हाल के वर्षों में देश में जितने भी चुनाव हुए हैं उन्हें देखकर ऐसा लगता रहा है कि अब देश की राजनीति ओबीसी समुदाय के हाथ में है. दक्षिण में तो गैर सवर्ण राजनीति कई दशक पहले शुरू हो गया था पर नॉर्थ में रीजनल पार्टियों के उदय के साथ पिछड़ा वर्ग का प्रभुत्व बढ़ता गया. अब तो उत्तर भारत में होने वाले विधानसभा चुनावों या लोकसभा चुनावों के दौरान टिकट वितरण इस बात के गवाह होते हैं कि देश की राजनीति में सवर्णों का प्रतिशत उनकी संख्या के अनुपात में होता जा रहा है. पर देश की राजधानी दिल्ली में ऐसा नहीं है. यहां 2020 की विधानसभा में करीब 50 प्रतिशत सवर्ण थे तो 2025 में भी टिकट वितरण को आधार माने तो सबसे अधिक विधायक इस वर्ग के ही चुनकर आने वाले हैं. इसका कारण क्या हो सकता है? कुछ लोगों का कहना है कि आधुनिकता, शहरीकरण और साक्षरता इसका कारण हो सकते हैं. पर ऐसा नहीं है. इसके पीछे और भी कई कारण हैं, जो हमें आसानी से दिखाई नहीं देते हैं.
1- सवर्ण जातियों का अनुपात
देश के अन्य हिस्सों के मुकाबले अगर देखें तो दिल्ली में उच्च जातियों की कुल जनसंख्या में अनुपात ठीक ठाक है. पर इतना भी नहीं है कि सीधे सीधे वो सत्ता में आने का उन्हें लाइसेंस मिल जाए. विभिन्न राजनीतिक दलों और मीडिया रिपोर्ट्स को आधार मानकर देखें तो करीब 35% दिल्ली में सवर्ण जातियों की संख्या है. इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में ब्राह्मण 13% हैं, उसके बाद राजपूत (8%), वैश्य (7%), पंजाबी खत्री (5%), और अन्य सामान्य जातियां आती हैं. दिल्ली में अन्य पिछड़ी जातियों में और जाट और गुर्जर जैसे मध्यवर्ती जातियों की संख्या भी अच्छी खासी है. ये दोनों जातियां राजनीतिक रूप से जागरूक भी हैं. और चुनाव लड़ने और लड़ाने की ताकत भी इन जातियों के पास खूब है.
दिल्ली में ओबीसी मतदाताओं का हिस्सा करीब 30% बनाता हैं. इनमें, जाट और गुर्जर सबसे बड़े समूह हैं. जो लगभग आधे ओबीसी मतदाताओं का हिस्सा हैं. उसके बाद यादव जैसी अन्य जातियां आती हैं. दलित दिल्ली की आबादी का 16% से अधिक बनाते हैं जबकि मुस्लिम लगभग 13% और सिख 3.5% हैं. इस तरह ओबीसी, दलित, मुसलमान और सिख मिलकर करीब 63 से 65 प्रतिशत तक हो जाते हैं. यानि कि दिल्ली में भी यूपी और बिहार और अन्य प्रदेशों की तरह दलित-पिछड़े, मुस्लिम आदि का एक पीडीए वोट बैंक तैयार किया जा सकता है.पर दिल्ली में ऐसा नहीं हो सका है. इसका कारण और है.
2- जाति निरपेक्ष राजनीति में सवर्णों का दबदबा
ऐसा नहीं है कि दिल्ली में शहरीकरण और साक्षरता के चलते जाति के आधार पर वोट नहीं पड़ते हैं. यह समझना गलतफहमी ही है कि दिल्ली में जातिवाद नहीं चलता है. दिल्ली में भी जाट , गुर्जर , ब्राह्मण, पंजाबी, सिख, मुसलमान कार्ड खूब चलता है.पिछले चुनावों में चुने गए विधायकों और 5 फरवरी के विधानसभा चुनावों में प्रत्याशियों की जाति पर एक नज़र डालने से पता चलता है कि जाति का प्रभाव अब भी है. पर दिल्ली में राजनीति करने वाला कोई पिछड़ा नेतृत्व सामने नहीं आ सका.
