठ गए. खिड़की से गायन की आवाज बहुत साफ सुनाई दे रही थी और वह उस सन्नाटे में, माहौल में, जहां भाषा भी हमें समझ में नहीं आ रही, हम उस स्वर को सुन रहे हैं. उस स्वर का जो हम पर असर हो रहा है कि हम सब तरह का संगीत भूल गए कि यह जो कर रहा है, काश हम ऐसा कर पाएं.'
शिवकुमार शर्मा ने 'सिलसिला' (1981), 'फसल' (1985), 'चांदनी' (1989), 'लम्हे' (1991) जैसी कई फिल्मों में हरिशंकर प्रसाद के साथ संगीत दिया. 1965 में उन्होंने निर्देशक वी शांताराम की नृत्य-संगीत के लिए प्रसिद्ध हिन्दी फिल्म झनक झनक पायल बाजे का संगीत दिया था.
पंडितजी का कहना है कि 1970 और 80 के दशक की फिल्मों के गानों में क्लासिकल म्यूजिक अधिक होता था. आज के फिल्म निर्देशक इलेक्ट्रॉनिक यंत्रों के साथ क्लासिकल बंदिश करते हैं. फिल्मों में क्लासिकल म्यूजिक का चलन प्रयोगवादी हो गया है.