कोचों की कुछ आदतें ऐसी होती हैं, जो समय के साथ उनकी पहचान बन जाती है, भले ही रणनीतियां बदलती रहें. फुटबॉल में सर एलेक्स फर्ग्यूसन की लगातार च्युइंग गम चबाने की आदत आधुनिक खेल की सबसे पहचानी जाने वाली तस्वीरों में से एक बन गई. कहा जाता है कि यह करियर के शुरुआती दौर में घबराहट के कारण होने वाली खांसी को संभालने का तरीका था. लेकिन समय के साथ यह एक टचलाइन रिवाज बन गया्,जो नियंत्रण और दबाव में भी शांत रहने का प्रतीक था. पेप गार्डियोला का टचलाइन पर बार-बार स्वेटर की आस्तीन खींचना भी उतना ही जाना-पहचाना है, यहां तक कि फैंस मजाक में कहते हैं कि उनकी बेचैनी का स्तर इसी से नापा जा सकता है.
क्रिकेट में ऐसी आदतें आमतौर पर ज्यादा सूक्ष्म रही हैं. भारतीय टीम के कोच रहते राहुल द्रविड़ अक्सर नोटबुक के साथ दिखते थे, जिसमें वे लगातार नोट्स लिखते रहते. वहीं आशीष नेहरा सबसे बेचैन कोचों में गिने जाते हैं, अक्सर बाउंड्री के पास जाकर खिलाड़ियों को निर्देश देते नजर आते हैं. अधिकतर खेलों में ये आदतें बस फुटनोट बनकर रह जाती है, कहानी को थोड़ा रंग देती हैं, लेकिन असर नहीं डालतीं.
और फिर कुछ आदतें होती हैं, जो दोबारा देखने के लिए मजबूर करती हैं. अगर आप डगआउट में गौतम गंभीर को ध्यान से देखें, तो एक चीज बार-बार दिखेगी. न सिर्फ उनके तीखे हाव-भाव या गंभीर निगाहें, बल्कि क्रिकेट गेंद. ये गेंद आपको टेबल पर, चेहरे के पास या हमेशा उनकी पहुंच में दिखेगी. फॉर्मेट बदले, मैच बदले, मैदान बदले, गेंद लगभग हर बार फ्रेम में होती है. एक बार दिख जाए, तो नजरअंदाज करना मुश्किल हो जाता है.
पहले देखा है?
कुछ और तस्वीरें इस बात को पुख्ता करती हैं, गंभीर आगे झुके हुए, पास में गेंद. पीछे झुके हुए, गेंद किनारे पर लटकी है. सुनते हुए, सोचते हुए, इंतजार करते हुए- हर बार गेंद साथ. यह दिखावा नहीं लगता. न ही बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया. बस मौजूद है. यहीं से सवाल शुरू होता है. क्या हम जरूरत से ज्यादा मतलब निकाल रहे हैं? क्या बस हानिरहित आदत से कुछ ज्यादा मतलब निकाल रहे हैं? गंभीर वो कोच हैं, जिनकी हर हरकत को डिकोड किया जाता है. सोशल मीडिया पर खामोशी भी उतनी ही जांची जाती है जितनी बात. एक नजर फैसला बन जाती है. एक नाम ना लेना इरादा मान लिया जाता है.
ROKO को लेकर सवाल?
यहां तक अनुपस्थिति का भी विश्लेषण किया जाता है. पिछले हफ्ते साउथ अफ्रीका के खिलाफ भारत की वनडे सीरीज जीत के बाद जब गंभीर ने सार्वजनिक तौर पर विराट कोहली या रोहित शर्मा का नाम नहीं लिया, तो यही चुप्पी चर्चा का विषय बन गई. ऐसी क्रिकेट संस्कृति में, जहां सीनियर खिलाड़ियों को आगे रखा जाता है, इस चुप्पी को ‘कुछ तो है’ माना गया. पूर्व भारतीय बल्लेबाज रॉबिन उथप्पा ने इसे अजीब बताया कि दो सबसे अनुभवी खिलाड़ियों के योगदान का जिक्र नहीं हुआ और इससे अटकलें काफी तेज हो गईं.
गंभीर-कोहली समीकरण भी लगातार जांच के घेरे में रहा है. दोनों के खेलने के दिनों की तीखी टकराहटें आसान संदर्भ बन जाती हैं. गंभीर कई बार कह चुके हैं कि अब हम एक ही टीम के लिए खेल रहे है, लेकिन अफवाहों की चक्की थमती नहीं.
