डॉ भीमराव आंबेडकर के जीवनी लेखक का दावा, ब्राह्मण-विरोधी कुलीन वर्ग की उदारता से भी चमके

भारत के सबसे प्रखर और अग्रणी दलित नेता डॉक्टर भीमराव आंबेडकर की जयंती पर पढ़िए क्रिस्तोफ जाफ्रलो द्वारा लिखित और योगेन्द्र दत्त द्वारा अनुवादित पुस्तक 'भीमराव आंबेडकर: एक जीवनी' के अंश.

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पुस्तक भीमराव आंबेडकर: एक जीवनी का आवरण [सौजन्य-राजकमल प्रकाशन] पुस्तक भीमराव आंबेडकर: एक जीवनी का आवरण [सौजन्य-राजकमल प्रकाशन]

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 14 अप्रैल 2021,
  • अपडेटेड 8:43 AM IST

भारत के सबसे प्रखर और अग्रणी दलित नेता के रूप में डॉक्टर भीमराव आंबेडकर का स्थान निर्विवाद है. वह दलितों के महान नायक के रूप में जाने जाते हैं. हर साल 14 अप्रैल को उनकी जयंती मनायी जाती है. उन्हें बाबासाहेब आंबेडकर के नाम से भी जाना जाता है. डॉक्टर आंबेडकर ने अपना पूरा जीवन छुआछूत और जातिवाद जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ संघर्ष में लगा दिया. इस बीच वह गरीब, दलितों और शोषितों के अधिकारों के लिए संघर्ष करते रहे. स्वतंत्र भारत के वो पहले विधि एवं न्याय मंत्री थे. भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने वाली समिति के अध्यक्ष पद पर उनके दायित्व निर्वहन के चलते उनके समर्थक उन्हें संविधान का जनक भी कहते हैं. साहित्य आजतक पर आंबेडकर की जयंती पर पढ़िए क्रिस्तोफ जाफ्रलो द्वारा लिखित और योगेन्द्र दत्त द्वारा अनुवादित पुस्तक 'भीमराव आंबेडकर: एक जीवनी' के अंश. यह पुस्तक राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है. क्रिस्तोफ़ जाफ़लो ने डॉक्टर आंबेडकर के जीवन को समझने के क्रम में उनके जीवन के जिन तीन सबसे महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डाला है, वे हैं: एक समाज वैज्ञानिक के रूप में आंबेडकर; एक राजनेता और राजनीतिज्ञ के रूप में आंबेडकर; तथा स्वर्ण हिन्दुत्व के विरोधी एवं बौद्धधर्म के एक अनुयायी व प्रचारक के रूप मे आंबेडकर.  

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पुस्तक अंश- भीमराव आंबेडकर: एक जीवनी, जाति उन्मूलन का संघर्ष एवं विश्लेषण

आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को हुआ था. आंबेडकर को महू (मिलिट्री हेडक्वार्टर ऑफ़ वॉर-रूम) छावनी में पैदा होने का अपरिमित लाभ मिला. उनके पिता रामजी सकपाल और उससे भी पहले आंबेडकर के दादा सेना में मुलाजि़म थे. सकपाल 1866 में सेना में भर्ती हुए और तरक्की पाते हुए सूबेदार के पद तक पहुंचे. बाद में उन्हें एक सैनिक नॉर्मल स्कूल का हेडमास्टर भी नियुक्त किया गया. आंबेडकर की माँ भी एक बेमिसाल सैनिक विरासत वाले महार परिवार से सम्बन्धित थीं. आंबेडकर के नाना और उनके छह भाई सूबेदार मेजर रह चुके थे.37 चूँकि मिलिट्री के बच्चों के लिए शिक्षा अनिवार्य थी इसलिए न केवल आंबेडकर के पिता बल्कि उनके परिवार की महिलाएं भी साक्षर थीं.
