फटाफट तलाक कितना सही? म्युचुअल डाइवोर्स में 'कूलिंग-ऑफ' पीर‍ियड में छूट से क्या बदलेगा

वैसे 'फटाफट तलाक' उन्हें अच्छी खबर लग सकती है जो किसी टॉक्स‍िक र‍िश्ते में इस कदर घुल रहे हैं कि वो जल्द से जल्द आजाद होना चाहते हैं. उनके लिए पहले एक साल अलग रहकर फिर छह महीने का कूल‍िंग ऑफ पीरियड वक्त की बर्बादी ही लगेगा. रोज-रोज की घरेलू कलह से मुक्त होने की चाहत रखने वाले या बच्चों वाले कपल जो नहीं चाहते कि बच्चे कोर्ट-कचहरी की दौड़ से प्रभाव‍ित हों.

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 तलाक लेने के लिए पति पत्नी को एक साल तक अलग रहने की शर्त अनिवार्य नहीं तलाक लेने के लिए पति पत्नी को एक साल तक अलग रहने की शर्त अनिवार्य नहीं

मानसी मिश्रा

  • नई दिल्ली ,
  • 19 दिसंबर 2025,
  • अपडेटेड 4:36 PM IST

शादी... दो दिलों का पवित्र बंधन, ये रिश्ता जीवन को नये मायने देता है. इसके उलट तलाक उतना ही दुखदायी और दिल तोड़ने वाला शब्द लगता है. भारत में तो फैमिली कोर्ट की फाइलों में यही रिश्ता अक्सर एक लंबा, थकाने वाला कानूनी संघर्ष बन जाता है. अब जब बीते कुछ सालों से सुप्रीम कोर्ट ने अपना रुख काफी बदला है. वहीं 17 दिसंबर को दिल्ली हाई कोर्ट ने तलाक की प्रक्रिया को और भी स्पष्ट किया है. आइए जानते हैं- ये नया बदलाव क्या है और इसका कोर्ट, वादी-प्रतिवादी से लेकर समाज पर कैसा असर पड़ सकता है.

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सबसे पहले आपको बता दें कि तलाक के लिए वैसे तो कई कानूनी आधार हैं. उनमें से म्यूचुअल कंसेंट डिवोर्स ऐसा तरीका है जिसमें दोनों पक्ष आपसी सहमति से तलाक चाहते हैं. हिंदू मैरिज एक्ट 1955 की सेक्शन 13B(2) में म्यूचुअल कंसेंट डिवोर्स का प्रावधान दिया गया है. इसमें एक साल से 'अलग-अलग' रह रहा कपल पहले मोशन में तलाक की अर्जी देता है. एक साल अलग रहने की पहली शर्त यानी पहले मोशन के बाद 6 महीने का कूलिंग ऑफ पीरियड दिया जाता है. जिसमें माना जाता है कि दोनों पक्ष क्या पता सुलह ही कर लें. दोनों का किसी गुस्से में आकर लिया गया फैसला होगा तो वो इस पर सोचकर आएंगे.

इस छह महीने के पीर‍ियड को लेकर ऐसा देखने में आया कि कोर्ट में आई कई पार्टीज इसे बोझ मानती थीं. फिर सुप्रीम कोर्ट ने 2017 से इसे नॉन-मैंडेटरी करार दिया. सुप्रीम कोर्ट ने अमरदीप सिंह बनाम हरवीन कौर (2017) 8 SCC 746 में रूल किया कि सेक्शन 13बी(2) का 6 महीने का पीरियड मैंडेटरी नहीं बल्कि डायरेक्टरी है. अगर कोर्ट को लगता है कि शादी पूरी तरह टूट चुकी है, दोनों के बीच अब रेकॉन्सिलिएशन यानी सुलह या साथ रहने की कोई गुंजाइश नहीं बची है. पार्टियां सेटलमेंट पर पहुंच चुकी हैं. ऐसे मामलों में 6 महीने का पीरियड वेव (माफ) किया जा सकता है. ये आर्टिकल 142 के तहत कोर्ट की पावर से संभव है.

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अब 17 दिसंबर को दिल्ली हाई कोर्ट ने शिक्षा कुमारी बनाम संतोष कुमार केस में क्लैरिफाई किया कि आपसी सहमति से तलाक लेने वाले पति-पत्नी के लिए एक साल तक अलग रहने की शर्त अनिवार्य नहीं है. कोर्ट ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम-1955 के तहत तय की गई इस शर्त को अगर दोनों पार्टीज सहमत हैं तो ये पीर‍ियड वेव किया जा सकता है.

