बांकेबिहारी का विग्रह कैसे हुआ था प्रकट... श्रीकृष्ण के इस प्राचीन मंदिर की क्या है मान्यता

मथुरा स्थित बांके बिहारी मंदिर में दर्शन समय बढ़ाने और देहरी पूजन की परंपरा को लेकर विवाद जारी है. मंदिर में बढ़ती भीड़ और कुप्रबंधन के कारण 600 साल पुरानी भक्ति परंपरा प्रभावित हो रही है.

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बांके बिहारी की छवि बहुत ही मनोहर है बांके बिहारी की छवि बहुत ही मनोहर है

विकास पोरवाल

  • नई दिल्ली,
  • 17 दिसंबर 2025,
  • अपडेटेड 10:21 AM IST

मथुरा स्थित बांके बिहारी मंदिर की अव्यवस्था चर्चा में है. पहले मंदिर में दर्शन का समय बढ़ाने को लेकर रार बढ़ी, दूसरा विवाद देहरी पूजन की परंपरा को लेकर उठा. इन विवादों में कोर्ट में बहस जारी है. मंदिर में लगातार बढ़ने वाली अप्रत्याशित भीड़ और कुप्रबंधन को लेकर तो पहले से बहसें जारी हैं और इसी बीच सामने आया है कि मंगलवार को मंदिर में ठाकुर जी को समय से बाल भोग अर्पित करने की परंपरा भी टूट गई. हालांकि इसके अलग-अलग कारण सामने आए हैं. जिसमें सैलरी समय पर न मिलने से लेकर रसोइये के घर में किसी के बीमार होने तक की बातें कही जा रही हैं. 

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देश के हर कोने में श्रीकृष्ण के कई मंदिर
वजह जो भी रही हो लेकिन मुख्य बात तो यह है मथुरा के इस पवित्र और प्रसिद्ध तीर्थ बांके बिहारी मंदिर में अनियमितताएं तो हो रही हैं. इन अनियमितताओं के कारण ज्ञात लगभग 600 सालों से चली आ रही भक्ति और भावना की एक परंपरा तो टूट ही रही है. असल में बांके बिहारी श्रीकृष्ण का ही एक स्वरूप है. श्रीकृष्ण की भक्ति का तरीका और उनके नामों की परंपरा इतना विस्तार लिए हुए है कि देश के ही एक कोने से दूसरे कोने तक वह कहीं गोपाल जी, कान्हा जी, लड्डू गोपाल, राधा रमण, नंदलाला, कन्हैया, सांवरिया और श्याम नाम से पूजे जाते हैं. सबका स्वरूप अलग-अलग होते हुए भी एक जैसा है और सबकी विशेषता एक होते हुए भी अलग-अलग महत्व लिए हुए है.

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साल 1864 में हुआ था मंदिर का निर्माण
बांके बिहारी को लेकर सबसे ज्ञात तथ्य साल 1864 में सामने आता है, जब वृंदावन धाम के बिहारीपुरा में स्वामी हरिदास ने इसका निर्माण करवाया था. स्वामी हरिदास ही श्रीकृष्ण के सांवले-सलोने और बांकी छवि वाले मनोहर स्वरूप की मानस पूजा किया करते थे. दीक्षा लेने के बाद उन्होंने अपने मन के भीतर कान्हा की वैसी ही छवि का ध्यान किया जिसमें वह श्रीजी राधारानी के साथ एक ही विग्रह में समाहित हुए नजर आते थे. उनकी वह छवि इतनी मनोहर और इतनी प्यारी थी और कान्हा अपने बांकपन में इतने सलोने थे कि स्वामी हरिदासजी ने सहज भाव से ही उन्हें बांके बिहारी कहकर उनका स्मरण करना शुरू कर दिया था. 

बाबा हरिदास सखी ललिता का माने जाते हैं अवतार
बाबा हरिदास का जन्म  संवत 1536 में भाद्रपद महिने के शुक्ल पक्ष में अष्टमी के दिन का ही माना जाता है. यह तिथि राधा अष्टमी की है, यानी इसी दिन राधा जी का जन्म हुआ था. माना जाता है कि बाबा हरिदास द्वापर युग में राधारानी की प्यारी सखी ललिताजी ही थे और वह इस जन्म में एक बार फिर अपने युगल प्रिय (कान्हा और राधा) के न सिर्फ दर्शन करने बल्कि उनकी पूर्ण भक्ति का आनंद लेने आए थे.

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वृन्दावन के निकट राजपुर नामक गांव में जन्मे बाबा के पिता का नाम गंगाधर और माता का नाम चित्रा देवी लिखा मिलता है. स्वामी आशुधीर देव जी महाराज इनके गुरु थे. इन्हें देखते ही आशुधीर देवजी जान गये थे कि ये सखी ललिताजी के अवतार हैं तथा राधाष्टमी के दिन भक्ति प्रदायनी श्री राधा जी के मंगल–महोत्सव का दर्शन लाभ हेतु ही यहां पधारे हैं. हरिदासजी को रसनिधि सखी का अवतार माना गया है. ये बचपन से ही संसार से ऊबे रहते थे.

