Renowned radio commentator Murli Manohar Manjul passes away: क्रिकेट के मशहूर रेडियो कमेंटेटर मुरली मनोहर मंजुल अब नहीं रहे. रविवार शाम (25 फरवरी) जयपुर में उन्होंने अंतिम सांस ली. वह 91 साल के थे. उनके परिवार में पत्नी के अलावा एक पुत्र और एक पुत्री हैं. उनका अंतिम संस्कार सोमवार को मानसरोवर (जयपुर) में किया जाएगा.
मुरली मनोहर मंजुल की लयबद्ध और धाराप्रवाह कमेंट्री उन लोगों को जरूर याद होगी, जिन्होंने सत्तर से नब्बे के दशक में आकाशवाणी की क्रिकेट कमेंट्री का आनंद उठाया होगा. सच तो यह है कि मंजुल ने आकाशवाणी की कमेंट्री को घर की भाषा (मातृभाषा हिंदी) में आम लोगों तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया था.
दरअसल, क्रिकेट मूल रूप से एक इंग्लिश गेम है. शुरुआती दौर में ऐसी धारणा थी कि इसकी कमेंट्री सिर्फ अंग्रेजी में ही की जा सकती है. आखिरकार मुरली मनोहर मंजुल ऐसे अगुआ बन कर उभरे, जिन्होंने इस मिथक को तोड़ा था.
रेडियो कमेंट्री को हिंदी में घर-घर तक पहुंचाया था
मंजुल ने 1957 में आकाशवाणी में प्रवेश किया था. सरस कवि के तौर पर रेडियो में स्थान बनाने वाले मंजुल ने इस यात्रा के दौरान अपने नाटक और फीचर्स से पहचान बनाई थी. उस वक्त उनका खेलों से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था. हालांकि बचपन में उन्होंने अपने गृहनगर जोधपुर में स्थानीय स्तर पर मारवाड़ क्रिकेट क्लब से खुद को जोड़ा था. जॉन आर्लोट (John Arlott) उनके प्रिय कमेंटेटर रहे. रेडियो में आने के बाद जब हिंदी में आकाशवाणी से खास तौर पर क्रिकेट का प्रसारण शुरू हुआ तो वही प्रगाढ़ता उनके काम आई.
मंजुल 1966 से 1972 के बीच रणजी ट्रॉफी मैचों का आंखों देखा हाल सुनाते रहे. 1972 में उन्होंने बाकायदा क्रिकेट कमेंट्री के राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पैनल में पदार्पण किया था.मंजुल का 1966 में आकाशवाणी पटना से जयपुर ट्रांसफर हुआ और उन्हें खेल कवरेज का जिम्मा सौंपा गया और इसके बाद तो उन्होंने हिंदी कमेंट्री की मजबूत आधारशिला रखी.
मंजुल से पहले तक क्रिकेट कमेंट्री पैनल पर रेडियो का नियमित सरकारी कर्मचारी कोई नहीं था. सिर्फ स्टाफ के तौर पर जसदेव सिंह थे. यह वही जसदेव सिंह (क्रिकेट-हॉकी सहित विभिन्न खेलों के प्रख्यात कमेंटेटर) थे जो मंजुल के मददगार बनकर सामने आए. मंजुल ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था,'मुझे यह स्वीकारने में कोई हिचक नहीं कि क्रिकेट कमेंटेटर पैनल तक ले जाने में मेरा वह मित्र मददगार रहा.'
कमेंट्री के दौरान मंजुल का उत्साह देखते ही बनता था
मंजुल ने माना था, 'हम दोनों के अलावा क्रिकेट कमेंट्री से अंग्रेजी के वर्चस्व को हटाने के लिए इंदौर के सुशील दोशी (आज भी हिंदी कमेंट्री की शान बने हुए हैं) ने भी बीड़ा उठाया था.' कमेंट्री के दौरान मंजुल का उत्साह देखते ही बनता था. फैसलाबाद (1978) में टेस्ट करियर का आगाज कर रहे 19 साल के कपिल देव को श्रोताओं से रू-ब-रू कराने में मंजुल कामयाब रहे थे.
मंजुल को हमेशा इस बात का मलाल रहा कि उनके साथ सौतेला व्यवहार किया गया. उन्होंने अपने एक संस्मरण में लिखा था 'क्रिकेट कमेंट्री करने वाला रेडियो का मैं पहला नियमित सरकारी सेवक था. आकाशवाणी महानिदेशालय की स्पोर्ट्स सेल पर वे लोग दबाव बनाते रहे कि मंजुल को कम से कम मैच मिले. एक बार भारतीय टीम के साथ पाकिस्तान चला तो गया, मगर मुझे बीच दौरे से वापस बुलाने की खिचड़ी दिल्ली में पकती रही.'
जब 2004 में कमेंट्री की दुनिया से खुद को अलग कर लिया
आखिरकार मंजुल ने 2004 में अधूरे मन से कमेंट्री की दुनिया से खुद को अलग कर लिया. आकाशवाणी से अपनी पीड़ा को साझा किए बगैर उन्होंने अपने स्वास्थ्य का हवाला देते हुए कमेंट्री से संन्यास ले लिया. मंजुल अपनी रचनाओं को माध्यम से भी छाए रहे. उनकी रचना 'आखों देखा हाल' को 1987 में भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार मिला. उनकी 2009 में लिखित 'आकाशवाणी की अंतर्कथा' को काफी प्रसिद्धि मिली. इसके अलावा मंजुल अपनी कविताओं और गीतों से पाठकों को लुभाते रहे.
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