अहमदाबाद के बाद अब बारी दिल्ली की... सोचा गया कि राजधानी में माहौल बदलेगा, दर्शकों की दिलचस्पी लौटेगी, पर नजारा लगभग वही निकला. फिरोजशाह कोटला (अब अरुण जेटली स्टेडियम) में टीम इंडिया मैदान पर है, सामने वेस्टइंडीज की टीम, लेकिन स्टैंड में गूंज की जगह लगभग सन्नाटा है. धूप से बचते एक झुंड की ओर कैमरे घूमते हैं, तो कुछ बच्चे झंडे लहराते दिखते हैं... पर भीड़ का जो जुनून कभी भारतीय क्रिकेट की पहचान था, वो कहीं गायब है.
क्या इसका मतलब ये है कि दिल्लीवालों को बड़े फॉर्मेट वाले क्रिकेट में दिलचस्पी नहीं?
बिल्कुल नहीं... कोटला में विराट का जलवा- भीड़ का सबूत
इसी साल के जनवरी का वो दिन याद करिए, जब विराट कोहली 13 साल बाद रणजी खेलने उतरे थे कोटला में. ना कोई इंटरनेशनल स्टारकास्ट, ना कोई ग्लैमरस टूर्नामेंट- बस घरेलू मैच! फिर भी स्टेडियम खचाखच भरा था. बाहर तक भीड़, सड़कों पर जाम, गेट पर अफरा-तफरी. लोग बस एक झलक के लिए उमड़े थे, क्योंकि वहां ‘कनेक्शन’ था, इमोशन था. इससे साफ है कि दिल्ली टेस्ट से नहीं, बेजान मैच से दूरी बना रही है. उसे चाहिए कहानी, मुकाबला, और वो जोश जो क्रिकेट की असली आत्मा हुआ करता था.
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दरअसल, इन दिनों वेस्टइंडीज की टीम भारत दौरे पर है. 2 अक्टूबर से अहमदाबाद में पहला टेस्ट खेला गया, जहां स्टेडियम में दर्शकों का इंतजार होता रहा और मैच तीसरे दिन ही खत्म हो गया. अब सीरीज का दूसरा और आखिरी टेस्ट दिल्ली में शुक्रवार से शुरू हुआ है. मगर यहां भी वही हाल है. बिखरे-बिखरे दर्शक.... और खाली खाली कोटला.
सिर्फ वेस्टइंडीज है कारण...?
वेस्टइंडीज का नाम कभी मैदान पर डर पैदा करता था. विव रिचर्ड्स, क्लाइव लॉयड, ब्रायन लारा, कर्टली एम्ब्रोज़, वाल्श, होल्डिंग… इन दिग्गजों की टीम को देखने के लिए दर्शक टिकट के लिए लाइन में खड़े रहते थे. आज वही टीम भारतीय गेंदबाजों के सामने संघर्ष करती दिखती है. न कोई करिश्मा, न कोई ‘X फैक्टर’.
टेस्ट क्रिकेट में जहां एक वक्त दोनों टीमों की टक्कर में कहानी बनती थी, अब एकतरफा नजारा है- जैसे मैच का नतीजा पहले से तय हो. यही ‘प्रीडिक्टेबिलिटी’ शायद दर्शकों की दिलचस्पी का सबसे बड़ा दुश्मन बन चुकी है. यानी साफ है वेस्टइंडीज का मैच देखने कौन जाए.
इससे भी नहीं इनकार
टेस्ट क्रिकेट हमेशा से ‘सच्चे क्रिकेट प्रेमियों’ का फॉर्मेट माना गया. पांच दिन का संघर्ष, रणनीति, सहनशक्ति और जज्बा- यही इसकी पहचान रही. लेकिन अब टी20 और फ्रेंचाइजी क्रिकेट के दौर में ‘क्विक एंटरटेनमेंट’ ही नया मंत्र बन चुका है. तीन घंटे में नतीजा चाहिए, चौके-छक्के चाहिए और जोश चाहिए. ऐसे में पांच दिन तक बॉल-बॉल की बारीकी देखने का धैर्य अब शायद कम होता जा रहा है.
क्या उम्मीद बाकी है?
उम्मीद हमेशा रहती है. भारत में क्रिकेट के लिए जज्बा खत्म नहीं हुआ, बस टेस्ट फॉर्मेट को नए जोश की जरूरत है. बड़े नाम, तीखे मुकाबले और शायद थोड़ा नया प्रेजेंटेशन- यही दर्शकों को खींच सकता है. टेस्ट क्रिकेट को बचाना है, तो बीसीसीआई और टीमों को यह समझना होगा कि यह अब सिर्फ परंपरा नहीं, बल्कि एक ऐसा ‘प्रोडक्ट’ है, जो तभी सफल होगा जब इसमें जोश, कहानी और दर्शकों से गहरा कनेक्शन महसूस हो.
विश्व मोहन मिश्र