Marvel और मांगा के युग में कहां खो गए इंडियन सुपरहीरो 'नागराज' और 'चाचा चौधरी', लौटेंगे?

हम उस दौर के बच्चे हैं जो स्कूल में किताबों के बीच कॉमिक्स की तस्करी किया करते थे. कैसे सबसे छुप-छुपाकर इन किताबों के लिए वक्त निकाला करते थे. आइए यहां जानते हैं कि आज नारुतो, वन-पंच मैन, कैप्टन अमेरिका, आयरन मैन और हल्क के युग में हमारे भारतीय सुपरहीरो दोस्त क्या कर रहे हैं?

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क्या कारण है कि भारतीय बहुसंख्यक जगत के एक समय के लोकप्रिय सुपरहीरो अब नजर नहीं आते क्या कारण है कि भारतीय बहुसंख्यक जगत के एक समय के लोकप्रिय सुपरहीरो अब नजर नहीं आते

युद्धजीत शंकर दास

  • नई दिल्ली,
  • 07 अगस्त 2023,
  • अपडेटेड 1:12 PM IST

वो जमाना ही अलग था जब नागराज या चाचा चौधरी का नया अंक आता था. कॉमिक्स के ये कैरेक्टर किताबों के प्र‍िंट से जैसे अपने पाठकों से बातें करते थे. धीरे-धीरे ये दुनिया बदलने लगी, 90 के दशक के भारतीय बच्चों के लिए कॉमिक्स एक अनुभव भर रह गया, जो अब केवल पुरानी यादों में बचा है. 

इसी दौर में पैदा हुए वर्तमान में कानपुर के 34 वर्षीय इंजीनियर अनिमेष पांडे कहते हैं कि आज भी जब मैं खुद को अपने आस-पास की चीजों से अलग करना चाहता हूं, मैं अपने पास कुछ स्नैक्स रखता हूं और बांकेलाल कॉमिक्स पढ़ता हूं, ठीक वैसे ही जैसे मैं बचपन में पढ़ा करता था. अनिमेष कहते हैं कि यह कल्पना की एक जादुई दुनिया है जहां कोई तर्क नहीं है, यहां सब बहुत मासूम है. 

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90 के दशक के किसी भी बच्चे से पूछिए, वो अपने दोस्तों में नागराज, सुपर कमांडो ध्रुव, चाचा चौधरी और साबू, सुप्पंडी और शिकारी शंभू के नाम गिनाएगा. हम उस दौर के बच्चे हैं जो स्कूल में किताबों के बीच कॉमिक्स की तस्करी किया करते थे. कैसे सबसे छुप-छुपाकर इन किताबों के लिए वक्त निकाला करते थे. आइए यहां जानते हैं कि आज नारुतो, वन-पंच मैन, कैप्टन अमेरिका, आयरन मैन और हल्क के युग में हमारे भारतीय सुपरहीरो दोस्त क्या कर रहे हैं?

क्या कारण है कि भारतीय बहुसंख्यक जगत के एक समय के लोकप्रिय सुपरहीरो, जो हर बुक स्टॉल, बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन पर हमेशा मौजूद रहते थे, आज नज़रों से ओझल हो गए हैं? भारतीय कॉमिक ने अचानक अपना कथानक कैसे खो दिया? क्या इसमें फिर से जान फूंकने का कोई तरीका है?

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न कोई मांग, न आपूर्त‍ि?
बदलते वक्त के साथ पब्ल‍िशर्स ने भी खुद को बदलने की कोश‍िशें की हैं. मसलन टिंकल ने अपनी पत्रिकाओं और कॉमिक्स को बढ़ावा देने के लिए डिजिटल माध्यम का उपयोग किया है. वहीं, डायमंड टून्स (जिसे पहले डायमंड कॉमिक्स के नाम से जाना जाता था) ने भी इसी तरह की रणनीति अपनाई है. फिर भी बिक्री में गिरावट आई है और ज्यादातर राज कॉमिक्स, तुलसी कॉमिक्स और मनोज कॉमिक्स के सुपरहीरो अब शायद ही कहीं देखे जाते हैं. इनकी मांग और आपूर्त‍ि दोनों ही अब नहीं हैं. 

