वक्त कुछ यूं है कि मौजूद सदी अपने 25वें साल में है. दौर ऐसा है कि अब सिर्फ लड़के ही कामकाजी नहीं हैं, बल्कि लड़कियां भी घरों से बाहर निकल काम-कंपनी और रोजगार सब संभाल रही हैं. रिश्ते में वफादारी की चाहत के बीच, नीला ड्रम, सांप से कटवाना, खाने में जहर, खूनी हनीमून, तलाक, एलिमनी जैसी तमाम खबरें भी सुर्खियों में हैं. इसकी वजह क्या है? शायद सिर्फ इतनी कि अब आदमी और औरत दोनों ही एक सीधे-साधे सधे हुए खांचे में नहीं फिट होना चाहते.
सच-झूठ के बीच फंसे रिश्ते
पति-पत्नी के बीच वफादारी वाला संबंध, कहीं न कहीं बीते जमाने की या ओल्ड स्कूल टाइप बात होने लगी है, लेकिन इस बीच कपल्स के बीच जो नया डर उपजा है, वह है प्यार के बावजूद एक-दूसरे को खो देने डर. फिर इसी डर से रिश्तों के बीच होती है झूठ की आमद... दबे पांव, धीरे-धीरे, बेहद आहिस्ता. अब शुरू होता है टकराव का दौर. एक पाले में होता है सच्चा प्यार और दूसरी ओर झूठ.
ऐसी ही कुछ बेसिक सी बातों को लेकर मंच पर उतरे थे श्रीराम सेंटर फॉर परफॉर्मिंग आर्ट्स के कलाकार और वे सच-झूठ की ऐसी उलझनों में फंसे नजर आए कि, नाटक का नाम Stuck अपनी इस व्यथा-कथा को सुनाने के लिए सही साबित होता है. मंच पर लगभग 2 घंटे तक छह किरदार, खूबसूरत वादियों के कृत्रिम कैनवस पर अजीब ही मनोवैज्ञानिक उलझन में फंसे नजर आते.
ये उलझन भी शुरू होती है उनकी आपसी बातचीत से, जहां सवाल उठता है कि जीवनसाथी के साथ कितना लॉयल रहा जा सकता है, कितना सच बोला सकता है और क्या रोजाना की जिंदगी में झूठ की कोई जगह है, या होनी भी चाहिए? जब आप नाटक देख रहे होते हैं तो ये मंच पर हास्य के बहाने से ही सही, लेकिन लगातार उठ रहा ये सवाल, दर्शकों से, लोगों से, लगातार बदल रहे समाज से सवाल करता है और कहीं न कहीं इन सवालों का सिरा हर किसी की अपनी जिंदगी तक पहुंचता ही है.
ईर्ष्या, विश्वासघात और आत्म-संदेह
ठीक तरीके से कहा जाए, तो जब ईर्ष्या, विश्वासघात और आत्म-संदेह हावी होने लगते हैं, तो "स्टक" यह खोजता है कि क्या रिश्तों में पूरी ईमानदारी टिकाऊ है या रिश्ते में सर्वाइव करने के लिए झूठ भी जरूरी है. हास्य, संघर्ष और कच्ची उम्र की भावनाओं के जरिए से, नाटक नए जमाने के इस दौरा में रिश्तों में सच और छल के बीच नाजुक संतुलन की पड़ताल करता है.
Stuck की स्टोरीलाइन कुछ यूं है कि दो कपल (युवा) पहाड़ों की बर्फीली वादियों में पहुंचते हैं. उत्तराखंड की इस मनोरम वादियों में ट्रेक और फिर एक खूबसूरत होम स्टे में उनका ठहराव, जहां वहीं के लोकल कपल (देवराज और सुनीता) उनकी मेजबानी करते हैं. विक्रम और लीला की एनिवर्सरी है, और इसी मौके पर वे अपने खास दोस्त पार्थ और आरोही के साथ दिल्ली से पहाड़ों में घूमने आए हैं.
अचानक एक बर्फीला तूफान उन्हें पहाड़ों में फंसा देता है, लेकिन ये तूफान नाटक लेखक की ओर से रचा गया महज एक रूपक ही है, क्योंकि असली तूफान, असली उथल-पुथल तो उनकी जिंदगी में आने वाली है. इस बिगड़े मौसम में सर्वाइव करने की जद्दोजहद धीरे-धीरे भावनात्मक मुश्किलों में तब्दील हो जाती है और फिर यहीं से शुरू होती है, सच्चे प्यार और बेवफाई की जंग. लीला विक्रम के सामने खुलासा करती है कि उसका दोस्त पार्थ अपनी पत्नी आरोही को धोखा दे रहा है. उसका एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर है. लीला विक्रम को पार्थ का ये राज बताने के साथ ही उस पर भी शक करने लगती है.
