शौर्य के गीत, जौहर की आग और युद्ध... क्या है शाका नृत्य जिसे जंग में जाने से पहले किया करते थे जांबाज

युद्ध, एक ऐसा समय जब शक्ति प्रदर्शन अपने चरम पर होता है. सामने सिर्फ शत्रु की सेना होती है और हृदय में सिर्फ एक चाहत विजय ही विजय. लेकिन भारत भूमि के लिए युद्ध हमेशा आखिरी विकल्प रहा है. इतिहास में कई ऐसे मौके रहे हैं, जहां इस देश के सपूतों ने युद्ध तब किया, जब उन पर हमला हुआ. यह युद्ध किसी पर कब्जा करने या नीचा दिखाने के उद्देश्य से नहीं लड़े गए.

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युद्ध में जाने से पहले राजपूती योद्धा करते थे शाका युद्ध में जाने से पहले राजपूती योद्धा करते थे शाका

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 26 मई 2025,
  • अपडेटेड 5:56 PM IST

इस बात को तकरीबन 1000 साल तो हो ही चुके हैं. चित्तौड़ के दुर्ग का मुख्य प्रवेश द्वार बंद था. वहां से दूर एक पहाड़ी पर खड़ा अलाउद्दीन खिलजी इसी ओर टकटकी लगाए देख रहा था. शाम घिरने को थी, पंछी बसेरों की ओर लौटने की तैयारी में थे और आफताब भी अपनी सारी रोशनी बटोर कर पश्चिम की पहाड़ी के पीछे चल पड़ा था, लिहाज उस तरफ का आसमान केसरी रंगत में रंगा था.

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लेकिन, यह क्या? अचानक ही दृश्य बदल गया. खिलजी ने देखा कि पूरब का आकाश भी इसी रंगत में रंगा हुआ है. चित्तौड़ दुर्ग के ऊपर का सारा आकाश केसरी हुआ जा रहा है और ये केसरी रंगत दुर्ग के आंगन से ही गुबार की शक्ल में ऊपर उठकर आसमान में तैर रही है. खिलजी ने अपने गुलाम मलिक कफूर से पूछा, अभी कल ही तो दीवाली थी तो आज ये होली सी रंगत कैसे? क्या एक ही दिन में चार महीने बीत गए? 

मलिक कफूर बोला... हुजूर ये होली नहीं होला है, वो देखिए उधर आग की लपटें उठ रही हैं. उधर केसरिया और लाल गुलाल उड़ाया जा रहा है. रणचंडी जगाई जा रही है. राजपूत रानियां जौहर की आग जलाएंगी और राजपूती योद्धा साका करेंगे. 

जौहर, साका... ये किस चिड़िया का नाम हैं? खिलजी ने पूछा. कफूर ने जवाब दिया- हुजूर! ये राजपूतों की युद्ध लड़ने से पहले की परंपरा है. इस जौहर और साका के बाद इनका मरने का डर खत्म हो जाता है और अमर होने की ताकत आ जाती है. ये आप और हम नहीं समझ सकते. हमारी लाखों की सेना उनके दरवाजे पर है, पर आप कान लगाकर सुनिए... वो गीत गा रहे हैं, शंख-घंटे-घड़ियाल बज रहे हैं. राजपूत योद्धा साका नृत्य कर रहे हैं.

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क्या है साका (शाका)?

जौहर और साका की बात हो रही है तो बता दें कि इनमें थोड़ा बारीक सा फर्क है. युद्ध में जब सेना केसरिया साफा पहनकर मरने और मारने पर उतारू होकर लड़ने के लिए उतरती थी और वीरगति को पाना निश्चित ही होता था, तब इसे केसरिया कहते थे. राजा और सेना के द्वारा साका का फैसला कर लेने के बाद रानियां भी अपनी आबरू के लिए खुद को अग्नि में समर्पित कर देती थीं तो यह राजपूती रानियों का जौहर कहलाता था.

अगर किसी राज्य में केसरिया और जौहर दोनों ही हो रहे हैं तो यह संपूर्ण प्रक्रिया साका (या शाका) कहलाती थी. खिलजी ने जब चित्तौड़ पर आक्रमण किया तब रावल रतन सिंह ने निर्णायक युद्ध से पहले केसरिया किया था. वह वीरगति को प्राप्त हुए थे. इसके बाद रानी पद्मावती के नेतृत्व में उनकी सभी सखियों और दासियों ने जौहर कर लिया था. चित्तौड़ सिर्फ जौहर नहीं, बल्कि वीरता के संपूर्ण अध्याय शाका के लिए जाना जाता है. 

