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परमवीर चक्र: हाथ में फ्रेक्चर, 500 दुश्मनों से लड़ा था ये वीर!

प्रियंका शर्मा
  • 12 अगस्त 2018,
  • अपडेटेड 1:53 PM IST
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परमवीर चक्र भारत का सर्वोच्च शौर्य सैन्य सम्मान है, जो वॉर टाइम यानी दुश्मनों की उपस्थिति में शूरवीरता और त्याग के लिए प्रदान किया जाता है. साल 1950 से दिए जा रहे परमवीर चक्र से सबसे पहले मेजर सोमनाथ शर्मा को सम्मानित किया गया था. 'परमीवर चक्र' सीरीज में जानते हैं सोमनाथ शर्मा के बारे में...

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सोमनाथ शर्मा भारतीय सेना एक ऐसे जाबांज थे, जिन्होंने एक हाथ में फ्रेक्चर होने के बाद भी दुश्मनों से लोहा लिया और दुश्मनों की संख्या ज्यादा होने के बाद भी एक इंच भी पीछे ना हटने का फैसला किया. उन्हें जम्मू और कश्मीर में किए गए वीरतापूर्ण कार्यों के लिए परमवीर चक्र (मरणोपरांत) से पुरस्कृत किया गया था. शर्मा कुमाऊं रेजीमेंट की चौथी बटालियन के जवान थे.

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मेजर सोमनाथ का जन्म 31 जनवरी साल 1923 को पंजाब प्रांत के कांगड़ा में हुआ था. सोमनाथ शर्मा के पिता अमर नाथ शर्मा भी ब्रिटिश इंडियन आर्मी में अधिकारी थे. शर्मा ने देहरादून के प्रिन्स ऑफ वेल्स रॉयल मिलिट्री कॉलेज में दाखिला लेने से पहले, शेरवुड कॉलेज, नैनीताल में अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की. बाद में उन्होंने रॉयल मिलिट्री कॉलेज, सैंडहर्स्ट में अध्ययन किया.

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22 फरवरी साल 1942 को अपनी ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी करने के बाद सोमनाथ नाथ शर्मा का चयन ब्रिटिश इंडियन आर्मी की 19वीं हैदराबाद रेजीमेंट में 8वीं बटालियन में चयनित हुए. वह बचपन से ही खेलकूद और एथलेटिक्स में अच्छा प्रदर्शन करते थे. सेना ज्वॉइन करने के बाद उन्हें द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत के साथ मलाया के पास के युद्ध क्षेत्र में भेज दिया गया.

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अपने पराक्रम, क्षमताओं के दम पर एक विशिष्ट सैनिक के रूप में पहचाने रखने वाले सोमनाथ शर्मा हमेशा अपनी जेब में गीता रखते थे. जब शर्मा शहीद हुए थे, तो उनकी जेब में गीता और उनकी पसंदीदा पिस्तौल के कारण ही उनकी पहचान की जा सकी थी.


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सोमनाथ शर्मा भारत-पाक युद्ध (1947-48) में शहीद हुए थे. उन्होंने अपनी दुश्मनों से लौहा लेने से पहले ऐलान कर दिया था कि दुश्मन की संख्या कितनी भी हो, लेकिन उनके या उनकी रेजिमेंट के एक भी जवान जिंदा रहने तक और एक भी गोली बचे रहने तक वो पीछे नहीं हटेंगे.

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आजाद होने के कुछ दिन बाद ही भारत बडगाम युद्ध का गवाह बना था. उस वक्त बडगाम में सैकड़ों कबाइली बड़ी तादात में कश्मीर घाटी में प्रवेश कर रहे थे और उनका मकसद एयरफील्ड पर कब्जा करना था, ताकि सेना ना पहुंच सके.

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इस वक्त ब्रिगेडियर एलपी सिंह ने तीन कंपनियों का एक पेट्रोल बड़गाम भेजा. इनका काम था घुसपैठ कर रहे कबालियों को ढूंढना. हालांकि बाद में दो रेजिमेंट को वापस बुला लिया गया और उस इलाके में कुमाउं रेजिमेंट की चौथी बटालियन वहां रह गई, जिसकी कमांड मेजर सोमनाथ शर्मा के हाथ में थी. ये सोमनाथ शर्मा की जिद दी थी और वहां से पीछे नहीं हठे. लेकिन उनकी जिद के आगे उनके सीनियर हार गए.

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लेकिन 3 नवंबर 1947 को पेट्रोलिंग के दौरान, दोपहर ढाई बजे उन्हें कबालियों की मूवमेंट दिखाई दी और कुछ देर में दुश्मन से घिर गए. उस दौरान उनका दायां हाथ फ्रेक्चर था, क्योंकि कुछ दिन पहले हॉकी खेलते हुए उन्हें चोट लग गई थी. जिसकी वजह से वो बंदूक नहीं चला सकते थे, इसलिए उन्होंने वो रेजिमेंट के और जवानों की मैगजीन लाने में मदद करते रहे और एक पोस्ट से दूसरे पोस्ट तक भागते रहे.

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इस वक्त पाकिस्तानी ट्राइब फोर्सेज के करीब 500 जवान 3 इंच और 2 इंच के मोर्टार दागकर भारतीय सेना पर हमला कर रहे थे. बताया जाता है कि कबाइलियों की संख्या उनकी रेजिमेंट की संख्या से सात गुना ज्यादा थी और पूरी तरह घायल होने के बाद उन्होंने मोर्चा नहीं छोड़ा.

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अपनी जान की बाजी लगाने से पहले उन्होंने ब्रिगेडियर क्वार्टर को जो आखिरी संदेश भेजा वो था- दुश्मन हमसे बस 50 कदम दूरी पर है. उनकी संख्या हमसे बहुत ज्यादा है. हम पर बुरी तरह हमले हो रहे हैं, लेकिन में एक इंच भी पीछे नहीं हटूंगा. हम आखिरी सिपाही और आखिरी गोली तक लड़ते रहेंगे.

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 जब तक अन्य बटालियन वहां पहुंचती, उससे पहले वो और उनकी रेजिमेंट शहीद हो चुकी थी. लेकिन उन्होंने 200 कबालियों को मौत के घाट उतार दिया और कश्मीर घाटी में कबाइलियों को अधिकार होने से बचा लिया.


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