हिमाचल प्रदेश (Himachal Pradesh) के कांगड़ा जिले में स्थित ज्वाला देवी मंदिर (Jwala Devi Temple) भारत के प्रमुख शक्तिपीठों में से एक है, जहां माता ज्वाला के नौ प्राकृतिक ज्वालामुखी रूपों की पूजा की जाती है. यह अनोखा मंदिर अपनी रहस्यमयी "ज्योतियों" के लिए प्रसिद्ध है, जो बिना किसी घी, तेल या ईंधन के सदियों से निरंतर जल रही हैं. कहा जाता है कि यह वही स्थान है जहां देवी सती की जीभ गिरी थी, जिसके कारण यहाँ अग्निरूप शक्ति का प्राकट्य हुआ.
ज्वाला देवी मंदिर समुद्र तल से लगभग 610 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और हर साल लाखों भक्त यहाँ दर्शन करने पहुंचते हैं. मंदिर परिसर में मुख्यतः नौ ज्वालाएं निकलती हैं, जिन्हें महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विंध्यवासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अंबिका और अंजी देवियों के रूप में पूजते हैं. मंदिर का गर्भगृह पत्थर का बना है और इसके भीतर एक छोटी सी गुफानुमा संरचना है, जहां प्राकृतिक रूप से अग्नि प्रकट होती रहती है.
इतिहास की बात करें तो ज्वाला देवी मंदिर का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों और राजाओं के शिलालेखों में मिलता है. यह भी माना जाता है कि अकबर ने मंदिर की ज्वालाओं को बुझाने का प्रयास किया था, लेकिन असफल रहा और बाद में उसने श्रद्धा स्वरूप सोने का छत्र अर्पित किया. हालांकि वर्तमान में वह छत्र काला पड़ चुका है, जो अपने आप में एक रहस्य माना जाता है.
मंदिर में सबसे बड़ा आकर्षण "आरती" है, विशेषकर "आरती ऑफ द फ्लेम्स", जिसमें हजारों भक्त देवी के सम्मुख जल रही प्राकृतिक ज्वालाओं का आशीर्वाद लेते हैं. नवरात्रों के समय यहाँ अत्यधिक भीड़ होती है और उत्सव का विशेष वातावरण दिखाई देता है.
शांत पर्वतीय वातावरण, धार्मिक महत्व और रहस्यमयी प्राकृतिक अग्नि, ये सभी तत्व ज्वाला देवी मंदिर को भारत का एक अनूठा और अत्यंत पूजनीय शक्ति स्थल बनाते हैं. यहां पहुंचकर श्रद्धालु न केवल देवी का आशीर्वाद पाते हैं बल्कि आध्यात्मिक ऊर्जा और शांति का अनुभव भी करते हैं.