जब कोहली ने साउथ अफ्रीका के खिलाफ दो वनडे शतक लगाए, तो एक छोटा सा पोस्ट-मैच क्लिप वायरल हुआ, जिसमें वो गंभीर के पास से बिना स्पष्ट अभिवादन के गुजरते दिखे. उस पल को फ्रीज किया गया, दोहराया गया, और थ्योरी बनाई गई. जबकि उसी मैच के पहले के दृश्य दिखाते हैं कि गंभीर शतक पर तालियां बजा रहे थे और बाद में रोहित शर्मा के साथ हल्की-फुल्की बातचीत भी हुई. एक बार फिर संदर्भ, कहानी से पीछे रह गया.
अर्शदीप सिंह के सात-वाइड वाले ओवर पर गंभीर की नाराजगी कैमरे में साफ कैद हुई, जो अपने आप में असामान्य नहीं थी. लेकिन पोस्ट-मैच हैंडशेक के दौरान अर्शदीप की ओर उनकी एक छोटी सी नजर को अलग कर सार्वजनिक नाराजगी के संकेत के तौर पर पढ़ा गया. तुलनाएं भी शुरू हुईं. वर्ल्ड कप 2023 के सेमीफाइनल में हार के बाद राहुल द्रविड़ का विराट कोहली को ढांढस बंधाते वीडियो फिर से शेयर हुआ. गंभीर की नजर निराशा का प्रतीक थी, सख्त प्यार था या कुछ भी नहीं, यह जानना नामुमकिन है. लेकिन लगातार डिकोडिंग के दौर में ये वीडियो क्लिप संदर्भ से ज्यादा अहम हो गई.
यही वह माहौल है जिसमें गंभीर काम कर रहे हैं. जहां न्यूट्रल रहना मुश्किल है और संदर्भ अक्सर वैकल्पिक होता है. घर में 0–2 से टेस्ट सीरीज हार के बाद आलोचना तेज थी. जब उसके बाद भारत ने वनडे सीरीज जीती, तो गंभीर ने शुभमन गिल की गैरमौजूदगी का जिक्र किया, जो चोट के कारण दोनों टेस्ट नहीं खेल पाए थे. कुछ लोगों को यह गलत समय पर दिया गया बहाना लगा, लेकिन तर्क को पूरी तरह नजरअंदाज करना भी आसान नहीं था.
कुछ मौकों पर गंभीर खुद भी उस रेखा के करीब दिखे हैं. पत्रकारों से तीखी बहसें और स्प्लिट कोचिंग की बात पर एक आईपीएल टीम के को-ऑनर पर कसा गया सार्वजनिक तंज. इन सबने “हम बनाम वो' की छवि को मजबूत किया. एक बार उन्होंने याद दिलाया कि वो चैम्पियंस ट्रॉफी और एशिया कप जीतने वाले कोच हैं, जो भरोसा कम और प्रतिरोध ज्यादा लगा.
क्या गेंद कुछ कह रही है?
इस पृष्ठभूमि में, गंभीर के पास मौजूद क्रिकेट बॉल प्रतीकात्मक लगने लगती है, भले ही अनजाने में सही. एक सहारा. एक ठोस चीज. राय और शोर के बीच कुछ पकड़ में आने वाला. कोच अक्सर खुद को स्थिर रखने के लिए ऐसी आदतें अपनाते हैं. गंभीर के लिए शायद वह गेंद ही है. लेकिन प्रतीक अक्सर बिना बुलाए जुड़ जाते हैं. क्रिकेट बॉल सख्त होती है. माफ नहीं करती. उम्मीदों के आगे नहीं झुकती. सटीकता का इनाम देती है और हिचकिचाहट को सजा. गेंद आराम के लिए नहीं बनी. ये गुण शायद कुछ ज्यादा ही सटीक ढंग से गंभीर की कोच वाली छवि से मेल खाते हैं- समझौता न करने वाले, सीधे, मुलायम किनारों से दूर.
विडंबना यह है कि गंभीर के आसपास ज्यादातर बातें निर्देश नहीं, अनुमान हैं. उन्होंने अपनी छवि को नरम करने में खास दिलचस्पी नहीं दिखाई. हर वाक्य दर्शन या विवाद का सबूत मान लिया जाता है. हर चुप्पी में अर्थ ढूंढा जाता है. यह नहीं कहा जाए कि गंभीर आलोचना से ऊपर हैं. खासकर टेस्ट क्रिकेट में नतीजों ने सवाल खड़े किए हैं और इस स्तर पर लिए गए फैसलों पर सवाल होंगे ही. फर्क बस इतना है कि उनके दौर में व्याख्या की तीव्रता कहीं ज्यादा है, छोटे पल भी संदेश बन जाते हैं.
ऐसे समय में, जब कोचों से मैनेजर, कम्युनिकेटर, कूटनीतिज्ञ और ब्रांड संरक्षक होने की उम्मीद की जाती है, गंभीर अपने मूल स्वरूप में अडिग हैं. वो वैसे ही दिखते हैं. वैसे ही प्रतिक्रिया देते हैं और जब शोर बढ़ता है तो वो गेंद नीचे नहीं रखते.
अक्षय रमेश