2011-12 वो समय था, स्कूल से कॉलेज की तरफ शिफ्ट हो रहे थे और यही वो दौर था जब दोस्तों के पास अपना-अपना पर्सनल फोन आना शुरू हुआ था. तब फोन में मेमोरी कार्ड भरने होते थे, स्पॉटिफाई या यूट्यूब प्रीमियम नहीं था और सबसे बड़ा क्रेज़ हनी सिंह के आने वाले नए गानों का था. क्योंकि उस वक्त हनी सिंह की इंटरनेशनल विलेजर्स एल्बम रिलीज़ हुई थी और ब्लूटूथ एरा का वही सबसे बड़ा खजाना था. लेकिन उसके बाद जब रियल वर्ल्ड में एंट्री हुई और बचपना पीछे छूटा, तो पहला राब्ता नुसरत फतेह अली ख़ान से हुआ. नुसरत की कव्वालियों को घोंटकर पी जाने वाला भूत सवार हुआ. कुछ एक वक्त में ऐसा हो गया था कि मुझे लगा अब मैं कव्वाली का एक्सपर्ट हूं और कुछ विद्वानों में अगर कव्वाली की बात मैं भी कर दूं तो शायद लोग मेरी वाह-वाह करें. दफ्तर के वरिष्ठों को जब मालूम चला कि ये बच्चा कव्वाली सुनता है, तो उन्होंने मेरी टेस्टिंग के लिए मेरी तरफ एक कव्वाल और कव्वाली का नाम उछाला, और वहां से मेरे लिए कव्वाली का पूरा खेल ही बदल गया. कव्वाल थे अज़ीज़ मियां और कव्वाली थी 'दबा के चल दिए'.
हम उस पीढ़ी के हैं जो संगीत को 'फ़ास्ट फ़ॉरवर्ड' करके सुनती है. हमारे लिए 'क्लासिक' वो है जिसे हम स्किप नहीं करते. तो जब बात कव्वाली की आई, तो हमारे कान बंद थे क्योंकि यह धीमे, रूहानी माहौल की चीज़ थी, हमारे हेडफ़ोन की तूफ़ानी दुनिया के लिए नहीं.
और फिर आए अज़ीज़ मियां. उनकी कव्वाली पहली बार सुनने पर सुकून नहीं, एक ज़ोरदार धक्का देती है. यह नमाज़ नहीं, बल्कि किसी क्रांतिकारी का भाषण लगती है. नुसरत या साबरी बंधुओं की आवाज़ में जो मीठा दर्द और समर्पण है, अज़ीज़ मियां ने उसे एक ज़ुझारू, तार्किक 'बहस' में बदल दिया. अज़ीज़ को सुनकर पहली बार तो ये लगा कि ये बंदा कव्वाली गा क्यों नहीं रहा है, क्योंकि उनका जो अंदाज़ था वो बस शेरों को अपने हिसाब से पढ़ देने भर का था. उन्होंने कव्वाली की पहचान बदल दी—उसे इबादत के दायरे से निकालकर सीधे सड़कों पर ला खड़ा किया. यह अब्दुल अज़ीज़ का वो फ़ॉर्मूला था जिसने 1942 से 2000 के बीच इस विधा को 'इलीट' से 'एंग्री यंग मैन' का संगीत बना दिया.
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अज़ीज़ मियां का अंदाज़ बाक़ी कव्वालों से बिल्कुल अलग था. वो गाते नहीं थे, बल्कि अपनी बात आप पर थोपते थे. ज्ञान का बोझ आपकी रूह पर डाल देते थे. उनकी आवाज़ में एक भयंकर तीव्रता थी, एक 'झन्नाट'. साथ में उनका लुक कुछ इस तरीके का था, कि शायद अगर कोई पहली बार उन्हें देखे तो घबरा भी जाए. जहां पारंपरिक कव्वाल इश्क़-ए-हक़ीक़ी यानी ईश्वरीय प्रेम पर कोमल होते थे, वहीं अज़ीज़ मियां ने सीधे 'अना' (अहंकार) और 'ख़ुदी' (आत्म-सम्मान) पर हमला बोला. वह महफ़िल में आते थे और अपनी आवाज़ को एक हथौड़े की तरह इस्तेमाल करते थे. एक ही शब्द को दोहराना, उसे खींचना, तोड़ना और फिर अचानक से दहाड़ देना—यह उनका सिग्नेचर था.
