पिछले हफ्ते देश की पसंदीदा किफायती, बिना तामझाम वाली, 'हां-हम-हर-चीज-के-पैसे-लेंगे' वाली एयरलाइन को अचानक एहसास हुआ कि उसके पायलट और क्रू, जैसा कि एविएशन रेगुलेटर ने कहा, इंसान हैं जिन्हें नींद की जरूरत होती है. DGCA (Directorate General of Civil Aviation) ने IndiGo को उस नियम की याद दिलाई और उसे मानने के लिए 18 महीने की मोहलत दी गई थी कि पायलटों को उचित आराम चाहिए. इंडिगो ने उदासीनता दिखाई और खानापूर्ति के लिए कुछ प्रेस रिलीज जारी कर दिए.
और इसी के साथ, हजारों उड़ानें रद्द हुईं, लाखों यात्री फंस गए. हर एयरपोर्ट पर भारी अफरा-तफरी मच गई. भारत की कभी न फेल हो सकने वाली (Too Big to Fail) एयरलाइन इतनी बड़ी निकली कि उड़ ही नहीं पाई.
पिछला हफ्ता सिर्फ उड़ान रद्द होने का नहीं था. ये वो पल था जब 15 साल से चुपचाप उबल रहे प्रेशर कुकर ने आखिरकार सीटी मारी. इंडिगो ने भारत के हर मिडिल क्लास पैसेंजर को ऐसा जख्म दिया जो भरा नहीं.
दुनिया भर में बजट एयरलाइनों को अपना मुनाफा बनाए रखने के लिए कई कटौतियां करनी पड़ती हैं. भारतीय जानते थे कि इसका मतलब है बिना तामझाम के सिर्फ जरूरी चीजों से लैस एयरलाइंस. इंडिगो के आने से पहले लोग अपने बजट में उड़ान भरने का स्वाद ले चुके थे. Air Deccan ने देश को उड़ना सिखाया. इंडिगो तब आया जब किफायती एयरलाइंस बंद होने की कगार पर थीं.
लेकिन इंडिगो के पास एक तुरुप का पत्ता था- बिना किसी तामझाम वाली उड़ान और हर जरूरी चीज के पैसे अलग से. साथ ही यह समझ कि बजट एयरलाइन को सस्ता होना जरूरी नहीं. बेस किराया कम रखो, डायनेमिक प्राइसिंग बढ़ने दो, और टिकट खरीद लेने के बाद हर चीज के पैसे वसूलो.
तो, आपका टिकट आपको सीट भी नहीं देता. सीट चाहिए? उसके पैसे दो, और कीमत इस पर निर्भर होगी कि आपको कहां बैठना है. और इसी के साथ ही शिकायतें भी बढ़ती गईं- चेक-इन काउंटर पर हंगामा, सोशल मीडिया पर लोगों का गुस्सा जाहिर करना.
हमने सब सहा. साल दर साल सहा. हमने वो कम लेगरूम भी चुपचाप झेल लिया, जिसे देखकर योगा सिखाने वाले को भी नए-नए आसन के ख्याल आने लगे. हमने 100 रुपये की पानी की बोतल और 450 रुपये का 'प्री-बुक मील' सहा, जो 70 रुपये की गुलाटी की कैंटीन थाली जैसा लगता था.
हमने 500 रुपये का 'एयरपोर्ट चेक-इन फी' सहा क्योंकि शायद एयरपोर्ट पहुंचना अब विलासिता हो गई थी. हमने ये सहा जब उन्होंने फ्लाइट कैंसिल कर दी और सुबह 4 बजे एक SMS भेज दिया- 'ऑपरेशनल वजहों से फ्लाइट कैंसिल होने को लेकर हमें खेद है.'
हमने तब भी चुप्पी साध ली जब 18 घंटे बाद वाली फ्लाइट में हमारी रीबुकिंग कर दी गई, और चेहरे पर बिना शिकन लाए हमसे बोल दिया गया- 'इस वक्त होटल नहीं मिलेगा सर, देरी मौसम की वजह से नहीं है.'
हमने वो भी सह लिया जब कस्टमर केयर ने 15 मिनट होल्ड पर रखा और बार-बार वही जिंगल बजाया- 'IndiGo, India’s most punctual airline!'
हमने सहा, क्योंकि हमारे पास कोई और चारा नहीं था. इंडिगो के पास 60% मार्केट शेयर और उसके साथ आने वाला अहंकार था. इसलिए जब पिछले हफ्ते हजारों उड़ानें रद्द हुईं क्योंकि, सरप्राइज! पायलटों को नींद चाहिए होती है, तो यह सिर्फ असुविधा नहीं थी, यह आत्मशुद्धि जैसा था. व्हाट्सऐप ग्रुप फट पड़े. मीम्स की बाढ़ आ गई. जो लोग आम दिनों में कंपनियों की वकालत करते नहीं थकते थे, वो भी इस बार कैंसल बोर्डिंग पास हाथ में लेकर ‘चे ग्वेरा’ बन गए.
