राहुल गांधी ने नॉट फाउंड सूटेबल (NFS) को नया मनुवाद कहकर संबोधित किया है. राहुल अपने एक बयान में सरकारी भर्तियों में एनएफएस की अवधारणा को जातिवादी सोच का प्रतीक बता रहे हैं. उनके इस बयान के बाद भारत में जाति आधारित राजनीति और सामाजिक न्याय के मुद्दे को फिर से उभार दिया है. 27 मई 2025 को दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ (DUSU) के साथ बातचीत में राहुल ने आरोप लगाया कि SC, ST, और OBC समुदायों के योग्य उम्मीदवारों को NFS के बहाने शिक्षा और नेतृत्व की भूमिकाओं से जानबूझकर वंचित किया जा रहा है. यह बयान उनकी लंबे समय से चली आ रही जाति जनगणना और सामाजिक न्याय की वकालत का हिस्सा है, जिसे उन्होंने भारत जोड़ो यात्रा (2022-23) और भारत जोड़ो न्याय यात्रा (2024) के माध्यम से जोर-शोर से उठाया. 2009 में राहुल गांधी ने कहा था कि वह जाति व्यवस्था में विश्वास नहीं करते, लेकिन अब वह इसे अपनी राजनीति का केंद्र बना रहे हैं. जाहिर है कि यह यूं ही तो नहीं है.
क्यों मचा है बवाल
राहुल गांधी एक्स पर लिखते हैं, ‘Not Found Suitable’ अब नया मनुवाद है. SC/ST/OBC के योग्य उम्मीदवारों को जानबूझकर ‘अयोग्य’ ठहराया जा रहा है - ताकि वे शिक्षा और नेतृत्व से दूर रहें. बाबासाहेब ने कहा था: शिक्षा बराबरी के लिए सबसे बड़ा हथियार है। लेकिन मोदी सरकार उस हथियार को कुंद करने में जुटी है. दिल्ली यूनिवर्सिटी में 60% से ज़्यादा प्रोफ़ेसर और 30% से ज़्यादा एसोसिएट प्रोफ़ेसर के आरक्षित पदों को NFS बताकर खाली रखा गया है. यह कोई अपवाद नहीं है - IITs, Central Universities, हर जगह यही साज़िश चल रही है. NFS संविधान पर हमला है. NFS सामाजिक न्याय से धोखा है. ये सिर्फ़ शिक्षा और नौकरी की नहीं - हक़, सम्मान और हिस्सेदारी की लड़ाई है.
कांग्रेस नेता ने लिखा है, मैंने DUSU के छात्रों से बात की - अब हम सब मिलकर BJP/RSS की हर आरक्षण-विरोधी चाल को संविधान की ताकत से जवाब देंगे.
NFS का उपयोग विश्वविद्यालयों में तब होता है, जब चयन समिति यह निर्णय लेती है कि कोई उम्मीदवार, भले ही वह आरक्षित श्रेणी से हो, पद के लिए उपयुक्त नहीं है. राहुल गांधी का तर्क है कि यह प्रक्रिया योग्यता को सामाजिक विशेषाधिकार के साथ जोड़कर SC, ST, और OBC उम्मीदवारों को हाशिए पर धकेल रही है. SC/ST/OBC के योग्य उम्मीदवारों को जानबूझकर अयोग्य ठहराया जा रहा है. ताकि वे शिक्षा और नेतृत्व से दूर रहें. उन्होंने डॉ. बी.आर. आम्बेडकर का हवाला देते हुए कहा कि शिक्षा समानता का सबसे बड़ा हथियार है, लेकिन केंद्र सरकार इस हथियार को कुंद कर रही है.
राहुल गांधी का जाति आधारित एजेंडा
राहुल गांधी ने पिछले कुछ वर्षों में जाति जनगणना को अपनी राजनीतिक रणनीति का केंद्र बनाया हुआ है. उनकी भारत जोड़ो यात्रा और भारत जोड़ो न्याय यात्रा ने सामाजिक न्याय और दलित-पिछड़े समुदायों के सशक्तिकरण को मुख्य मुद्दा बनाया. उनकी मांग है कि जाति जनगणना न केवल जनसंख्या की गणना करे, बल्कि आर्थिक और संस्थागत असमानताओं को भी उजागर करे, ताकि नीति निर्माण में 90% आबादी (OBC, SC, ST, और अल्पसंख्यक) को उचित प्रतिनिधित्व मिले.
राहुल गांधी ने तेलंगाना में जाति जनगणना को मॉडल के रूप में पेश किया, जहां यह दिखाया गया कि 90% आबादी दलित, आदिवासी, OBC, और अल्पसंख्यकों की है. उन्होंने दावा किया कि राष्ट्रीय स्तर पर भी यही स्थिति होगी, और OBC 50% से अधिक होंगे. केंद्र सरकार ने 2025 में जाति जनगणना की घोषणा की, जिसे राहुल ने अपनी दबाव की रणनीति की जीत बताया, लेकिन उन्होंने समय सीमा और पारदर्शिता की भी मांग की है.