भारत में युद्ध कब्जा करने के लिए नहीं लड़े गए
युद्ध, एक ऐसा समय जब शक्ति प्रदर्शन अपने चरम पर होता है. सामने सिर्फ शत्रु की सेना होती है और हृदय में सिर्फ एक चाहत विजय ही विजय. लेकिन भारत भूमि के लिए युद्ध हमेशा आखिरी विकल्प रहा है. इतिहास में कई ऐसे मौके रहे हैं, जहां इस देश के सपूतों ने युद्ध तब किया, जब उन पर हमला हुआ. यह युद्ध किसी पर कब्जा करने या नीचा दिखाने के उद्देश्य से नहीं लड़े गए, बल्कि ये लड़े अपना वजूद बचाने के लिए, संस्कृति को संभालने के लिए और अपनी देशहित व जनता की आत्मरक्षा के लिए. 

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ऐसे में युद्ध का मैदान भी साधना का स्थल बन गया और इस दौरान उठने वाली हर ललकार-जयकारे, युद्ध देवी की आरती बन गए. सैनिकों में युद्ध के लिए जोश जगाने और वीरता से लड़ जाने के लिए और उनके भीतर के खून में हिलोरे लाने का काम करते रहे हैं युद्धगीत और भारत में युद्धगीतों की प्राचीन परंपरा रहा है. वीर रस से भरे इन गीतों में युद्ध का वर्णन तो होता ही है, साथ ही योद्धा के अंदर यह अहसास भी भरा जाता है कि वह खुद रुद्र है और उसके भीतर शिव ही समा चुके हैं. 

भारत में युद्ध गीत केवल संगीत नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक और भावनात्मक शक्ति हैं. ये गीत योद्धाओं के हृदय में साहस का संचार करते थे, उन्हें मृत्यु के भय से मुक्त करते थे और मातृभूमि के लिए बलिदान की प्रेरणा देते थे. चाहे वह राजस्थान के रेगिस्तान हों, पंजाब की उपजाऊ भूमि हो, दक्षिण भारत के प्राचीन मंदिर हों, या पूर्वोत्तर की हरी-भरी पहाड़ियाँ, हर क्षेत्र में युद्ध गीतों ने योद्धाओं की आत्मा को एकजुट किया.

वैदिक काल में मंत्रों की शक्ल में युद्धगीत
वैदिक काल में युद्ध गीतों की शुरुआत ऋग्वेद और सामवेद के मंत्रों से हुई. योद्धा युद्ध से पहले इंद्र, अग्नि और वरुण जैसे देवताओं की स्तुति में मंत्र गाते थे. 
उदाहरण के लिए, ऋग्वेद में इंद्र की स्तुति में कहा गया है:
"इंद्रं विश्वासाहमृतीषहम्, ज्येष्ठं विश्वेषु शूरं सनाद्."

(अर्थ: इंद्र, जो विश्व में सबसे शक्तिशाली और वीर हैं, उनकी शक्ति हमें विजय दिलाए.)
 

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ये मंत्र न केवल देवताओं का आह्वान करते थे, बल्कि योद्धाओं में आत्मविश्वास और निर्भयता का संचार करते थे. सामवेद के मधुर गान युद्ध के दौरान सैनिकों के मन को शांत और केंद्रित रखते थे.

बाद में इन्हीं मंत्रों को भाव से धीरे-धीरे लोकगीत बने और फिर जब रणभेरी की गूंज आसमान को चीरती, शंखनाद और तुरही की ध्वनि हृदय में जोश का संचार करती और जब योद्धा अपनी तलवार को आकाश की ओर उठाकर मातृभूमि के लिए अंतिम सांस तक लड़ने का संकल्प लेता है, तब आत्मा की इसी पुकार से उठे लोकगीत योद्धा के संकल्प के साथी बन गए. 

युद्ध केवल शस्त्रों का टकराव नहीं, बल्कि संस्कृति, सम्मान और आत्मा का उत्सव है. भारत की युद्ध परंपराएं और गीत उस गौरवमयी इतिहास का हिस्सा हैं, जहां हर गीत में वीरता की कहानी, हर रस्म में बलिदान की भावना और हर परंपरा में मातृभूमि के प्रति अटूट प्रेम समाया है. 

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