दिल्ली के 20 वर्षीय 'मांगा' प्रशंसक गेविन शर्मा कहते हैं कि सबसे बड़ी समस्या भारतीय कॉमिक पुस्तकों की उपलब्धता है. लेकिन यह मूल्य निर्धारण और दीवानगी के बारे में भी है. कनाडा से कंप्यूटर साइंस में स्नातक की पढ़ाई कर रहे गेविन ने चाचा चौधरी का हाथ पकड़कर कॉमिक्स की दुनिया में अपना सफर शुरू किया. 

डायमंड टून के चाचा चौधरी को कार्टूनिस्ट प्राण ने 1971 में बनाया था.

'चाचा चौधरी' किसके दिमाग की उपज थे? 
डायमंड टून के चाचा चौधरी को कार्टूनिस्ट प्राण ने 1971 में बनाया था. वहीं मांगा एक शब्द है जिसका उपयोग कॉमिक पुस्तकों और ग्राफिक उपन्यासों के लिए किया जाता है जो मूल रूप से जापान में निर्मित और प्रकाशित होते हैं. मांगा पुस्तकों पर आधारित एनिमेटेड जापानी फिल्में और टीवी शो एनीमे कहलाते हैं. मांगा और एनीमे दोनों अब भारत में लोकप्रिय हैं. वन पीस, नारुतो, वन-पंच मैन, जुजुत्सु कैसेन, माई हीरो एकेडेमिया और हंटर एक्स हंटर ने भारत में तूफान ला दिया है. 

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गेविन कहते हैं कि ये सामग्री आसानी से ऑनलाइन उपलब्ध है और अधिकांश पाठक मांगा पढ़ने के लिए मोबाइल और टैबलेट का उपयोग करते हैं. यह भारतीय सुपरहीरो कॉमिक्स के लिए सच नहीं है. उन्होंने आगे कहा कि यहां बहुत सारी विविधताएं हैं कोई भी इनमें से कुछ भी चुन सकता है. मांगा की 18 शैलियां हैं. 

गेविन का कहना है कि वह चाचा चौधरी, नागराज और सुपर कमांडो ध्रुव को पढ़ते हुए बड़े हुए हैं और उन्हें दोबारा पढ़ना पसंद करेंगे, बस वे उपलब्ध नहीं हैं. चाचा चौधरी 'जिनका दिमाग कंप्यूटर से भी तेज काम करता है' और उनके सहयोगी साबू, बृहस्पति ग्रह से आए अत्यंत शक्तिशाली व्यक्ति, डायमंड टून्स (पहले डायमंड कॉमिक्स के नाम से जाने जाते थे) के अमर पात्र हैं. 

आज भी हैं साबू को चाहने वाले 
डायमंड टून्स के सीईओ एनके वर्मा ने IndiaToday.In को बताया कि पढ़ने की बदलती आदतों, तकनीकी प्रगति और पॉप संस्कृति में बदलाव ने निश्चित रूप से आज कॉमिक उद्योग को प्रभावित किया है, लेकिन कॉमिक्स अभी भी बनाई जा रही है और युवाओं द्वारा इसका आनंद लिया जा रहा है. चाचा चौधरी और साबू आज भी सभी उम्र के लोगों के बीच एक क्रेज हैं और उनके बहुत बड़े प्रशंसक हैं. राज कॉमिक्स के संस्थापक और मालिक, संजय गुप्ता के अनुसार, 1990 से 1999 तक का काल खंड भारतीय कॉमिक बुक उद्योग के लिए तेजी का समय था.

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राज कॉमिक्स के नागराज और डोगा याद हैं? 
नागराज, राज कॉमिक्स मल्टीवर्स का पहला सुपरहीरो, जो सांपों से हमला करता है, यह 1986 में बनाया गया था. वह अपना रूप भी बदल सकता है. राज कॉमिक्स ने भारत को नागराज, सुपर कमांडो ध्रुव, भोकाल, डोगा, परमाणु और अश्वराज जैसे कुछ सबसे सफल कॉमिक नायक दिए. 

