जज साहब, ये तो बच्चा है...! अपराध की तरफ बढ़ रहे माइनर, इन 'बच्चों' के लिए नए रास्ते कैसे बनेंगे?

अब हरेक चीज का 'शो ऑफ' करने का चलन बन गया है. अपने 'किरदार' से ज्यादा हाथों में आई-फोन, ब्रांडेड कपड़े, रंग-बिरंगे बालों से लोगों की पहचान बन रही है. एक का दिखावा दूसरे की हीन भावना बन रहा. इसका टीनेजर्स पर ज्यादा असर पड़ता है, खासकर निम्न आयवर्ग के पर‍िवार के बच्चों पर. उनमें से कई ऐसे हैं, जो शॉर्ट कट अपनाकर अमीर होने से नहीं चूकते.

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कुछ 'बच्चे' क्यों सीख रहे हैं हथियार उठाना? (File Photo: ITG) कुछ 'बच्चे' क्यों सीख रहे हैं हथियार उठाना? (File Photo: ITG)

मानसी मिश्रा

  • नई दिल्ली ,
  • 18 दिसंबर 2025,
  • अपडेटेड 7:26 AM IST

चाकू-कट्टे-र‍िवॉल्वर...और भी डरावने लगते हैं अगर ये बच्चे के हाथ में हों. सोच‍िए, वो दौर कितना डरावना होगा जब बच्चे हथ‍ियार उठाकर क्राइम कर रहे हों. ये कोई डरावनी कल्पना नहीं है. कमोबेश हम उसी डरावने दौर में हैं जब हर दिन बच्चे खबरों की सुर्ख‍ियां बन रहे हैं. हिंदी मीड‍िया जिन्हें 'नाबालिग' और अंग्रेजी जिन्हें 'माइनर' कह रहा, ये सारे हैं तो बच्चे ही न...ये बच्चे कैसे अचानक अपराध की दुनिया में छा गए? कलम थामने की उम्र में रिवॉल्वर थाम रहे और स्कूल जाने की उम्र में जेल का रास्ता पकड़ रहे हैं. क्या यह समाज और स‍िस्टम फेल होने के संकेत हैं?

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दिल्ली-एनसीआर भर के डेटा की बात करें तो बीते दस दिनों में हुए बड़ी क्राइम की घटनाओं में दर्जन भर से ज्यादा आरोपी नाबाल‍िग बने. ये बदलता दौर बड़ा अजीब है. जब सोशल मीड‍िया पर किसी नामी अपराधी पर बनी रील पर लाखों की ग‍िनती में लाइक-व्यूज आते हैं, कमेंट पढ़कर लगता है जैसे वो कोई अपराधी न होकर किसी का'हीरो' हो. अब हीरो की बात हो रही है तो ओटीटी या स‍िनेमा में भी तो हीरो 'ग्रे' शेड वाला ही पसंद आ रहा है. वो हीरो जो हिंसक है, गाल‍ियां देता है मगर महंगी गाड़ी चलाता है, ब्रांडेड कपड़े-जूते पहनता है.

मैंने अपने 18 साल के पत्रकार‍िता करियर में क्राइम की कई कहान‍ियां सुनीं-देखीं या कवर कीं.लेकिन इन दिनों क्राइम का जो ट्रेंड बन रहा है, इससे डरावना समय कभी नहीं था. इसके पीछे की अगर वजहों की बात करें तो पहली उंगली तो जुवनाइल जस्ट‍िस सिस्टम की तरफ ही उठती है. ऐसा सिस्टम, जिसके कारण बड़े अपराधी बच्चों को श‍िकार बनाने से नहीं चूक रहे हैं. बड़े-बड़े अपराधी गैंग अच्छी तरह जानते हैं कि टीनेजर्स से सुपारी किल‍िंग जैसे अपराध कराना आसान है. नाबालिग को मार नहीं सकते, उन्हें टॉर्चर करके कबूलनामा नहीं कराएंगे. उन्हें ज्यादा दिन बाल सुधार गृह में भी नहीं रखा जा सकता. हत्या जैसे अपराधों में भी ये नाबालिग 5 से 6 महीने के भीतर छूट जाते हैं.

