हाल फिलहाल रिलीज़ हुई दो फिल्मों, तड़का और Qala को देखकर ऐसा महसूस हुआ जैसे आप बैठे शामियाना लगाकर हों और आपको कच्चा खाना परोस दिया जाए. दोनों फिल्में दरअसल सिनेमा में क्या न करें का सबक हैं.
ओटीटी पर पिछले दिनों दो फिल्में आईं. दोनों को देखने के नियत कारण थे. एक फिल्म में नाना पाटेकर का अभिनय है. फिल्म का नाम है तड़का. नाना को इस नए अवतार में देखने की हुड़क थी. इसलिए फिल्म देख डाली. लेकिन तड़का इतना बेझस और बेस्वाद होगा, इसका अंदाजा नहीं था.
दूसरी फिल्म को देखने के लिए एक बड़ी वजह थी इरफान के बेटे को पर्दे पर देखना. कुछ सधे हुए कलाकार और भी थे इसलिए लगा कि इसे देखा जा सकता है. लेकिन Qala में सिनेमा की कला के अलावा बहुत कुछ था जो खेत में उगे खरपतवार जैसा था. दरअसल, इन दोनों फिल्मों से अपेक्षाएं वैसी नहीं थीं जैसी कि कॉमर्शियल और बॉलीवुडिए सिनेमा से होती हैं. देखने से पहले दोनों के कथानक, कलाकार और प्रयास में एक घिसी-पिटी लकीर का हिंदी सिनेमा नहीं था. इसमें एक नएपन की उम्मीद थी. लकीर से हटकर दिखने की जिज्ञासा थी और अभिनय खोज पाने का आनंद था.
अफसोस कि दोनों ही फिल्में इस मायने में विफल रहीं. सिनेमा पढ़नेवालों को ये फिल्में ज़रूर देखनी चाहिए ताकि इल्म रहे कि सिनेमा बनाते हुए क्या नहीं करना है.
ठंडा तड़का
पहले बात तड़के की. नाना की तड़का एक ऐसी फिल्म है जैसे कोई आपको थकी और ठंडी दाल परोस दे. ज़ीरा जला हुआ हो. हींग का पता न हो. और तड़का ठंडा करके दाल पर फैला दिया गया हो. अली फ़ज़ल, तापसी पन्नू, मुरली शर्मा और लिलिट दुबे जैसे चेहरों को नाना के साथ इस फिल्म में लाया गया. उम्मीद थी कि ये फिल्म अपने हुनरमंदों की वजह से दिमाग के देग को ताज़ा कर देगी. लेकिन तड़का बुझा हुआ मिला.
एक ताजेपन और कसावट के इंतज़ार में फिल्म खत्म भी हो गई. कई संवाद गैर-ज़रूरी लगे. कहानी बहुत ही प्रिडिक्टिबल और थकी हुई. देखते हुए लगा ही नहीं कि ये कलाकारों का सिनेमा है. ऐसा आभास होता रहा कि फिल्म के कलाकार अपनी शुरुआती रिहर्सल कर रहे हैं. फिल्म स्लो है और कई मौकों पर उबाऊ है.
आखिर का क्लाइमेक्स तो और भी ज़्यादा खिंचा और सस्ता है. कुल मिलाकर ये ऐसा था कि रसोई में सारे सब्ज़-माल और मसाले मौजूद थे लेकिन ज़ायके की ऐसी तैसी कर दी गई है.
कच्ची Qala
तड़के की निरसता से फारिग होते, तबतक ओटीटी पर Qala का प्रोमो दिख गया. ऐसा लगा कि अगर नाना की रसोई एहसास-ए-सुकूं से फारिग है तो कोई बात नहीं, कला से ही मन बहला लेना चाहिए. लेकिन सिनेमा जैसे-जैसे आगे बढ़ा, ऐसा मालूम दिया कि जैसे आप कहीं से खराब खाना खाकर किसी डरावने रास्ते से अपने घर लौट रहे हों.
Qala दरअसल एक ज़बरदस्ती का कोलाज है. इसमें अनुष्का शर्मा से लेकर वरुण ग्रोवर और स्वानंद किरकरे तक को पर्दे पर उतार दिया गया. देखने की ताब तो बाबिल खान और तृप्ति डिमरी थे. अमित सैल, अभिषेक बनर्जी, समीर कोचर और नीना राव को भी इसमें दर्शाया गया. लेकिन ऐसा लगा जैसे फिल्म का सेट ही अपने कलाकारों को निगलता जा रहा है.
फिल्म ज़रूरत से ज्यादा धीमी और सुस्त है. बाबिल ने मज़बूत काम करने की कोशिश की लेकिन अंधेरे में डूबी फिल्म उसके कई मज़बूत एक्सप्रेशेंस को खा गई. रही-सही कसर घिसटती रील ने पूरी कर दी. फिल्म के कई दृश्य सिनेमा न लगकर किसी फोटो शूट के सेट जैसे मालूम देते हैं. ऐसा लगता है कि सिनेमा की जगह और किसी आर्ट थीम पर फोटो शूट देख रहे हैं.
Qala की कहानी कमज़ोर है. हालांकि उसे भी अगर अच्छे से निर्देशित किया जाता, तो कुछ उम्मीद की जा सकती थी. लेकिन निर्देशन से ज्यादा ये फिल्म सेट और लाइट दिखाने में खर्च हो गई. तृप्ति इस फिल्म के केंद्र में हैं लेकिन उनके पास दर्शकों के लिए कोई कसावट और चुंबक मिला नहीं.
कैमरे के प्रयोग में भी कुछ शॉट्स बेवजह ही अतिकलात्मकता थोपते नज़र आते हैं. फिल्म अपनी बुनियाद से अलग किसी डर, रहस्य और विस्मय को ओढ़े हुए है. ये ऐसा है कि जैसे बात सूरज की हो और आप किसी बिना रौशनी के कमरे में कैद हों. बनाने वालों को इस बात के लिए शुक्रगुजार होना चाहिए कि हिम्मत करके ये फिल्म भी पूरी देखी.
बुझा हुआ संगीत
सितारों के साथ पोट्रेट वाली इस फिल्म में संगीत भी बुझा हुआ है. कुमार गंधर्व के साथ हुआ प्रयोग बहुत मिसफिट है. उसमें न निर्गुण है और न ही वो मकाम जो इस पद्य को पहले से हासिल है, बाकी के गीत और संगीत भी कानों के एक रोएं तक में अटकते नहीं.
हिंदी सिनेमा के बड़े प्रोडक्सन से किसी कला और तड़के की उम्मीद कम ही रहती है. अधिकतर फिल्में एक ढर्रे में बनाई-परोसी जाती रही है. इन दोनों से विषयांतर की अपेक्षा थी. अपेक्षा प्रेम का सबसे बड़ा छल है. दोनों को देखते हुए छला हुआ ही महसूस कर पा रहा हूं.
पाणिनि आनंद