फिल्म निर्माता अनुराग कश्यप ने डोगा पर एक फिल्म बनाना चाहते थे. अनुराग कश्यप ने इंडियाटुडे को बताया, "हमने पांच-छह साल तक कोशिश की. डोगा और राज कॉमिक्स के कॉपीराइट के मालिकों ने अपना मुद्दा नहीं सुलझाया. इसलिए ऐसा कभी नहीं हुआ और जब तक वे अपने मुद्दे हल नहीं कर लेते, तब तक ऐसा नहीं होगा." उनका कहना है कि वह अकेले फिल्म निर्माता नहीं हैं जिन्होंने राज कॉमिक्स के सुपरहीरो को बड़े पर्दे पर लाने कोशिश की. उन्होंने कहा, "क्योंकि मेरे बाद, कई बाकी लोग थे जिन्होंने इसे करने की कोशिश कि लेकिन मुझे नहीं लगता कि उन्हें (राज कॉमिक्स के मालिकों को) कोई अंदाज़ा है कि फ़िल्में कैसे बनाई जाती हैं."

अनुराग कश्यप कहते हैं, "सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमारे शुरू करने से पहले ही, उनके (राज कॉमिक्स मालिकों) दिमाग में यह बात बैठ गई थी कि हम इसे मार्वल की तरह बनाएंगे. और वे बिना किसी कड़ी मेहनत के उसे (परिणाम) चाहते हैं. इसलिए हर कोई ऐसा करने लगा. यह उस तरह से काम नहीं करता है. मुझे नहीं लगता कि इसके प्रति उनके रवैये से ऐसा होगा, उन्हें शायद यह खुद ही करना होगा."

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फिल्म निर्माता अनुराग कश्यप ने डोगा पर फिल्म बनाने की योजना बनाई थी.

वहीं संजय गुप्ता बताते हैं कि राज कॉमिक्स के सुपरहीरो की लोकप्रियता पाठकों के बीच कभी कम नहीं हुई. मुद्दा यह था कि नई पीढ़ियों को मनोरंजन के रूप में पढ़ने से परिचित नहीं कराया गया था.

जब छपती थीं दो लाख प्रत‍ियां.... 
एक वो दौर था जब कॉमिक्स का क्रेज अपने चरम पर था. तब राज कॉमिक्स एक ही शीर्षक की दो लाख प्रतियां छापता था. फिर 90 के दशक के बाद बिक्री में गिरावट आई और दो प्रमुख प्रकाशक तुलसी कॉमिक्स और मनोज कॉमिक्स को अपना कॉमिक्स प्रकाशन बंद करना पड़ा. वहीं जम्बू, अंगारा और तौसी अविस्मरणीय तुलसी कॉमिक्स सुपरहीरो थे. 

भारत भूषण उन लोगों में से एक हैं जिन्होंने भारतीय कॉमिक्स की लोकप्रियता और बाजार से गायब होने दोनों को देखा है. 41 वर्षीय भारत भूषण दक्षिण दिल्ली में एक न्यूज एजेंसी चलाते हैं. भारत भूषण कहते हैं कि भले ही कम संख्या में, लेकिन भारतीय कॉमिक पुस्तकें 2015-2016 तक भी दिखाई देती थीं. फिर जब कोविड लॉकडाउन ने अपनी मौत की घंटी बजाई तो बिक्री पहले ही कम हो गई थी, अब बिल्कुल ही ये किताबें नदारद हो गई हैं. उनका कहना है कि महामारी के बाद किताबों की दुकानों और सड़क किनारे की दुकानों के बंद होने से उद्योग को बहुत नुकसान हुआ है. लोग इन स्टालों से कॉमिक किताबें खरीदते थे, अब जब दिखती ही नहीं हैं.

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भूषण, जो स्वयं सुपर कमांडो ध्रुव के प्रशंसक थे, कहते हैं कि अब कॉमिक्स की मांग बहुत कम है. उनका कहना है कि लॉकडाउन ने सिर्फ कॉमिक बिक्री ही नहीं, बल्कि पूरी पत्रिका और पुस्तक उद्योग को नुकसान पहुंचाया है.

क्या कीमत हैं वजह? 
राज कॉमिक्स के संजय गुप्ता का दृष्टिकोण एकदम अलग है. उनका कहना है कि लॉकडाउन के दौरान कॉमिक्स के पीडीएफ प्रसारित किए जा रहे थे, जिससे लोग अपने सुपरहीरो के साथ फिर से जुड़ गए. उनका कहना है कि इसने पाठकों की रुचि को पुनर्जीवित कर दिया है. 