इससे साफ है कि कोर्ट्स का रुख प्रोसेस में जो एक साल और फिर छह महीने का कूल‍िंग ऑफ यानी कुल डेढ़ साल का समय लग रहा था, उसे कम से कम करने की ओर है. उदाहरण के तौर पर अगर कोई पति-पत्नी आपसी सहमति से तलाक के लिए कोर्ट जाते हैं और कहते हैं कि उन्होंने बच्चों की कस्टडी या एलमनी को लेकर बातचीत कर ली है. कोर्ट इसे पुख्ता कर लेती है तो तलाक में बहुत ज्यादा वक्त नहीं लगने वाला. सिर्फ कुछ महीने या कुछ केसेज में एकाध हफ्ते में भी तलाक हो सकता है.

वैसे 'फटाफट तलाक' उन्हें अच्छी खबर लग सकती है जो किसी टॉक्स‍िक र‍िश्ते में इस कदर घुल रहे हैं कि वो जल्द से जल्द आजाद होना चाहते हैं. उनके लिए पहले एक साल अलग रहकर फिर छह महीने का कूल‍िंग ऑफ पीर‍ियड वक्त की बर्बादी ही लगेगा. रोज-रोज की घरेलू कलह से मुक्त होने की चाहत रखने वाले या बच्चों वाले कपल जो नहीं चाहते कि बच्चे कोर्ट-कचहरी की दौड़ से प्रभाव‍ित हों, उनके लिए भी ये प्रोसेस राहत की बात है. वो तलाक लेकर अपनी जिंदगी का दूसरा अध्याय आसानी से जल्द शुरू कर सकते हैं. कई जज खुद मानते हैं कि ऐसे मामलों में कोर्ट सिर्फ समय काटने की जगह बन जाती है.

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तमाम अच्छे पहलू होने के बावजूद इसके दूसरे पहलुओं को नजरंदाज नहीं किया जा सकता. मसलन- तलाक इतना आसान होगा तो तलाक के केसेज भी बढ़ सकते हैं. NJDG डेटा के मुताबिक अदालतों में कुल पेंडिंग केस 5 करोड़ से ज्यादा हैं, जिनमें मैट्रिमोनियल (तलाक से जुड़े) केस लाखों में हैं. अब इसके और बढ़ने की उम्मीद है. कुछ अनुमानों के मुताबिक देश में रोजाना करीब 100 तलाक केस फाइल होते हैं (म्यूचुअल कंसेंट सहित). अर्बन एरियाज में डिवोर्स रेट या केस फाइलिंग में हाल के सालों में उल्लेखनीय बढ़ोतरी (कुछ रिपोर्ट्स में 30-40% तक) देखी गई है. अब अगर कोई पार्टी तलाक की प्रक्रिया में बाद में कंसेंट विड्रॉ करती है तो न सिर्फ प्रोसेस कठिन होगा बल्कि कोर्ट लोड भी बढ़ेगा.

इसका दूसरा नकारात्मक पक्ष ये भी है कि अक्सर युवा कपल में इमोशंस हाई होते हैं. कूल‍िंग ऑफ में उनमें सुलह की गुंजाइश रहती है. ऐसा भी देखा गया है कि कभी पर‍िवार के दखल से या एक दूसरे से कुछ महीने दूरी बनाने से भी पति-पत्नी फिर से सुलह कर लेते हैं. लेकिन अगर ये फर्स्ट मोशन यानी एक साल और छह महीने का कूलिंग-ऑफ पीर‍ियड वो खत्म करा लेते हैं तो बहुत उम्मीद है कि कई शादियां गुस्से, खीझ और स‍िचुएशंस की बल‍ि चढ़ सकती हैं? ऐसे में अदालतों की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है कि वो ऐसे केसेज को कैसे डील करती हैं? हम समाज के तौर पर बदलने को तैयार हैं, पर सवाल ये भी है कि तलाक के इस स्ट‍िग्मा को भी क्या हम पूरी तरह अपना पाएंगे? अर्बन एरिया में जहां पति-पत्नी दोनों ही फाइनेंशिली इंड‍िप‍िंडेंट हैं, क्या वहां तलाक एक चलन नहीं बनने लगेगा?

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