रामजी सकपाल जोतिराव फुले के दोस्त और प्रशंसक थे. वह एक रोबदार व्यक्ति थे. उन्होंने 1890 के दशक में सेना में महारों की ओर से चलाए गए अभियान में सक्रिय हिस्सेदारी की थी. 1892-93 में ब्रिटिश सरकार ने फैसला लिया था कि अब महारों को सेना में बड़ी संख्या में भर्ती नहीं किया जाएगा क्योंकि दूसरी 'अशुद्ध' जातियों, ख़ासतौर से मराठा जातियों के लोग बैरकों में महारों के साथ ज़्यादा मेलजोल नहीं रखना चाहते. इस तरह, आंबेडकर के पिता महारों की उस आखिरी पीढ़ी के सदस्य थे जिसे ब्रिटिश सेना में पक्की नौकरी मिली थी. रामजी सकपाल एक धर्मपरायण व्यक्ति थे. वह अपने बच्चों को हिन्दू ग्रन्थ पढ़कर सुनाते थे और तुकाराम जैसे सन्तों के दोहे सुनाते थे. उन्होंने अपने परिवार में आध्यात्मिकता के साथ-साथ सामाजिक चेतना के बीज भी बो दिए थे. इसका एक कारण यह था कि वे कबीर के अनुयायी थे, जिन्होंने जातिगत ऊंच-नीच का डटकर मुक़ाबला किया था. पन्द्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में कबीर ने भी समतावाद को बढ़ावा दिया था, जिसकी एक वजह तो यही थी कि एक सन्त होने के नाते उनके लिए समानता की बात करना स्वाभाविक था और दूसरी वजह ये थी कि वह ख़ुद भी बहुत निचले तबके -जुलाहा जाति- से आए थे. मगर, आंबेडकर के कॅरिअर को एक निश्चित शक्ल देने में आधुनिक शिक्षा और उसके लिए मराठा महाराजाओं से मिली सहायता सबसे निर्णायक पहलू रहे.
आंबेडकर पाँच साल की उम्र से छावनी के प्राइमरी स्कूल में जाने लगे थे और उनके कई साल सतारा के हाई स्कूल में गुज़रे. बाद में उनके पिता सेना के साथ बम्बई आ गए, जहां उन्होंने अपने भाई के साथ एल्फिन्स्टन स्कूल में दाखिला लिया. एल्फिन्स्टन स्कूल से वे एल्फिन्स्टन कॉलेज में पहुंचे जहां उन्होंने अंग्रेज़ी और फ़ारसी में बी.ए. की डिग्री ली. वह संस्कृत भी पढ़ना चाहते थे मगर अपनी जाति के कारण वह संस्कृत नहीं पढ़ पाए. अगले साल 1913 में वह बड़ौदा रियासत की सेना में लेफ्टिनेंट के पद पर भर्ती हो गए. भर्ती के महज़ एक पखवाड़े के बाद उनके पिता का देहान्त हो गया. इसके बाद आंबेडकर ने नौकरी छोड़कर और बड़ौदा महाराज की आर्थिक सहायता से एक बार फिर अपनी पढ़ाई शुरू करने का फैसला लिया.
कृष्ण अर्जुन (उर्फ दादा) केलुस्कर आंबेडकर के अध्यापकों में से एक थे और उनकी तीक्ष्ण बुद्धि व क्षमताओं से बेहद प्रभावित थे. उन्होंने ही एल्फिन्स्टन कॉलेज में आंबेडकर की पढ़ाई के खर्चे का बन्दोबस्त करने के लिए बड़ौदा महाराज से सहायता का निवेदन किया था. बड़ौदा के महाराजा भी गायकवाड़ राजवंश से थे, जिनकी मराठा जड़ों के आधार पर ग़ैर-ब्राह्मणों के प्रति उदारता का कारण एक हद तक समझा जा सकता है. महाराजा पहले भी अस्पृश्यों के लिए स्कूलों की स्थापना कर चुके थे और निम्न जातियों के सम्भावनाशील युवाओं को पढ़ाई के लिए उदारतापूर्वक आर्थिक सहायता देते थे. इसी नीति के फलस्वरूप उनके राज्य के संचालन हेतु एक ग़ैर-ब्राह्मण बुद्धिजीवी वर्ग भी तैयार हो रहा था. केलुस्कर ने आंबेडकर को महाराजा के सामने पेश किया जिन्होंने फौरन उन्हें 50 रुपये महावार की छात्रवृत्ति का आश्वासन दिया. साथ ही उन्होंने यह भी वादा किया कि अगर वह पढ़ाई में अच्छा प्रदर्शन करते हैं तो उन्हें और पैसा मिल जाएगा. महाराजा ने उन्हें स्नातक की पढ़ाई पूरी होने पर नौकरी देने का औपचारिक प्रस्ताव भी रखा: महाराजा अमेरिका में उनकी पढ़ाई का पूरा खर्चा वहन करेंगे (महाराजा का बेटा भी हार्वर्ड में पढ़ चुका था) बशर्ते वह लौटने पर 10 साल तक रियासत की नौकरी करने के लिए अपनी मंज़ूरी दें. आंबेडकर के सामने यह एक अभूतपूर्व अवसर था. निश्चय ही यह अवसर उन्हें अपनी बुद्धि और कठोर परिश्रम की क्षमता से मिला था मगर उनके भाग्य का सितारा मराठा रियासत के कुलीन वर्ग की उदारता से भी चमक रहा था: ग़ैर-ब्राह्मण एकजुटता का यह तत्त्व उनके कॅरिअर में एक निर्णायक पहलू रहा है.
