नई राजनीति का इशारा... राहुल गांधी का जाति जनगणना कार्ड बीजेपी ने किया टेकओवर

पिछले दो साल से अधिक समय से राहुल गांधी के भाषणों में जाति जनगणना की मांग एक प्रमुख मुद्दा रही है. 2024 के लोकसभा चुनावों में इस मांग को आंशिक सफलता मिली, जब कांग्रेस ने बीजेपी को बैकफुट पर धकेल दिया और यह जताने में कामयाब रही कि बीजेपी जाति के आधार पर भारतीयों की गिनती करने के विचार से बहुत उत्साहित नहीं है.

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केंद्रीय मंत्रिमंडल ने दी है जातिगत जनगणना को मंजूरी केंद्रीय मंत्रिमंडल ने दी है जातिगत जनगणना को मंजूरी

विकास पोरवाल

  • नई दिल्ली,
  • 01 मई 2025,
  • अपडेटेड 9:19 PM IST

एक तरफ आतंकवाद को दूसरी ओर जाति की सियासत. सरहद के तनाव पर एक निगाह तो दूसरी निगाह में इस साल के अंत में होने वाले बिहार का चुनाव. एलओसी पर बढ़ते तनाव के बीच, बुधवार को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने आगामी जनगणना में जाति गणना को शामिल करने पर विचार-विमर्श किया और यह फैसला तब लिया गया, जब कुछ लोग पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक की उम्मीद कर रहे थे. हालांकि सरकार का लिया यह फैसला कांग्रेस पर सियासी सर्जिकल स्ट्राइक के रूप में पेश किया गया, क्योंकि कांग्रेस लंबे समय से जाति जनगणना की मांग करती रही है.

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कांग्रेस ने लिया श्रेय, बीजेपी पर निशाना
कांग्रेस ने इस फैसले का श्रेय लेने में देर नहीं की. तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी के कार्यालय से एक वीडियो पोस्ट जारी किया गया, जिसमें दावा किया गया, “राहुल गांधी प्रस्ताव रखते हैं, रेवंत रेड्डी लागू करते हैं, नरेंद्र मोदी उसका अनुसरण करते हैं.” यह पोस्ट तेलंगाना में इस साल की शुरुआत में हुई जाति सर्वेक्षण की ओर इशारा करता है. रेड्डी ने गर्व के साथ कहा कि ''राहुल गांधी का विजन अब सत्ता पक्ष की भी नीति बन गया है.'' कांग्रेस ने यह जताने की कोशिश की कि अगर राहुल गांधी और कांग्रेस की ओर से लगातार दबाव न बनाया गया होता, तो बीजेपी कभी भी जनगणना में जाति का कॉलम शामिल करने के लिए सहमत नहीं होती. गौरतलब है कि 2011 तक जनगणना में केवल यह पूछा जाता था कि व्यक्ति अनुसूचित जाति (एससी) या अनुसूचित जनजाति (एसटी) से है या नहीं, अन्य जातियों का विवरण शामिल नहीं किया जाता था.

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पिछले दो साल से अधिक समय से राहुल गांधी के भाषणों में जाति जनगणना की मांग एक प्रमुख मुद्दा रही है. 2024 के लोकसभा चुनावों में इस मांग को आंशिक सफलता मिली, जब कांग्रेस ने बीजेपी को बैकफुट पर धकेल दिया और यह जताने में कामयाब रही कि बीजेपी जाति के आधार पर भारतीयों की गिनती करने के विचार से बहुत उत्साहित नहीं है. केंद्रीय परिवहन मंत्री और वरिष्ठ बीजेपी नेता नितिन गडकरी ने मार्च 2024 में एक दीक्षांत समारोह में कहा था, “जो करेगा जात की बात, उसको मारूंगा लात.” 


बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व का अलग रुख

हालांकि, गडकरी का यह बयान बीजेपी के शीर्ष दो नेताओं के विचारों से मेल नहीं खाता था. राहुल गांधी ने भारतीय नौकरशाही के शीर्ष निर्णय लेने वाले स्तरों में हाशिए पर पड़ी जातियों के कम प्रतिनिधित्व पर लगातार हमला बोला, जिसका 2024 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा. ‘जितनी आबादी, उतना हक’ का नारा और बीजेपी की कथित आरक्षण खत्म करने की मंशा के आरोप ने मतदाताओं के ईवीएम बूथ में फैसले को प्रभावित किया. नतीजतन, बीजेपी 272 के बहुमत के आंकड़े से करीब 30 सीटें पीछे रह गई, जबकि कांग्रेस ने अपनी सीटें 47 से बढ़ाकर 99 कर लीं. बीजेपी के लिए सबसे चिंताजनक उत्तर प्रदेश का प्रदर्शन रहा, जहां उसकी सीटें 64 से घटकर 36 रह गईं, जबकि विपक्ष की ताकत 16 से बढ़कर 43 हो गई.