24 अगस्त 2024 को प्रयागराज में ‘संविधान सम्मान सम्मेलन’ में राहुल ने कहा कि जाति जनगणना नीति निर्माण की नींव होगी, और 50% आरक्षण की सीमा को हटाने की जरूरत है.
राहुल का मेरिट की अवधारणा पर सवाल कितना कमजोर
राहुल गांधी मेरिट को ऊंची जाति का नैरेटिव बताते रहे हैं. उनका कहना है कि शिक्षा और नौकरशाही में प्रवेश प्रणाली दलित, OBC, और आदिवासियों के लिए सांस्कृतिक रूप से अनुपयुक्त है. दरअसल, राहुल गांधी की यह पूरी अवधारणा ही मेरिट के खिलाफ है. पिछड़े शोषितों को आरक्षण से इनकार नहीं किया जा सकता है पर यह भी नहीं कहा जा सकता है कि मेरिट की बात आरक्षण को खत्म करने के लिए किया जाता है.
अमेरिका में मेरिट को महत्व देने के चलते ही काले लोगों (African Americans) को सरकारी नौकरियों और शिक्षा में भारत जैसा आरक्षण नहीं मिलता है. हालांकि, अमेरिका में काले लोगों के साथ जो भेदभाव होता रहा है वह कम खतरनाक नहीं है. लेकिन यहां आरक्षण के बजाय Affirmative Action की नीतियां लागू हैं, जो समान अवसर सुनिश्चित करती हैं. ताकि मेरिट का महत्व बना रहे. यही कारण है कि अमेरिका दुनिया में आज भी हर फील्ड में अपना दबदबा कायम रखे हुए है.
आज बजट बनाने में हिस्सेदारी की बात, कल व्यवसाय और रिसर्च में पहुंचेगी
राहुल गांधी बार-बार कहते हैं कि केंद्र सरकार के बजट तैयार करने वाले 90 शीर्ष नौकरशाहों में केवल तीन ओबीसी हैं. उन्होंने कॉरपोरेट, मीडिया, और शिक्षा में OBC और दलितों की कम भागीदारी पर सवाल उठाए. दरअसल यह डिमांड बढती ही जानी है. कांग्रेस ने देश पर 50 साल से अधिक शासन किया है पर देश की ब्यूरोक्रेसी में अब तक दलितों की भागीदारी नहीं बढ़ सकी. अगर आजादी के बाद दलितों और पिछड़ों के साथ बराबर का व्यवहार किया गया होता तो ये नौबत ही नहीं आती. देश का बजट बनाने में अगर जाति के अनुपात में हिस्सेदारी की मांग होगी तो मुश्किल होनी तय है. क्योंकि कल को ये मांग हवाई जहाज उड़ाने में, दिल के मरीजों का ऑपरेशन करने में, फैक्ट्रियां लगाने में, कॉरपोरेट कंपनीज के सीईओ बनाने की मांग भी बढ़ेगी. जाहिर है ये देश या समाज के लिए किसी भी सूरत में सही नहीं होगा.
राहुल गांधी जाति की बात को कहां तक ले जाएंगे ?
राहुल गांधी का यह कदम कांग्रेस को दलित, OBC, और आदिवासी मतदाताओं के बीच फिर से प्रासंगिक बनाने की कोशिश है. 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को केवल 52 सीटें मिलीं, और अमेठी जैसे गढ़ में राहुल गांधी को हार का सामना करना पड़ा. NFS और जाति जनगणना जैसे मुद्दों को उठाकर वह इन समुदायों को लामबंद करने की कोशिश कर रहे हैं, जो देश की 90% आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं.
NFS को नया मनुवाद कहकर राहुल ने शिक्षा और नौकरियों में संस्थागत भेदभाव को राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाया है. यह दलित और OBC समुदायों में जागरूकता बढ़ा सकता है, लेकिन ठीक इसके विपरीत ऊंची जातियों के बीच प्रतिक्रिया भी पैदा कर सकता है. कांग्रेस का वोट बैंक अगड़ी जातियों में भी रहा है. विशेषकर ब्राह्मण और बनिया वर्ग कांग्रेस को वोट करता रहा है.आज भी कांग्रेस को ब्राह्रमण वोटर्स पर बहुत भरोसा है. उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों में अमेठी और रायबरेली में मिले वोट केवल अल्पसंख्यकों और दलितों के नहीं है. इन दोनों जगहों पर मिले बंपर वोट बताते हैं कि कांग्रेस को बड़ी जातियों ने भी सपोर्ट किया था.
कांग्रेस ने वादा किया है कि यदि सत्ता में आती है तो 50% आरक्षण की सीमा हटाने और निजी शिक्षा संस्थानों में भी आरक्षण लागू किया जाएगा. जाहिर तौर पर उनका ये वादा जातिगत राजनीति को और भी मजबूत करेगा. जाति जनगणना के डेटा का उपयोग करके संसाधनों का पुनर्वितरण और नीति निर्माण में समानता लाने की उनकी योजना दीर्घकालिक सामाजिक परिवर्तन ला सकती है. पर समाज कितना बुरी तरह टूटेगा इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है.
संयम श्रीवास्तव