सपने में मिला था विग्रह प्रकट होने का आदेश
किशोरावस्था में इन्होंने आशुधीर जी से युगल मन्त्र दीक्षा ली तथा यमुना तट पर निकुंज में एकान्त रहकर ध्यान-मग्न रहने लगे. जब ये 25 वर्ष के हुए तब इन्होंने अपने गुरु जी से विरक्त वेष लिया और अपने निकुंज बिहारी की लीला का गान करने लगे. एक दिन ऐसा ही चिंतन करते हुए, वह जब नींद में भी बिहारी जी का ध्यान कर रहे थे, तब उन्हें सपने में ही आदेश हुआ कि निकुंज वन से बिहारीजी की मूर्ति निकालें. फिर बाबा हरिदास ने मनोहर श्यामवर्ण छवि वाले श्रीविग्रह को प्राप्त किया. जिसे श्री बांके बिहारी जी के नाम से जाना जाता है. मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी को प्रतिमा की प्राप्ति का प्राकट्य उत्सव विहार पंचमी के रूप में बड़े ही उल्लास के साथ मनाया जाता है. 

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सम्राट अकबर के प्रिय दरबारी गायक और संगीत सम्राट तानसेन स्वामी हरिदास के ही शिष्य थे. उन्होंने ही सात साल के बालक तन्ना मिश्र को तानसेन बनाया था. स्वामी हरिदास बहुत ही मधुर स्वर में कान्हा के भजन गाया करते थे और इसमें रागों आलाप-तान और अलंकार सभी कुछ शामिल होते थे. वह हमेशा ही वृंदावन के निधिवन में रहे और अपनी मधुर साधना और गायन से प्रभु का स्मरण किया करते थे.

जब स्वामी ने कराए राधा-कृष्ण की युगल छवि के दर्शन
जब स्वामी हरिदास जी भक्ति में लीन होकर पद गाते, तो वे खुद को भूल जाते. उनकी भक्ति और संगीत से प्रसन्न होकर भगवान श्रीकृष्ण उनके समक्ष प्रकट हो जाते. हरिदास जी भावविभोर होकर श्रीकृष्ण को स्नेहपूर्वक दुलारते. एक दिन उनके एक शिष्य ने निवेदन किया कि आपको तो अकेले श्रीकृष्ण के दर्शन होते हैं, हमें भी राधा–कृष्ण के संयुक्त दर्शन कराइए.
इस पर स्वामी हरिदास जी ने राधा–कृष्ण की युगल उपासना में पद गाना शुरू किया. तभी उनके समक्ष राधा–कृष्ण युगल स्वरूप में प्रकट हुए और हरिदास जी की तान में स्वयं तान मिलाकर गाने लगे

“री सखी री सही जोड़ी विराजै भाई,
ज्यों जुरंग गौरा श्याम घन दामिनी.”

हरिदास जी भावविभोर हो उठे. राधा–कृष्ण की अद्भुत छवि उनके नेत्रों के सामने थी. तभी भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराधा ने इच्छा प्रकट की कि वे हरिदास जी के समीप ही निवास करना चाहते हैं.स्वामी हरिदास जी ने विनम्रता से कहा, 'प्रभु, मैं तो एक विरक्त साधु हूं. आप तो सादा वस्त्र धारण कर सकते हैं, लेकिन श्रीराधा जी के लिए अलंकार और आभूषण कहां से लाऊं.' अपने भक्त की इस सरल भावना को समझते हुए श्रीकृष्ण और श्रीराधा एकाकार होकर एक ही विग्रह में प्रकट हुए. यही विग्रह ‘बांके बिहारी’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ.

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आज वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में इसी विग्रह के दर्शन होते हैं, जिसमें राधा और कृष्ण दोनों समाहित हैं. ऐसी मान्यता है कि जो भी श्रद्धा और प्रेम से बांके बिहारी जी के दर्शन करता है, उसकी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों के सभी कष्ट हर लेते हैं. यह सभी कथाएं और विवरण लोक कथाओं, किवदंतियों और प्रचलित इतिहास पर आधारित हैं.

भगवान की त्रिभंग मुद्रा
बांके बिहारी की छवि में सबसे खास बात उनकी त्रिभंग मुद्रा है. श्रीकृष्ण की यह सुंदर युगल छवि शरीर के तीन स्थानों पर टेढ़ी है. वह एड़ी उठाए और पैरे को टेढ़ा मोड़े हुए एक-दूसरे से क्रॉस कराते हुए रखते हैं. फिर उनकी कमर झुकी हुई है और इसके साथ ही वह वंशी बजाने की मुद्रा में अपने हाथ, गरदन और चेहरे को भी टेढ़ा रखे हुए हैं. यही त्रिभंगी मुद्रा है. भारतीय कला और शास्त्रीय नृत्य, खासकर ओडिसी और भरतनाट्यम में उपयोग होने वाली यह खड़ी मुद्रा, जिसमें शरीर को तीन जगहों—घुटनों, कूल्हों और कंधों/गर्दन—पर मोड़ा जाता है, जिससे एक सौम्य 'S' आकार बनता है, जो गतिशीलता, सुंदरता और आध्यात्मिकता दर्शाता है, और यह अक्सर श्रीकृष्ण की मनमोहक मुद्रा के रूप में देखा जाता है. 

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