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कैसे अपराधी बन रहे 'हीरो'

इसका सबसे बड़ा उदाहरण निर्भया केस है जहां बाकी दुराचारियों को फांसी की सजा मिली लेकिन एक अपराधी छूट गया.जिसने सबसे जघन्य कृत्य किया वो जुवनाइल था और इसीलिए वो आज भी जिंदा है. ये ट्रेंड अचानक नहीं आया. छोटी उम्र में ही युवाओं को जरायम की तरफ खींचने के लिए अपराध‍ियों ने उन बच्चों को 'सपने' बेचे हैं, इसका प्लेटफॉर्म बना सोशल मीड‍िया. यहां लॉरेंस बिश्नोई, गोल्डी बराड़, नीरज बवाना, काला जठेड़ी और बॉक्सर दीपक जैसे अपराध‍ियों के सपोटर्स सक्र‍िय हैं. ऐसी कई रिपोर्ट्स आई हैं जिसमें सामने आ चुका है कि बड़े बड़े गैंग पुलिस को चुनौती देते हुए सोशल मीड‍िया से टीनेजर्स और युवाओं को र‍िक्रूट करते हैं.

ये तो सिर्फ एक स्ट्रेटजी हुई कि बच्चों को 'पावरफुल और हीरोइक' इमेज दिखाओ और अपने साथ शामिल करो. लेकिन इसका मनो वैज्ञान‍िक पहलू भी है. आज के रील युग में रियल दुनिया पीछे-सी छूट रही है. अब हरेक चीज का 'शो ऑफ' करने का चलन बन गया है. अपने 'किरदार' से ज्यादा हाथों में आई-फोन, ब्रांडेड कपड़े, रंग-बिरंगे बालों से लोगों की पहचान बन रही है. एक का दिखावा दूसरे की हीन भावना बन रहा. इसका टीनेजर्स पर ज्यादा असर पड़ता है, खासकर निम्न आयवर्ग के पर‍िवार के बच्चों पर. उनमें से कई ऐसे हैं जो शॉर्ट कट अपनाकर अमीर होने से नहीं चूकते. उनके लिए जरायम का रास्ता सबसे आसान होता है. तभी तो ऐसी खबरें भी सामने आई हैं जिनमें सिर्फ एक जोड़ी जूते या दो जोड़ी ब्रांडेड कपड़ों या आईफोन के ख‍ातिर भी नाबाल‍िग ने अपराध कर दिया.

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क्या कहता है ह‍िंसा का मनोव‍िज्ञान

वैसे तो हिंसा-खून खराबा करना आसान नहीं, लेकिन हम कहीं न कहीं एनिमल कलेक्टिव ही तो हैं. सिविलाइज्ड होने के बावजूद, होमोसेपियंस की मूल प्रवृत्ति में हिंसा छिपी है और अब इसे ग्लोरिफाई किया जा रहा है. मेरे अनुभव में, कई बार ऐसे केस देखे जहां बच्चे हिंसक फिल्मों या क्राइम वेब सीरीज से प्रेरित होकर अपराध कर बैठे. क्राइम स्टेटिस्टिक्स भी यही कहते हैं कि नाबालिगों की भूमिका अपराधों में बढ़ रही है, और ये सिर्फ दिल्ली की समस्या नहीं, पूरे देश की है.

क्राइम के इस नये और शॉर्ट रास्ते से उन्हें पैसा तो मिलता ही है, साथ ही समाज में उपेक्षा के बजाय वैल‍िडेशन भी मिलने लगता है. वैसे भी आजकल जिस समाज का हीरो 'हिंसक' है, उस समाज में ऐसे बाल अपराध‍ियों को इज्जत मिलना बड़ी बात नहीं है. इनसे प्रेरित होकर हाश‍िये पर जिंदगी जी रहे पर‍िवारों के दूसरे बच्चे भी आसानी से वही राह पकड़  लेते हैं.