वो कहते हैं कि महामारी और लॉकडाउन की अवधि ने भारतीयों के मन में उदासीनता की भावना पैदा कर दी है और उस अवधि में, अधिकांश आबादी अपनी पढ़ने की आदतों से भी जुड़ गई है. अब जैसे पुराने टीवी धारावाहिकों के कैरेक्टर जैसे दूरदर्शन के शक्तिमान और महाभारत के कैरेक्टर को कॉमिक बुक सीरीज़ में भी बदल दिया गया था. लेकिन लॉकडाउन के बाद की अवधि में कुछ असामान्य देखने को मिला - कॉमिक्स की कीमतें कई गुना बढ़ गईं. 

1990 और यहां तक कि 2000 के दशक में, भारतीय कॉमिक पुस्तकों को मार्वल और डीसी कॉमिक्स की तुलना में ज्यादा लाभ मिलता था. भूषण कहते हैं कि 'लॉकडाउन से पहले कॉमिक किताबों की कीमत 50 रुपये से 60 रुपये के बीच होती थी, अब ज्यादातर कॉमिक्स की कीमत 100 रुपये से ऊपर है. उन्होंने आगे कहा कि कुछ मोटे संस्करणों, जिन्हें रीडर्स डाइजेस्ट कहा जाता है, इनकी कीमत 500 रुपये है. माता-पिता जाहिर तौर पर उस कीमत पर भारतीय कॉमिक के बजाय टिनटिन खरीदेंगे. 

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90 के दशक के बच्चों को 10 रुपये से कम में एक कॉमिक बुक और 15 या 20 रुपये में एक डाइजेस्ट खरीदना याद होगा. तब कुछ शहरों में ऐसे लोग और स्टोर थे जो एक रुपये प्रतिदिन के हिसाब से एक कॉमिक बुक किराए पर देते थे.  वह पारिस्थितिकी तंत्र अब पूरी तरह से लुप्त हो चुका है. हालांकि, युवाओं का कहना है कि वे आसानी से उपलब्ध और आकर्षक सामग्री के लिए भुगतान करने में संकोच नहीं करेंगे. 

गेविन कहते हैं कि अगर मैं चाचा चौधरी और नागराज पर फिदा हो जाता, तो मैं उन्हें ऑनलाइन पढ़ने के लिए पैसे भी देता. आज भी मैं विज्ञापनों के बिना मांगा पढ़ने के लिए और कॉमिक्स मुफ्त ऑनलाइन उपलब्ध होने के बावजूद कलाकारों का समर्थन करने के लिए प्रति माह 5 कनाडाई डॉलर का भुगतान करता हूं. 

पितृ सत्तात्मक है सुपर हीरो का स्वर? 
पश्चिम बंगाल के बर्दवान की रहने वाली तीस वर्षीय ज़िनिया बंद्योपाध्याय कीमत ही एक वजह हैं, कारण पर सहमत हैं लेकिन सांस्कृतिक अलगाव की ओर भी इशारा करती हैं. वह कहती हैं कि चाचा चौधरी जैसी कोई चीज अब युवा आबादी को नहीं खींच सकती. जिस तरह से भारतीय कॉमिक पुस्तकों में मुद्दों को संबोधित किया जाता है, उसमें पितृसत्तात्मक स्वर है और एक पीढ़ीगत अलगाव है. उत्साही एनीमे प्रशंसक, जो नारुतो, माई हीरो एकेडेमिया, केंगान को गिनता है, उसका कहना है कि आज आशूरा और मॉब साइको 100 उनके पसंदीदा में से हैं. नारुतो के प्रशंसक ज़िनिया बंद्योपाध्याय का कहना है कि भारतीय कॉमिक बुक सुपरहीरो में मानवीय कमज़ोरियां गायब हैं. ज़िनिया का कहना है कि अक्सर भारतीय सुपरहीरोज़ में मानवीय तत्व गायब होता है. 

नारुतो प्रशंसक ज़िनिया बंद्योपाध्याय का कहना है कि भारतीय कॉमिक बुक सुपरहीरो में अक्सर मानवीय कमज़ोरियां दिखाई नहीं जाती हैं.