आप ये भी कह सकते हैं कि उन्हें कव्वाली या उस मौसिकी के ज्ञान का घमंड था और उन्होंने इसे कभी छिपाया नहीं. वह कव्वाली के बीच में रुककर, फ़ारसी और अरबी की कठिन शब्दावली का इस्तेमाल करते हुए, श्रोताओं को चुनौती देते थे. उनकी कव्वाली किसी मनोरंजन से ज़्यादा एक लाइव, एकतरफ़ा सेमिनार लगती थी जहां श्रोता चुपचाप बैठकर उनके बौद्धिक 'टॉर्चर' को सुनते थे. कव्वाली का मूल ढांचा सूफीवाद है—दुनिया को त्यागना और ईश्वर में लीन हो जाना. अज़ीज़ मियां ने इस धारणा को ही बदल दिया. उन्होंने सूफ़ी मत को एक अपडेटेड, '2.0 वर्जन' दिया.
उनकी रचनाएं, चाहे वह 'मैं शराबी' हो या 'तेरी जवानी', केवल शराब या सौंदर्य की बात नहीं करतीं; वह ज़िंदगी की सच्चाइयों को नंगा करती हैं. 'शराबी' में वह पूछते हैं कि अगर ज़ाहिद (संन्यासी) और शराबी दोनों अंत में ख़ाक हो जाएंगे, तो फ़र्क क्या रहा? यह रूढ़िवादिता पर सीधा, तीखा सवाल था.
उन्होंने पारंपरिक कव्वाली की गति (टेम्पो) को एक इलेक्ट्रिक शॉक दिया. उन्होंने ताल को इतना तेज़ और वाइब्रेंट कर दिया कि उनका संगीत केवल सुनने के लिए नहीं, बल्कि पूरे शरीर से महसूस करने के लिए बन गया. यह वो 'पॉवरहाउस' परफ़ॉर्मेंस थी जिसने कव्वाली को 'कूल' बना दिया.
जब मैंने उन्हें सुना, तो मैंने जाना कि संगीत केवल धुन या आवाज़ का नाम नहीं है. यह एक आर्ट फ़ॉर्म है जो दर्शन को चीख़कर बताती है. अज़ीज़ मियां ने हमें सिखाया कि संगीत का असली मक़सद आत्मा को शांत करना नहीं, बल्कि उसे झकझोरना है, उसे सवाल पूछने पर मजबूर करना है. वह कव्वाली के 'विद्रोही' थे, और यही वजह है कि आज भी, जब हमें रूहानी सुकून नहीं, बल्कि ज़िंदगी की चुनौती चाहिए होती है, तो हम अपनी प्लेलिस्ट में उन्हीं की 'सनसनी' को सबसे ऊपर रखते हैं. उन्होंने कव्वाली को नया जीवन दिया, और उस जीवन ने हमें संगीत और ज़िंदगी, दोनों के फलसफे को एक तेज़, नए नज़रिए से देखना सिखाया है.
अज़ीज़ मियां के कव्वाली कॉन्सर्ट के वीडियो अगर आप यूट्यूब पर जाकर देखेंगे, तो वो आपको कोई कॉन्सर्ट कम शराबियों का मेला जैसा ज़रूर लग सकता है. अज़ीज़ मियां अविभाजित हिन्दुस्तान में पैदा हुए थे, वो भी तब के दिल्ली में. शुरुआत में उनके नाम के साथ अज़ीज़ मियां मेरठी भी जोड़ा जाता था, लेकिन वो पाकिस्तान गए. साल 2000 के आसपास जब उनका लिवर लगभग जवाब दे चुका था, उन्होंने कव्वाली का एक टूर करना चाहा और उसी टूर के वक्त वो ईरान में थे, जहां 6 दिसंबर 2000 को 58 साल की उम्र में अज़ीज़ मियां का निधन हुआ.
मोहित ग्रोवर