प्यार और ईमानदारी की नैतिक सीमाओं पर गहरे सवाल
सामान्य सी लगने वाली बातचीत कब बहस का रूप ले लेती है और दोनों जोड़ों के बीच का नाजुक भरोसा कब डंवाडोल होने लगता है, पता ही नहीं लगता है. यह खुलासा ही वफादारी, प्यार और ईमानदारी की नैतिक सीमाओं पर गहरे सवाल उठाता है. दूसरी ओर, देवराज और सुनीता की शांत लेकिन जटिल शादी में भी कई स्याह लेकिन छिपे हुए अंधेरे, उजागर होने लगते हैं. जहां सुनीता अपने पति के अफेयर को जानते हुए भी चुप रहती है और बड़ी आसानी से कहती है कि 'कहीं भी जाए, लेकिन आएगा तो मेरे ही पास.' लीला और आरोही के लिए इस बात को समझना थोड़ा मुश्किल है.
बीते दिनों श्रीराम सेंटर में आयोजित शील भरत राम थिएयर फेस्टिवल में इस नाटक का खूबसूरत मंचन किया गया. काव्या बरनवाल ने लीला का किरदार निभाया, जो अपनी भावनात्मक गहराई और साहसिक खुलासों से कहानी को नया मोड़ देती है. प्रणव ने विक्रम की भूमिका अदा की, जिसका भरोसा और प्यार खतरे में पड़ जाता है. देवांशी अरोड़ा का हर मामले पर कूल अप्रोच उसके किरदार को काफी रहस्यमय गहराई देता है. भानु सिंह राजपूत पार्थ के किरदार में खूब जंचे हैं.
उनका दिलफेंक अंदाज ही उनके किरदार की जान है. उसकी बेवफाई की कहानी ही तूफान खड़ा करती है. प्रिया पाठक ने सुनीता के रूप में एक शांत लेकिन जटिल औरत की ज़िंदगी को जीवंत किया, वहीं, शशांक जामलोकी ने देवराज की भूमिका में समझौतों और प्यार की गहराई को उजागर किया. इन सभी पात्रों ने मिलकर इस नाटक को एक यादगार अनुभव बनाया. Stuck श्रीराम सेंटर की बिल्कुल ही अलग और नवोदित कृति है. इसे मनीष वर्मा ने ही लिखा और निर्देशित भी किया है.
नए जमाने के भावनात्मक संकट को मनीष बहुत करीने उभारते हैं और इसे मंच पर लाने के लिए उन्होंने कोई फिल्टर नहीं लगाया, कोई गेटकीपिंग नहीं की है. इसलिए इसके संवादों में खुलापन है. भावनाएं हैं तो उन भावुक पलों को संदर्भित करती गालियां हैं. कुल मिलाकर समाज जैसा है, उसका आचरण जिस तरह आंखों देखा और कानों से सुना जा रहा है, मंच पर वह वैसा ही दिखता है. इसलिए Stuck की कहानी और तेजी से अपने पहले ही सीन के बाद दर्शकों को बांधने लगती है.
एक किरदार और जिंदगी का सबक
लीला का गुस्सा, हर बात को खुद से जोड़कर देखना और पल-पल में भावुक हो जाना, उसे एक टॉक्सिक किरदार की तरह पेश करता है. समस्याओं का पूरा बवंडर भी यहीं इसी किरदार से शुरू होता है. लीला का किरदार अपने आप में सशक्त है, लेकिन यह किरदार बताता है कि भावनाओं के तौर पर सशक्त होना भी बहुत जरूरी है, ताकि आप जीवन में आए भावुक पलों को भी संजीदगी से समझ सकें. आज के दौर में कपल्स के बीच यही एक बेसिक गलती हो रही है.
प्यार और समझौते के इसी द्वंद्व को सामने रखते हुए और हास्य, ईर्ष्या, धोखा और कमजोरी से भरी Stuck आधुनिक रिश्तों की गड़बड़ियों को उजागर करती है, साथ ही सवाल उठाती है कि क्या सच वाकई आज़ादी देता है, या जीवित रहने के लिए कभी-कभी झूठ ज़रूरी होता है. यह नाटक एक भावनात्मक रोलरकोस्टर है, जिसमें कई सुखद-कई विडंबना भरे मोड़ आते हैं और कई दफा तो शायद दर्शक भी वहीं कहीं किसी मोड़ पर खुद खड़ा हुआ, उलझा हुआ पाता है. वह Stuck हो जाता है.
विकास पोरवाल