1913 में आंबेडकर न्यूयॉर्क स्थित कोलम्बिया विश्वविद्यालय गए. वहां उन्होंने 1915 में अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की. इस डिग्री के लिए उन्होंने प्राचीन भारत में व्यापार पर शोधपत्र लिखा था. 1916 में जाति के विश्लेषण की उनकी पहली कोशिश शुरू हुई और उन्होंने मानवशास्त्र की एक सेमिनार में कास्ट्स इन इंडिया: देयर मेकेनिज़्म, जेनेसिस ऐण्ड डेवलपमेंट शीर्षक से पर्चा प्रस्तुत किया. अपने इस पर्चे में, जिस पर हम आगे फिर चर्चा करेंगे, आंबेडकर ने पहली बार पश्चिमी समाज विज्ञान से निकली अवधारणाओं को भारत के सन्दर्भ पर लागू किया था. कोलम्बिया में वह अपने दो प्रोफेसरों: जॉन ड्यूवी (आनुभविक दर्शन के प्रणेता) और आर.ए. सेलिग्मान से ख़ासतौर से प्रभावित हुए थे. इसके अलावा उन्हें टस्केजी इंस्टिट्यूट के संस्थापक बुकर टी. वॉशिंगटन से भी भारी प्रेरणा मिली जो अफ्रीकी-अमेरिकियों की मुक्ति के लिए शिक्षा को एक माध्यम के रूप में देखते थे. इस तरह, आंबेडकर भी चिन्तन की नई धाराओं, और सबसे बढ़ कर टॉमस पेन के समतामूलक व्यक्तिवाद की गहराइयों में उतरते चले गए जो इससे पहले फुले को भी प्रभावित कर चुके थे. ज़ीलियट बताती हैं कि अमेरिका में आंबेडकर ने 'सामाजिक समानता लाने के लिए लोकतांत्रिक संस्थानों की सत्ता में एक दृढ़, अविचल आस्था' हासिल कर ली थी और ये विचार उन्हें मोटे तौर पर ड्यूवी से प्राप्त हुए थे. वर्ष 1916 में आंबेडकर लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स (एलएसई) में पढ़ने के लिए अमेरिका से इंग्लैंड चले गए. जुलाई 1917 में बड़ौदा महाराजा ने उन्हें भारत लौटने का निर्देश दिया. भारत लौटने पर आंबेडकर को महाराजा के सैन्य सचिव के रूप में नौकरी मिली. इस बार भी सेना उनके लिए सामाजिक गतिशीलता का बेहतरीन साधन साबित हुई.
बड़ौदा में आंबेडकर को अपनी वास्तविक पहचान के दम पर रहने की कोई जगह नहीं मिल पाई और अन्तत: उन्हें पारसी समुदाय के किसी व्यक्ति के लॉज में कमरा लेने के लिए पारसी होने का नाटक करना पड़ा. दुर्भाग्यवश, उनकी यह चालाकी पकड़ी गई और उन्हें कमरा छोड़ना पड़ा. इस अनुभव ने उन पर निर्णायक प्रभाव छोड़ा :
पूरे दिन मैं रहने के लिए एक अदद मकान तलाशता रहता था मगर आखिरकार मुझे कोई मकान नहीं ही मिला. मैंने अपने दोस्तों से भी बात की मगर सभी ने कोई न कोई बहाना बनाकर मुझे उल्टे पाँव लौटा दिया. वे भी मुझे अपने मकान में रखने के लिए तैयार नहीं थे. मैं पूरी तरह हताश और थक चुका था. अब क्या करूँ, मैं तय नहीं कर पा रहा था. परेशान और व्यथित, मैं एक जगह जाकर बैठ गया. मेरी आंखों से आंसू बहते न रुकते थे. मकान पाने की मुझे कोई उम्मीद दिखाई नहीं दे रही थी. अब मेरे पास अपनी नौकरी और ये शहर छोड़ने के अलावा कोई चारा नहीं था. मैंने इस्तीफ़ा दिया और रात की गाड़ी से बम्बई के लिए रवाना हो गया.