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राहुल गांधी का नया अवतार
जाति जनगणना के मुद्दे को गंभीरता से अपनाकर राहुल गांधी ने खुद को अपने पिता, पूर्व पीएम राजीव गांधी और कांग्रेस के पूर्व प्रधानमंत्रियों से अलग दिखाने की कोशिश की. उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश की कि वह केवल बातें करने वाले नेता नहीं हैं, बल्कि वह अपनी बातों पर अमल भी करते हैं. इसके प्रमाण के तौर पर उन्होंने बिहार में कांग्रेस की साझेदारी वाली सरकार (नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के साथ) के दौरान हुए जाति सर्वेक्षण का हवाला दिया. कर्नाटक में एक दशक पहले हुए जाति सर्वेक्षण को फिर से सामने लाया गया. तेलंगाना का जाति सर्वेक्षण चर्चा का विषय बन गया. तथाकथित अगड़ी जातियों के राजनीतिक दबाव के बावजूद, कांग्रेस ने देश में आरक्षण की 50 प्रतिशत की सीमा को हटाने की प्रतिबद्धता जताई.

पहलगाम के बाद बीजेपी का दांव
लेकिन सवाल यह है कि जब देश का मूड पहलगाम हमले के बाद बदला हुआ है, तब बीजेपी ने यह फैसला क्यों लिया? सूत्रों के अनुसार, यह निर्णय मोदी 3.0 सरकार के शपथ लेने के बाद से ही विचाराधीन था. सितंबर 2024 में, जब केंद्र की एनडीए सरकार ने अपने 100 दिन पूरे किए, बीजेपी के प्रमुख नेताओं, जो विभिन्न राज्यों की सरकारों का हिस्सा थे, को सूचित किया गया कि नेतृत्व इस तरह के फैसले पर विचार कर रहा है. 

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यह फैसला दर्शाता है कि बीजेपी को अहसास हो गया है कि अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के साथ ‘कमंडल’ की सियासत लगभग अपना प्रभाव खो चुकी है, लेकिन ‘मंडल’ की सियासत में अभी भी काफी ताकत बाकी है. बीजेपी ने महसूस किया कि कांग्रेस द्वारा आरक्षण को खुलकर अपनाने का फैसला दक्षिण भारत में महत्वपूर्ण राजनीतिक समायोजन का कारण बन सकता है, लेकिन हिंदी पट्टी में यह सियासी ताकत में और बड़े बदलाव का कारण बन सकता है. बीजेपी, जिसमें बड़ी संख्या में ओबीसी नेता शामिल हैं, के पास कांग्रेस के सोशल इंजीनियरिंग प्रयोग का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस के ही टेम्पलेट को हथियाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था.

बिहार और यूपी में जाति का असर
हालांकि, हरियाणा, दिल्ली और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जाति जनगणना की पिच मतदाताओं को आकर्षित नहीं कर सकी, लेकिन बीजेपी का यह फैसला दर्शाता है कि उसे संदेह है कि बिहार और 2027 में उत्तर प्रदेश में स्थिति अलग हो सकती है, जहां जाति मतदाताओं के वोट का रंग अधिक निर्णायक हो सकता है. यहां तक कि तमिलनाडु जैसे राज्य में, जो 2026 के गर्मियों में चुनाव होने वाले हैं, किसी व्यक्ति की जाति ही यह तय करती है कि उसकी उंगली ईवीएम पर किसे वोट करेगी. 

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क्या बीजेपी ने कांग्रेस की हवा निकाल दी?
क्या बीजेपी के इस फैसले ने कांग्रेस के सियासी हथियार की धार कुंद कर दी है? इसका जवाब हां और ना दोनों है. अब यह इस बात पर निर्भर करता है कि कांग्रेस इसे जनता तक कैसे ले जाती है. केवल यह कहना कि बीजेपी ने कांग्रेस की नकल की है, मतदाताओं को प्रभावित नहीं करेगा. राहुल गांधी के सामने चुनौती होगी कि वह तेलंगाना और कर्नाटक, जहां कांग्रेस सत्ता में है, में यह दिखाएं कि वह वास्तव में हाशिए पर पड़ी जातियों को सत्ता हस्तांतरित कर सकती है. जैसा कि कर्नाटक में पहले से ही दिख रहा है, इससे अन्य प्रभावशाली और प्रभुत्व वाली जातियों से तीखी प्रतिक्रिया मिल सकती है.

बीजेपी के लिए चुनौती
बीजेपी के नजरिए से, यह शायद सबसे अच्छा समय था जब जाति गणना को चुपके से एजेंडे में शामिल किया गया, क्योंकि देश इस समय “आंख के बदले आंख, पहलगाम के बदले पीओके” के मूड में है, लेकिन असली चुनौती यह होगी कि बीजेपी यह दिखाए कि वह वास्तव में जातिगत समानता के विचार के प्रति प्रतिबद्ध है. भारत 1990 के दशक की तरह एक और वीपी सिंह जैसा क्षण बर्दाश्त नहीं कर सकता, जब मंडल आयोग की सिफारिशें केवल राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को कमजोर करने के लिए स्वीकार की गई थीं.

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