भारत इजरायल के साथ इश्क तो करता है लेकिन उसके साथ रिश्ता कायम नहीं करना चाहता. ये बात लंबे समय तक इजरायल और भारत के संदर्भ में कही जाती रही. जब इजरायल का एक स्वतंत्र देश के तौर पर जन्म हुआ था तो भारत ने उसे मान्यता तक नहीं दी थी.
1917 के बाल्फर घोषणापत्र का अमेरिका ने समर्थन किया था जिसमें फलस्तीन में यहूदियों के लिए एक अलग राष्ट्र की मांग की गई थी. हालांकि, अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूसोवेल्ट ने 1945 में अरब को यह आश्वासन दिया कि अमेरिका फलस्तीन क्षेत्र में रह रहे यहूदियों और अरबी लोगों की सलाह लिए बिना इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करेगा.
फलस्तीन के बंटवारे के लिए ब्रिटेन को जिम्मेदार ठहराया जाता है. मिस्त्र और जॉर्डन को छोड़कर किसी भी अरब या मुस्लिम देश ने आज तक इजरायल के साथ राजनयिक संबंध नहीं बनाए हैं. अधिकतर इस्लामिक देश इजरायली और यहूदियों के अपने देश में आने पर प्रतिबंध लगाए हुए हैं.
आइंस्टीन स्वघोषित यहूदी राष्ट्रवादी थे. आइंस्टीन का मानना था कि यहूदियों के लिए एक अलग राष्ट्र दुनिया भर के प्रताड़ित और पीड़ित यहूदियों के लिए एक शरणस्थली बन सकता है.
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू यहूदियों के इतिहास से पूरी तरह परिचित थे और यूरोप में यहूदियों पर हुए अत्याचार के मुद्दे पर संवेदनशील भी. नेहरू ने सहानुभूति के साथ यूरोप में यहूदियों की दयनीय स्थिति पर लिखा.
इजरायल पर नेहरू का संशय बिल्कुल स्पष्ट था. उन्होंने लिखा कि फलस्तीनी अरबी सदियों से
फलस्तीन में रह रहे हैं और एक यहूदी राष्ट्र के निर्माण के लिए
उन्हें उनकी जमीन से हटाना बहुत ही अनुचित होगा. उन्होंने यह भी जिक्र किया
कि फलस्तीन में सदियों से यहूदी भी रह रहे हैं.
नेहरू फलस्तीन के विभाजन के खिलाफ थे. नेहरू के दिल पर भारत के विभाजन का घाव अभी भी ताजा था.
13 जून 1947 को आइंस्टीन ने नेहरू को 4 पन्नों का एक खत लिखा था जिसमें
उन्होंने छुआछूत हटाने के लिए भारत की तारीफ की. उन्होंने आगे कहा कि यहूदी
लोगों के साथ भी लंबे समय से भेदभाव होता रहा है.
आइंस्टीन ने नेहरू को राजनीतिक और आर्थिक चेतना का चैंपियन करार
दिया था. आइंस्टीन ने न्याय और बराबरी की वकालत करते हुए कहा कि हिटलर के
उदय से बहुत पहले जियोनिजम के उद्देश्य को मैंने अपना उद्देश्य बना लिया
क्योंकि मुझे इसमें अतीत में यहूदियों के खिलाफ हुए अन्याय को सही करने का जरिया नजर आया.
आइंस्टीन ने अपने खत में लिखा था, हिटलर के वक्त लाखों यहूदियों को
प्रताड़ित किया गया...और दुनिया में किसी भी जगह पर उन्हें संरक्षण नहीं
मिल सका.
नेहरू के संशय को समझते हुए आइंस्टीन ने लिखा, फलस्तीन
के अरबी लोगों से यहूदियों को आर्थिक तौर पर बहुत फायदा मिला है लेकिन वह एक विशेष
संप्रभु राष्ट्र चाहते हैं जैसे सऊदी अरब, इराक, लेबनान और ईरान जैसे देशों
को हासिल है. यह वैध और प्राकृतिक चाह है और न्याय इसे संतुष्ट करने की
मांग करता है. यह चाह एक फलस्तीनी राज्य के तौर पर पूरी होगी.
आइंस्टीन के मुताबिक, बैल्फर का 1917 का घोषणापत्र यहूदी लोगों के लिए एक
राष्ट्र का वादा करता है जिससे इतिहास और न्याय में संतुलन स्थापित होगा.
आइंस्टीन ने अपनी आखिरी अपील में नेहरू से राष्ट्रवादी भूख को संतुष्ट करने के बजाय फलस्तीन में नवजागरण को समर्थन देने की मांग की.
फलस्तीन के विभाजन और यहूदी राष्ट्र के निर्माण के खिलाफ वोट देने के लिए नेहरू ने यही व्याख्या दी थी. भारत इसलिए भी मजबूर था क्योंकि भारत की मुस्लिम आबादी की चेतना भी अन्य मुस्लिम देशों की तरह फलस्तीन के विभाजन के खिलाफ थी. इसके अलावा 1948 में कश्मीर पर पाकिस्तान के युद्ध के बाद भारत को अरब देशों की मदद की जरूरत थी.
नेहरू ने सतर्कता के साथ लिखा, मैं स्वीकार करता हूं कि यहूदियों के लिए मेरे मन में बहुत सहानुभूति है, मैं अरब के लोगों के लिए भी संवेदना रखता हूं. मुझे पता है कि यहूदियों ने फलस्तीन में बहुत ही शानदार काम किया है और वहां के लोगों के जीवनस्तर को संवारने में योगदान दिया है लेकिन एक सवाल है जो मुझे परेशान करता है. इन सारी उपलब्धियों के बावजूद भी वे अरब के लोगों का विश्वास जीतने में कामयाब क्यों नहीं हो पाए? वे उन्हें उनकी मर्जी के खिलाफ उन्हें यहूदी राष्ट्र के लिए क्यों मजबूर करना चाहते हैं?
हालांकि, 17 सितंबर 1950 में भारत ने इजरायल को मान्यता दे दी. उस समय नेहरू ने कहा था, हमने इजरायल को बहुत पहले ही मान्यता दे दी होती. इजरायल अब एक सच्चाई है. हम केवल इसलिए दूर रहे क्योंकि हम अरब देशों में अपने दोस्तों की भावनाएं आहत नहीं करना चाहते थे.