दिल्ली में ये बच्चे ज्यादातर मंगोलपुरी, त्रिलोकपुरी जैसे निम्न आय वर्ग वाले इलाकों के होते हैं. शिक्षा की कमी और पैसों का लालच उन्हें आसानी से फंसा लेता है. छोटी उम्र में उन्हें इतनी समझ नहीं होती, ऐसे में गैंग या कोई बड़ा अपराधी ही उनसे जुर्म करवाता है, पहले छोटे-छोटे लालच देता है. एक गरीब पर‍िवार के बच्चे को मान लीजिए, कोई कहता है कि जेब मैं काटूंगा तुम साथ रहो, डेली 1000 रुपये मिलेंगे. बच्चा ऐसे में फंस जाता है. यही बच्चे हजार-दो हजार के लिए क्राइम कर बैठते हैं. इन्हें बस एक फोटो दी जाती है कि 'इन्हें मारना है', और ये 'भाई' से इतने इंस्पायर्ड होते हैं कि सोचते तक नहीं. ऐसा रेयरली होता है कि ये बच्चे अपनी दुश्मनी के लिए क्राइम करें, ये पूरी तरह गाइडेड क्राइम कर रहे हैं.

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उठाने होंगे सख्त कदम 

ये हालात डराने वाले हैं ये और खराब हों, इससे पहले हमें सोचना होगा. अब जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में र‍िफॉर्म होना चाहिए जहां माइनर्स के क्राइम के ख‍िलाफ सख्त एक्शन, लंबी सजाएं और रिहैबिलिटेशन पर फोकस हो. श‍िक्षा व्यवस्था को सुधारा जाए और सोशल मीडिया पर सख्त निगरानी जैसे कदम उठाने होंगे. जवानी की दहलीज में कदम रखने से पहले ही जरायम के अंधे कुएं में इन्हें कूदने से बचाना होगा.

साथ ही वो दौर हमें फिर से वापस लेना होगा जहां झूठ बोलना तक पाप होता रहा है. बच्चों को दादी-नानी के किस्सों से अपने हीरो मिलते थे, वो हीरो जो बहादुर तो होते ही थे, साथ में बहुत ईमानदार, सहनशील और सहृदयी होते थे. बुद्ध की इस धरती में उनका 'अहिंसा परमोधर्म:' का पाठ फिर से दोहराना होगा. यहां खून की नदियां बहाने वालों को हीरो नहीं विलेन ही बनना होगा. अब जमाना सोशल मीड‍िया का है तो समाज के बौद्ध‍िक लोगों के ऐसे कंटेंट प्रमोट होने चाहिए, जहां वो टीनेजर्स तक सीधे-सीधे अपने मैसेज पहुंचा सकें.

नये आदर्श से लेकर नई सोच तक...

इस सुधार के लिए सरकार के साथ-साथ समाज और श‍िक्षा की पूरी मशीनरी का भी बड़ा रोल है. सरकारी स्कूलों में आधुन‍िक टेक्नोलॉजी के साथ-साथ पाठ्यक्रमों में नये और आधुन‍िक युग के ऐसे 'आदर्श' उदाहरण देने होंगे जिनकी सफलता के पैमाने अलग हों. उन्होंने कितना पैसा कमाया के बजाय उनकी सफलता उनके त्याग, समाज के लिए उनके योगदान पर आधार‍ित हो. समाज के तौर पर हमें माता-प‍िता से लेकर हर रोल में तड़क-भड़क वाली जीवनशैली को मह‍िमामंड‍ित करने से बचना होगा. सोच के स्तर पर बदलाव लाकर ही हम अपनी आने वाली युवा पीढ़ी को एक बेहतर इंसान बना सकेंगे. 

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