कहां खो गई मासूमियत
गेविन का कहना है कि वह भारतीय सुपरहीरो कॉमिक्स की सामग्री को नौसिखिया नहीं मानते हैं. बांकेलाल के प्रशंसक इंजीनियर अनिमेष के लिए, भारतीय कॉमिक्स की मासूमियत वो तत्व है जो उनके भीतर संजोकर रखी गई है. उनका कहना है कि वो कुछ समय के लिए व्यावहारिक दुनिया से बाहर निकलने और अपने बचपन में लौटने के लिए भारतीय कॉमिक पुस्तकों का उपयोग करते हैं. 

अनिमेष हंसते हुए कहते हैं कि इन कॉमिक्स का आनंद लेने के लिए आपको बच्चा बनना होगा. अगर मुझे कंटेंट में गइराई खोजनी होगी तो मैं इंटरस्टेलर या ओपेनहाइमर जैसी क्रिस्टोफर नोलन की फिल्म देखना पसंद करूंगा. डिस्कनेक्ट पर विस्तार करते हुए अनिमेष कहते हैं कि मिलेनियल्स और जेन जी कार्टून नेटवर्क देखकर बड़े हुए हैं. उनकी कहानियां हमारी संस्कृति की दादा-दादी की कहानियों से अलग हैं, जिन पर पिछली पीढ़ियां बड़ी हुईं.  

भारतीय सुपरहीरो वास्तव में उन कहानियों में निहित थे. उदाहरण के लिए, नागराज 'इच्छाधारी नाग' (स्वयं रूपांतरित मानव-सांप) की अवधारणा पर आधारित है, एक ऐसी अवधारणा जो युवाओं को विदेशी और हास्यास्पद दोनों लगेगी. अनिमेष कहते हैं कि आज युवा पढ़ नहीं रहे हैं, लेकिन मार्वल फिल्में और एनीमे देख रहे हैं. यह एक अलग पंथ की तरह है और इसमें प्रतिस्पर्धा है. लेकिन हमारी पीढ़ी ने प्रतिस्पर्धा करने के लिए नहीं पढ़ा है.

अब ट्रेंडी कंटेंट का जमाना है 
ज़िनिया स्वीकार करती हैं कि आज युवा अपने साथियों के बीच प्रासंगिक बने रहने के लिए एक विशेष प्रकार की सामग्री का उपभोग करते हैं जो ट्रेंडी है. लेकिन संजय गुप्ता, जो राज कॉमिक्स के लेखकों में से एक हैं, मांगा या मार्वल को प्रतिस्पर्धा के रूप में नहीं देखते हैं. वो कहते हैं कि मांगा सिर्फ भारतीय कॉमिक उद्योग का पूरक है. 

डायमंड टून्स के एनके वर्मा का कहना है कि भारतीय कॉमिक उद्योग के कुछ पहलुओं में मांगा का प्रभाव देखा जा सकता है. भारतीय कलाकार मांगा के गतिशील लेआउट और अभिव्यंजक चरित्र डिजाइनों से प्रेरणा ले सकते हैं, लेकिन हमें ऐसी सामग्री बनाने की जरूरत है जो हमारे पाठकों को पसंद आए. उन्होंने आगे कहा कि हमें अपनी किस्सागोई की परंपरा को जिंदा रखना होगा. 

अपने सुपरहीरो मास्क पहनें
30 वर्षीय मनोरंजन पत्रकार ज़िनिया, जो अब दिल्ली में रहती हैं, यह भी बताती हैं कि कैसे मांगा भारतीय कॉमिक्स पर बड़ा स्कोर कर रहा है. वो कहती हैं कि कंटेंट की लोकप्रियता लोगों को एनीमे शो देखने के लिए प्रेरित करती है. जब वे एनीमे देखते हैं, तो कई लोग किताबें पढ़ने जाते हैं. इसलिए, रूपांतरण कई स्तरों पर हो रहा है. 

लोग मार्वल सिनेमैटिक यूनिवर्स (एमसीयू) फिल्में देखते हैं और फिर पात्रों से जुड़ जाते हैं और यूट्यूब शॉर्ट्स में रुचि लेने लगते हैं. भारत में, कॉमिक बुक सुपरहीरो का गुणवत्तापूर्ण ऑन-स्क्रीन रूपांतरण शायद ही कभी होता है. इसके उलट यह भी सत्य है कि बहुत से हिट कार्टूनों में सफल कॉमिक रन नहीं हैं. लेकिन राज कॉमिक्स और डायमंड टून्स दोनों ही कंटेंट के महत्व को समझते हैं और इस पर ध्यान केंद्रित किया है. 

