कुछ हफ्ते पहले मैंने एक वीडियो ब्लॉग बनाया था, नाम था - 'माय नेम इज रहीम खान'. इसमें मैंने ये बात उठाई थी कि आज के हिंदुत्व के दौर में एक भारतीय मुस्लिम होना कैसा महसूस होता है. ब्लॉग के आते ही मुझे राइट विंग (दझिणपंथी विचारघारा) की तरफ से घेर लिया गया. कहा गया कि मैं मुसलमानों को पीड़ित दिखाकर असली मुद्दा - इस्लामिक कट्टरता - से ध्यान भटका रहा हूं. अब सोचता हूं तो लगता है, ब्लॉग का नाम शायद गलत रख दिया था. सही नाम होता - 'माय नेम इज अली खान महमूदाबाद.'
हाल ही में अशोका यूनिवर्सिटी के पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद को सिर्फ एक फेसबुक पोस्ट के लिए गिरफ्तार कर लिया गया. ये गिरफ़्तारी दिखाती है कि आज की राजनीति मुसलमानों को किस हद तक कोने में धकेल चुकी है. अली खान का 'गुनाह' सिर्फ इतना था कि उन्होंने ऑपरेशन सिंदूर पर अपनी राय दी थी. उनकी फेसबुक पोस्ट में लिखा था, 'मुझे खुशी है कि बहुत सारे राइट-विंग कमेंटेटर कर्नल कुरैशी की तारीफ कर रहे हैं, लेकिन क्या वो उतनी ही जोर से ये भी नहीं कह सकते कि जो लोग मॉब लिंचिंग, मनमानी बुलडोजिंग और बीजेपी की नफरत भरी राजनीति का शिकार हैं, उन्हें भी भारतीय नागरिक के तौर पर सुरक्षा मिलनी चाहिए? दो महिला सोल्जर्स का रिपोर्ट पेश करना एक अच्छी बात है, लेकिन अगर ये सिर्फ दिखावा रह गया और जमीन पर कोई बदलाव नहीं आया, तो फिर ये सिर्फ दिखावा है, और कुछ नहीं.'
खान ने अपने पोस्ट में कर्नल कुरैशी को 'सेक्युलरिज्म' का एक प्रतीक बताने और जमीनी सच्चाई, यानी भारतीय मुसलमानों के साथ बढ़ते भेदभाव के बीच का फर्क साफ किया था. ये पोस्ट मोदी सरकार की तीखी आलोचना थी, लेकिन क्या इसे इतनी बड़ी बात मान लिया जाए कि इसे देश की संप्रभुता, एकता और अखंडता के लिए खतरा बता दिया जाए? या फिर, क्या इसे किसी महिला की गरिमा का अपमान माना जाए? सवाल ये है कि सरकार की आलोचना करना, चाहे वो कितनी भी तीखी क्यों न हो, कब से अपराध बन गया है? और वो भी ऐसा अपराध, जिसमें सिर्फ एक गांव के सरपंच (जो कि बीजेपी युवा मोर्चा का कार्यकर्ता है) की शिकायत पर तुरंत गिरफ्तारी हो जाए? या फिर हरियाणा महिला आयोग का नोटिस मिल जाए?
जब एक टीवी इंटरव्यू में हरियाणा महिला आयोग की चेयरपर्सन रेणु भाटिया से ये पूछा गया कि अली खान ने ऐसा क्या कहा जिससे किसी महिला की गरिमा को ठेस पहुंची, तो वो कोई साफ जवाब नहीं दे पाईं. उनका जवाब भटका हुआ था और कोई ठोस लाइन वो नहीं दिखा सकीं जो अपमानजनक हो. साफ था कि महिला आयोग, और कई दूसरे 'सरकारी' संस्थानों की तरह, बस ऊपर से मिले आदेश पर जल्दीबाजी में कार्रवाई कर बैठा. हरियाणा पुलिस ने भी पूरी प्रक्रिया को गंभीरता से नहीं लिया. न कोई जांच, न कानूनी प्रक्रिया, बस जल्दबाजी में गिरफ्तारी. ऐसा लग रहा था जैसे किसी की जिंदगी और आजादी का कोई मतलब ही नहीं बचा हो.
इस पूरे मामले ने कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं. क्या सत्ता में बैठे लोग, चाहे वो राज्य में हों या केंद्र में, अपनी ताकत का इस्तेमाल सिर्फ इसलिए कर रहे हैं ताकि जो भी सरकार की बात से असहमत हो, उसकी आवाज दबा दी जाए?
याद कीजिए 2022 का मामला, जब मराठी एक्ट्रेस केतकी चितले को एनसीपी प्रमुख शरद पवार के खिलाफ सोशल मीडिया पर कथित अपमानजनक पोस्ट शेयर करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था. या फिर तमिलनाडु में जब डीएमके सरकार के खिलाफ आवाज उठाने वाले यूट्यूबर सावुक्कू शंकर के घर में एक 'गुट' ने घुसकर गंदगी और मल फेंक दिया, और सरकार चुप रही. या कोलकाता के उस प्रोफेसर की बात करें, जिसे सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि उसने ममता बनर्जी का एक कार्टून फॉरवर्ड कर दिया था - और 11 साल बाद जाकर उसे कोर्ट से राहत मिली. ऐसा लग रहा है कि हमारे देश का राजनीतिक सिस्टम अब युगांडा के बदनाम तानाशाह ईदी अमीन की उस बात को सच मान चुका है, जिसमें उसने कहा था - 'यहां बोलने की आजादी तो है, लेकिन बोलने के बाद की आजादी की गारंटी नहीं'.