ये गुस्सा एक हफ्ते की टेंशन का नहीं था. ये पंद्रह साल से जमा हुई भड़ास थी, जिसे आखिरकार बाहर निकलने का मौका मिल गया.
केबिन क्रू की वो बार-बार कही जाने वाली बात कि- 'माफ कीजिए, टेक्निकल इश्यू है'...सारी यादें वापस ताजा हो गईं. हर बार 45°C की गर्मी में रनवे पर खड़ी बस में हम पिघलते रहे क्योंकि रिमोट बेस से पैसे बचते हैं, हर बार जब 40 मिनट की फ्लाइट के लिए 12,000 रुपये दिए और सीट के नाम पर मिला प्लास्टिक का टुकड़ा... सब याद आ गया.
हम सिर्फ इस बात पर गुस्सा नहीं हैं कि इंडिगो ने 18 महीने का समय मिलने के बाद भी नियमों की प्लानिंग नहीं की. हम गुस्सा इसलिए हैं क्योंकि उन्होंने कभी हमें दिखाने का भी सम्मान नहीं दिया.
और फिर वही पुरानी कहानी- जैसे कोई टॉक्सिक एक्स जिसे सब माफ कर देते हैं, इंडिगो मुस्कुराया, दो फोन किए, और फरवरी तक उसे नई छूट मिल गई. पायलट थके हुए फ्लाइट उड़ाते रहेंगे.
यात्री सब कुछ चुपचाप सहते रहेंगे. और प्रेशर कुकर? फिर से चूल्हे पर रख दिया गया है.
'सेफ्टी फर्स्ट' अब दूसरे नंबर पर है क्योंकि पहले उड़ान भरना जरूरी है. स्पाइसजेट तो अभी किसी हैंगर के कोने में बैठकर हंस रहा होगा, जहां वो छिपा बैठा है. एयर इंडिया हंस भी नहीं सकती, उसका अपना खुद का कुछ अता-पता नहीं है. अकासा तो अभी बच्चा है- बाकी क्षेत्रीय चूजों की तरह.
चलो एक सेकंड के लिए ईमानदार हो जाते हैं (डरिए मत, ऐसा दोबारा नहीं होगा). भारत में एयरलाइंस चलाना रूसी रूलेट खेलने जैसा है- और रिवॉल्वर में पांच गोलियां पहले ही भरी हों. फ्लाइट के ईंधन की कीमतें? इंटरनेशनल लेवल का दर्द. टैक्स? खाल उतार लेने वाला. एयरपोर्ट? ऐसे लोगों के भरोसे जो सोचते हैं कि 'पैसेंजर एक्सपीरियंस' मतलब पैसेंजर खुद जाकर अनुभव कर ले.
लगभग हर भारतीय एयरलाइन ने पैसा ऐसे बहाया है जैसे कल से ये फैशन बंद होने वाला हो. विजय माल्या ने अपने पिता की कमाई उड़ाई, फिर बैंक से उधार लेकर भी पैसे डुबोए ताकि किंगफिशर किसी तरह उड़ती रहे. आज वो देश से बाहर भागे बैठे हैं. दमनिया, डेक्कन, जेट, सहारा- सब ऊंचे उड़कर नीचे गिरे और बेसहारा निकल गए.
सिवाय इंडिगो के. उन्होंने गेम समझ लिया: पैसेंजर्स को एक्सेल शीट की लाइनों की तरह ट्रीट करो, पायलट्स को उबर ड्राइवर समझो, और रेग्युलेटर्स को थार के नीचे आने वाले स्पीड ब्रेकर.
अब जब पायलट्स को रेगुलर ऑफ-डे देना इंडिगो के प्रॉफिट्स काटेगा, तो मेरे पास कुछ धांसू आइडियाज हैं ताकि इंडिगो की कमाई पहले जैसी चमकती रहे:
ये सब जरूरी ही नहीं, क्रिटिकल सर्विसेज हैं. सिर्फ बहादुर यात्री ही इन्हें नहीं लेने का रिस्क लेंगे. बाकी लोग मजबूरी में दे ही देंगे. तो भाई, रेवेन्यू के नए रास्ते निकालो और पायलट्स को थोड़ा आराम दे दो. है न कमाल के आइडिया?
(कमलेश सिंह- स्तंभकार और व्यंग्यकार, लोकप्रिय 'तीन ताल' पॉडकास्ट के ताऊ)
कमलेश सिंह