राज कॉमिक्स के संजय गुप्ता कहते हैं कि भारत में व्यापारिक कारोबार अभी भी विकसित हो रहा है. हमारी व्यापारिक रेंज परिधान, संग्रहणीय वस्तुओं, खिलौनों और कई उपयोगी उत्पादों से अलग है. 

डायमंड टून्स ने एक्शन फिगर, कपड़े, सहायक उपकरण और स्टेशनरी सहित सुपरहीरो-थीम वाले माल में भी बढ़ती रुचि देखी है.

(Image: Marvel Database)

नागराज और चाचा चौधरी कहां हैं? 
क्या हमारे कॉमिक बुक हीरो समय के साथ चल रहे हैं? डायमंड टून्स के वर्मा कहते हैं कि निस्संदेह, चाचा चौधरी और साबू समय के साथ विकसित हो रहे हैं. कहानियां समसामयिक विषयों, प्रौद्योगिकियों और चुनौतियों को संबोधित करने के लिए विकसित हो सकती हैं, लेकिन ये प्रतिष्ठित पात्र प्रासंगिक बने हुए हैं और अभी भी नए पाठकों को आकर्षित कर रहे हैं. 

उनका दावा है कि चाचा चौधरी और साबू ने पाठकों की नई पीढ़ी का ध्यान खींचा है. चाचा चौधरी और साबू की व्यापक ऑनलाइन उपस्थिति है, उनकी कहानियां डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर उपलब्ध कराई जाती हैं और यहां तक कि सोशल मीडिया के माध्यम से प्रशंसकों से जुड़ी रहती हैं. 

राज कॉमिक्स के गुप्ता कहते हैं कि भारतीय सुपरहीरो और खलनायक निस्संदेह समय के साथ विकसित हुए हैं. राज कॉमिक्स के कॉमिक्स में एक प्रलय का दिन भी है जहां परमाणु और ध्रुव खुद को पृथ्वी पर जीवित बचे दो अंतिम लोगों के रूप में पाते हैं. हमारे लेखक रुझानों को ध्यान में रखते हुए नियमित रूप से नई और अधिक आकर्षक कहानियां देते रहे हैं. साथ ही, समय के साथ, प्रस्तुति का हमारा तरीका काफी विकसित हुआ है क्योंकि हमारे पास युवा उम्र के साथ-साथ अनुभवी चित्रकारों की एक टीम है जिन्होंने अधिक परिपक्व सामग्री तैयार की है.  

राज कॉमिक्स में विभाजन देखा गया और संजय गुप्ता के नेतृत्व में समूह प्रति वर्ष 2,500 शीर्षक प्रकाशित कर रहा है, जिनमें से 30 पूरी तरह से नए शीर्षक हैं. डायमंड टून्स एक वर्ष में कम से कम 100 कॉमिक शीर्षक और विशेष संस्करण प्रकाशित करता है, जिनमें से 30 से 40 शीर्षक अकेले चाचा चौधरी के होते हैं. गुप्ता के अनुसार, एक नई कॉमिक बुक बनाने में छह महीने से डेढ़ साल तक का समय लगता है. लेकिन कुल बिक्री 90 के दशक की तुलना में बहुत कम है. 

क्या भारतीय कॉमिक्स का पुनरुद्धार होगा?

युवा पाठकों से जुड़ने के लिए सभी प्रकाशन गृह डिजिटल और सोशल मीडिया का सहारा लेने की कोशिश कर रहे हैं. डायमंड टून्स का कहना है कि वह अपनी पहुंच बढ़ाने और युवा दर्शकों को जोड़ने के लिए हमेशा नए जमाने के मीडिया की खोज करता रहता है. चाचा चौधरी कॉमिक को एक टीवी सीरियल के लिए रूपांतरित किया गया है और 600 एपिसोड तक चलाया गया है. यह विभिन्न प्लेटफार्मों पर कॉमिक्स के डिजिटल संस्करण पेश करता है, जिससे युवा पाठकों के लिए स्मार्टफोन, टैबलेट और कंप्यूटर तक कहानियों की पहुंच और उनका आनंद लेना आसान हो जाता है. 