और जब पार्टियां जाति-निर्पेक्ष राजनीति करने का दावा करती हैं, तो प्रतिनिधित्व मुख्य रूप से उच्च जाति या प्रमुख जातियों का हो जाता है. अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में दिल्ली में आम आदमी पार्टी का गठन हुआ . केजरीवाल वैश्य जाति से आते हैं. इसलिए अगर वो जाति की राजनीति करेंगे तो कभी सफल नहीं होंगे. शायद यही कारण रहा कि उन्होंने जाति निरपेक्ष राजनीति की शुरूआत की.
3- किस पार्टी में सवर्ण जाति के कितने उम्मीदवार
दिल्ली की राजनीति में विधायकों की जाति का सर्वे किया जाए तो सवर्ण सबसे सफल जाति मानी जाएगी. वर्तमान दिल्ली विधानसभा में, सभी विधायकों में से 50% उच्च जातियों से हैं. आप के सभी विधायकों में से 40% इन समुदायों से हैं, जबकि सात भाजपा विधायकों में से छह उच्च जातियों से हैं.आगामी विधानसभा चुनावों में भी यही हाल है. भाजपा और उसके सहयोगियों द्वारा उतारे गए सभी उम्मीदवारों में से 45% उच्च जातियों से हैं. 48% पर, आम आदमी पार्टी (आप) ने भाजपा से भी अधिक उच्च जाति के उम्मीदवारों को टिकट दिया है. केवल कांग्रेस ने ही 35% पर उच्च जातियों के प्रतिनिधित्व को उनकी जनसंख्या में हिस्सेदारी के अनुपात में रखा है.
4-जाट और गुर्जर प्रतिनिधित्व में आश्चर्यजनक गिरावट
हम कई सालों से देख रहे हैं कि दिल्ली विश्वविद्यालय के आस पास सबसे अधिक बैनर पोस्टर जाट और गुर्जर समुदाय के युवा छात्र नेताओं के दिखते हैं. छात्र यूनियन के चुनावों में अधिकतर उन्हें ही सफलता भी मिलती है. पर ठीक इसके विपरीत इन दोनों समुदायों का विधानसभा में रिप्रजेंटेशन लगातार घट रहा है. एक्सप्रेस की रिपोर्ट की माने तो जाट और गुर्जर प्रतिनिधित्व 2008 से 2020 के बीच 19% से 13% और 11% से 6% क्रमशः गिरा है. कोई तर्क दे सकता है कि ये दोनों समुदाय अतीत में अधिक प्रतिनिधित्व में थे और उनका गिरता हुआ प्रतिनिधित्व दिल्ली की सामाजिक-राजनीति में उनकी घटती प्रभावशीलता के कारण एक चुनावी सुधार है. तीनों प्रमुख पार्टियों के टिकट वितरण में भी दिखता है कि इन दोनों समुदायों का दबदबा कम हुआ है.भाजपा ने अपने सभी टिकटों में से 14% जाटों को दिए हैं, जो कांग्रेस (14%) के बराबर है, उसके बाद आप 11% पर है. गुर्जरों को भाजपा और आप के 9% टिकट मिले हैं और कांग्रेस के 11% टिकट. कुल मिलाकर, कांग्रेस ने ओबीसी और मध्यवर्ती जातियों को सबसे अधिक टिकट (30%) दिए हैं, जो दिल्ली में उनकी कुल जनसंख्या को दर्शाता है. आप ने इन जाति समूहों को 25% टिकट दिए हैं जबकि भाजपा ने इन्हें अपने 20% टिकट दिए हैं.
संयम श्रीवास्तव