दुख की बात है कि ज़्यादातर राज्य सरकारों ने केंद्र से ही सीख ली है, जहां विशेष रूप से राजद्रोह के कानून को इस तरह से 'हथियार' बना दिया गया है कि मोदी सरकार की किसी भी आलोचना को आसानी से 'राष्ट्रविरोधी' गतिविधि कहा जा सके. लेकिन बात सिर्फ ये नहीं है कि कानून का इस्तेमाल बोलने की आजादी को दबाने के लिए किया जा रहा है, बल्कि उसका इस्तेमाल पूरी तरह से चुनिंदा तरीके से हो रहा है. और यही दूसरा बड़ा और जरूरी सवाल उठाता है कि कानून का निशाना कौन बनेगा, ये पूरी तरह से सत्ता में बैठे लोगों की मर्जी पर निर्भर करता है.
अब अली खान के मामले की तुलना कीजिए मध्य प्रदेश के मंत्री विजय शाह से, जिन्होंने कर्नल कुरैशी को लेकर बेहद आपत्तिजनक, महिलाओं को नीचा दिखाने वाले और सांप्रदायिक टिप्पणियां कीं. लेकिन मंत्री को बर्खास्त करने या कम से कम सार्वजनिक रूप से फटकार लगाने की बजाय, मध्य प्रदेश की बीजेपी लीडरशिप ने अपने नेता का ही बचाव किया. केंद्र सरकार भी इस पूरे मामले पर चुप रही, जबकि मंत्री ने सिर्फ दिखावे के लिए माफी मांगी. हाई कोर्ट को खुद पहल करनी पड़ी और आदेश देना पड़ा कि मंत्री के खिलाफ स्वतः संज्ञान लेते हुए एफआईआर दर्ज की जाए. सुप्रीम कोर्ट ने भी मंत्री की टिप्पणी को 'राष्ट्रीय शर्म' बताया. हालांकि कोर्ट के कहने पर एक स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम (SIT) बनाई गई है जो मंत्री के बयान की जांच करेगी, लेकिन जैसा दिल्ली में अली खान के साथ हुआ, वैसी ताबड़तोड़ गिरफ्तारी मध्य प्रदेश पुलिस ने मंत्री के खिलाफ नहीं की.
इसीलिए अली खान के मामले के पीछे एक तीसरा और सबसे गंभीर मुद्दा छिपा है. कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से पीएचडी करने वाले, शानदार शैक्षणिक रिकॉर्ड रखने वाले इस प्रोफेसर की एक 'कमजोरी' है - वो एक भारतीय मुस्लिम हैं, और बिना डरे अपनी बात रखते हैं. वो महमूदाबाद के पुराने शाही परिवार से आते हैं, और उनके दादा मोहम्मद आमिर अहमद खान, बंटवारे से पहले मुस्लिम लीग के एक अहम नेता थे. ये सब बातें उन्हें उस हिंदुत्व की राजनीति में 'परफेक्ट दुश्मन' बना देती हैं, जिसका मकसद ही है भारतीय मुसलमान को 'गद्दार', पाकिस्तान समर्थक और संदिग्ध सोच वाला दिखाना. अगर ऑपरेशन सिंदूर पर सवाल कोई विपक्षी नेता या नॉन-मुस्लिम लेखक उठाता है, तो बात चल जाती है. लेकिन अगर वही सवाल एक पढ़ा-लिखा, साफ बोलने वाला भारतीय मुसलमान उठाए तो उसे आजादी से बोलने का हक नहीं मिलता.
उनका 'गुनाह' क्या था? वही जो आज कई भारतीय मुसलमानों का है. उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा जो देश के किसी कानून का उल्लंघन करता हो. लेकिन उनका 'अपराध' बस इतना है कि वो एक भारतीय मुसलमान हैं और खुलकर मौजूदा सरकार की आलोचना करते हैं. दूसरी तरफ, विजय शाह जैसे नेता जो खुलेआम सांप्रदायिक बयान देते हैं - जो पहली नजर में ही कानून के खिलाफ हैं, फिर भी वो बचे रहते हैं. क्योंकि वो सत्ताधारी पार्टी के अहम नेता हैं. फर्क सिर्फ नाम में नहीं, सिस्टम के रवैए में है. अगर आपका नाम शाह है तो आपको माफी मिलती है, लेकिन अगर आपका नाम खान है तो आपको गिरफ्तारी. यही है 'नया' भारत.
पोस्टस्क्रिप्ट: सुप्रीम कोर्ट ने अली खान को अंतरिम जमानत देते हुए उनकी फेसबुक पोस्ट की जांच के लिए SIT बनाई है. अब SIT क्या 'जांच' करेगी, ये तो साफ नहीं है. लेकिन इतना जरूर साफ है कि हमारे पास या तो बहुत सारे बेरोजगार पुलिसकर्मी हैं, या फिर एक ऐसा न्यायिक सिस्टम है जहां असली सजा 'प्रक्रिया' ही बन गई है.
राजदीप सरदेसाई