डिजिटल चोरी भी बड़ा मुद्दा 
डिजिटल संस्करणों के साथ चोरी का खतरा भी जुड़ा हुआ है. पायरेसी ने प्रकाशन संस्थानों के मुनाफे को बहुत नुकसान पहुंचाया है. आज तक रेडियो के साथ एक साक्षात्कार में, राज कॉमिक्स के गुप्ता ने भारत में कॉमिक पुस्तकों की अधिक कीमत के लिए पायरेसी को जिम्मेदार ठहराया. एक तरह से, खरीदार अपने सेलफोन पर कॉमिक पुस्तकों की पायरेटेड पीडीएफ पढ़ाने वालों को भुगतान कर रहे हैं. 

अब बहुत देर हो चुकी है
जमीनी हकीकत में भले ही बहुत भव‍िष्य के लिए बहुत आशावादी चीजें नहीं दिखतीं. फिर भी गुप्ता कॉमिक्स के भविष्य को लेकर उत्साहित हैं. वो अपनी कॉमिक पुस्तकों को क्षेत्रीय भाषाओं में प्रकाशित करके बड़े दर्शकों तक ले जाने की योजना बना रहे हैं. भारत भूषण, जो दक्षिणी दिल्ली की दुकानों में पत्रिकाएं और कॉमिक्स की आपूर्ति करते हैं, उनका कहना है कि अगर आप किसी ऐसे दोस्त से मिलते हैं जिसके साथ आप 15-20 साल से संपर्क में नहीं हैं, तो आपके लिए जुड़ना बहुत मुश्किल हो जाएगा. भारतीय कॉमिक बुक सुपरहीरो के साथ भी ऐसा ही है. अब बहुत देर हो चुकी है. 

कॉमिक्स से ऑनलाइन गेमिंग की ओर स्विच करने का संकेत देते हुए भूषण कहते हैं कि जिस किसी ने भी PUBG में 'चिकन डिनर' किया है, वह इन दिनों खुद को एक सुपरहीरो की तरह ही महसूस करता है. 

लेखक और प्रकाशक गुप्ता हार मानने वालों में से नहीं हैं. वो कहते हैं कि हमने पिछले साल नई दिल्ली, बेंगलुरु और मुंबई में तीनों कॉमिक कॉन्स में भाग लिया और यह बेहद प्रेरक साबित हुआ क्योंकि हमने प्रशंसकों की एक बड़ी भीड़ देखी, खासकर युवाओं की जो भारतीय सामग्री से जुड़ने में सक्षम हैं. राज कॉमिक्स के संस्थापक और लेखक संजय गुप्ता का कहना है कि कॉमिक कॉन्स ने खुलासा किया है कि युवा भारतीय सामग्री से जुड़ने में सक्षम हैं. 

गेविन, जिन्होंने भारतीय कॉमिक पुस्तकें और मांगा दोनों पढ़ी हैं, कहते हैं कि भारतीय कॉमिक्स को पुनर्जीवित करना "कोई दूर की कौड़ी नहीं है". उनका कहना है कि मूल और प्रासंगिक सामग्री पर ध्यान केंद्रित करने, किताबों के बारे में चर्चा पैदा करने और उन्हें मुफ्त में उपलब्ध कराने से निश्चित रूप से मदद मिलेगी. 

गुप्ता ने कई कदम उठाए हैं और 90 के दशक के बच्चों की क्रय शक्ति और पुनरुद्धार के लिए पुरानी यादों के मूल्य पर उम्मीदें जताई हैं. 34 वर्षीय इंजीनियर अनिमेष पांडे, जो बांकेलाल को उनकी बुद्धि और हास्य के लिए पसंद करते हैं. उन्होंने राज कॉमिक्स पुस्तकों के दो सेट खरीदे. एक गुड़गांव में उनके आवास के लिए जहां वह वर्तमान में रहते हैं और दूसरा कानपुर में उनके पारिवारिक घर के लिए खरीदा. वो कहते हैं कि मैं जब भी कॉमिक किताबें चाहता हूं, उन्हें अपने पास रखना चाहता हूं.

 

 

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