मेवाती घराने से ताल्लुक रखते थे पं जसराज, इसलिए बने गाय‍की के 'रसराज'

गायकी की दुनिया के रसराज कहलाने वाले शास्त्रीय गायक पंडित जसराज का 90 साल की उम्र में आज निधन हो गया. पद्म विभूषण से सम्मानित पंडित जसराज के बारे में जानिए खास बातें.

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पंडित जसराज (फोटो- बनदीप सिंह) पंडित जसराज (फोटो- बनदीप सिंह)

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 17 अगस्त 2020,
  • अपडेटेड 8:44 PM IST

संगीत परंपरा की थाती कहे जाने वाले पंड‍ित जसराज का जाना सुरों की दुनिया से एक सितारे के टूटने जैसा है. उन्होंने सिर्फ भारत ही नहीं पूरी दुनिया में शास्त्रीय संगीत की परंपरा को पहुंचाने का काम किया.

बता दें कि पंडित जसराज का जन्म 28 जनवरी 1930 को हरियाणा के हिसार में हुआ था. उनके परिवार की चार पीढ़‍ियां शास्त्रीय संगीत परंपरा को लगातार आगे पहुंचाती आ रही थीं. खयाल शैली की गायकी के लिए मशहूर पंडित जसराज मेवाती घराने से जुड़े थे. पंडित जसराज के पिता पंडित मोतीराम भी मेवाती घराने के संगीतज्ञ थे.

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जब पंडित जसराज महज तीन-चार साल के थे, तभी उनके पिता का निधन हो गया था. बताते हैं कि 14 साल की उम्र तक वो सिर्फ तबला सीखते थे. इसके बाद उन्होंने गायकी में कदम रखे और बाकायदा इसकी तालीम ली. फिर उनकी संगीत यात्रा इतनी खूबसूरत बनी कि साढ़े तीन सप्तक तक शुद्ध उच्चारण और स्पष्टता रखने की मेवाती घराने की विशेषता को आगे बढ़ाया. पंडित जसराज की शादी फिल्म डायरेक्टर वी शांताराम की बेटी मधुरा शांताराम से हुई थी.

कैसे बने गायकी के रसराज

पंडित जसराज ने स्वयं एक इंटरव्यू में बताया था कि संगीत की राह पर मेरी शुरुआत तबले से हुई थी. जब वो महज चौदह साल के थे, तभी उनका गायकी की तरफ रुझान हुआ. इसके पीछे वो एक घटना का जिक्र करते थे. उन्होंने बताया कि साल 1945 में लाहौर में कुमार गंधर्व के साथ वो तबले पर संगत कर रहे थे. कार्यक्रम के अगले दिन कुमार गंधर्व ने उन्हें डांटते हुए कहा कि जसराज तुम मरा हुआ चमड़ा पीटते हो, तुम्हें रागदारी के बारे में कुछ नहीं पता. वो बताते थे कि इसी एक घटना के बाद से वो तबले को भूलकर गायकी और सुरों की दुनिया की ओर मुड़ गए.

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घर-घर मिली पहचान

पंडित जसराज को श्री वल्लभाचार्य जी द्वारा रचित भगवान कृष्ण की मधुर स्तुति मधुराष्टकम् ने घर-घर पहुंचा दिया. उनकी आवाज में गाए इस मधुराष्टकम् से लोग उनके नाम के मुरीद हो गए. उनके हर कार्यक्रम में लोग मधुराष्टकम् गाने की मांग करते थे. उनका कोई कार्यक्रम इस स्तुति के ब‍िना अधूरा रहता था. इस स्तुति के शब्द अधरं मधुरं वदनं मधुरं, नयनं मधुरं हसितं मधुरं.... हृदयं मधुरं गमनं मधुरं, मधुराधिपतेरखिलं मधुरं उनकी आवाज में मानो कानों में भक्त‍ि रस का शहद घोलने वाले थे.

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