यहां से आंबेडकर एक राजनीतिक योद्धा के रूप में नया अवतार ग्रहण करते हैं. अक्तूबर 1920 में वह अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए इंग्लैंड लौटे. जून 1921 में उन्होंने एक और मराठा प्रभु, कोल्हापुर महाराज की आर्थिक सहायता से अपनी स्नातकोत्तर की डिग्री पूरी की. कोल्हापुर महाराज 1901 से ही बहुत सख्त ब्राह्मण-विरोधी रवैया रखते थे, जब कोल्हापुर के ब्राह्मणों ने मराठों को न केवल क्षत्रिय हैसियत अता करने से इनकार कर दिया था बल्कि उन्हें पारिवारिक कार्यक्रमों में भी वैदिक अनुष्ठानों के लिए अयोग्य घोषित कर दिया था. इसके बाद से कोल्हापुर के महाराजा, शाहू महाराज ने भी आंबेडकर के प्रति वही संरक्षणवादी रवैया अपना लिया जो कभी बड़ौदा के महाराजा ने अपनाया था. उनकी उदारता की सबसे मुखर अभिव्यक्ति उनका वह पत्र था जो उन्होंने लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स के नाम आंबेडकर के पक्ष में लिखा था. इस पत्र से भी उनकी 'ब्राह्मण-विरोधी' एकजुटता के बारे में काफी कुछ पता चलता है:
(श्री आंबेडकर) आपको पिछड़ी जातियों और ब्राह्मण नौकरशाही का फ़र्क समझाएंगे. साथ ही, वह आपको बताएंगे कि अगर कोई पिछड़ी जातियों से हमदर्दी रखता है तो उन्हीं ब्राह्मण नौकरशाहों के हाथों उसे कैसी पीड़ा का सामना करना पड़ता है, जो कहने को तो लोकतांत्रिक विचारों का दावा करते हैं और पिछड़ी जातियों के कल्याण की दुहाई देते हैं मगर वास्तव में वे अपने लिए एक छोटे से अल्पतंत्र के अलावा और कुछ नहीं चाहते. वह (आंबेडकर) आपके, इंग्लैंड की प्रबुद्ध जनता के सामने उन ग़ैर-ब्राह्मण हिन्दुओं का दृष्टिकोण प्रस्तुत करेंगे जो एक मत से ये मानते हैं कि होम रूल की माँग करने वाले ब्राह्मण असल में अपनी उसी सत्ता को बहाल करना चाहते हैं जो बहुत पहले उनसे छीन ली गई थी.
आंबेडकर ने एलएसई में अर्थशास्त्र विभाग में अपना शोधपत्र प्रस्तुत किया. 1922 में प्रस्तुत इस शोधपत्र का शीर्षक था 'द प्रॉब्लम ऑफ़ द रूपी' (रुपये की समस्या). चूँकि आंबेडकर ने शोधपत्र पर गम्भीरता से ध्यान नहीं दिया था इसलिए पहले दौर में उसे ख़ारिज कर दिया गया. मार्च 1923 में उन्होंने अपने शोधपत्र को दुरुस्त करके जमा कराया और उसी साल नवम्बर में सफलतापूर्वक उसका बचाव किया. 1927 में उन्हें 'द इवॉल्यूशन ऑफ़ प्रोविंशियल फाइनेंस इन ब्रिटिश इंडिया' शीर्षक के अपने शोधपत्र के लिए कोलम्बिया विश्वविद्यालय से पीएचडी की डिग्री मिली. इस प्रकार, वह डॉक्टरेट की डिग्री हासिल करने वाले पहले अस्पृश्य व्यक्ति बने.
1923 में आंबेडकर ने बॉम्बे बार में अपना पंजीकरण कराया और अगले साल से ही उच्च न्यायालय में वकालत की प्रैक्टिस करने लगे. उनके अस्पृश्य होने की वजह से उनके बहुत सारे संभावित मुवक्किल छिटक जाते थे. फलस्वरूप, उन्हें अपना खर्चा चलाने के लिए वकालत के साथ-साथ अध्यापन का भी काम करना पड़ा. 1918 में वह ब्रिटेन के सिडेनहेम कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स ऐण्ड इकॉनॉमिक्स में राजनीतिक अर्थशास्त्र पढ़ा चुके थे. 1925 में उन्होंने बाटलीबोई एकाउंटेंसी ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट में पार्ट टाइम लेक्चरर की नौकरी की. तसल्ली की बात ये रही कि आंबेडकर की वकालत चाहे न चल पाई हो मगर उनके क़ानूनी प्रशिक्षण व ज्ञान ने अदालतों में अस्पृश्यों का पक्ष रखने में, राजनीतिक मोलभाव के अवसरों पर या राजनीतिक वार्ताओं के दौरान उनको बहुत फ़ायदा पहुंचाया.
इस तरह, यह संयोग की बात नहीं थी कि आंबेडकर भारत के पहले अखिल भारतीय अस्पृश्य नेता बने. उनकी नियति को निर्धारित करने में उनकी बुद्धि और ऊर्जा के रूप में उनके निजी गुणों ने तो अहम भूमिका अदा की ही, उनके पारिवारिक, सामाजिक और क्षेत्रीय सन्दर्भ ने भी उन्हें बहुत लाभ पहुंचाया. ख़ासतौर से महाराष्ट्र के ब्राह्मण-विरोधी आन्दोलन का वंशज होने और मराठा महाराजाओं से मिली सहायता से उन्हें बहुत लाभ हुआ. उनकी सामाजिक-राजनीतिक चेतना और उग्र तेवर उनकी जाति और परिवार की पीड़ा का सीधा परिणाम थे. फिर भी, जाति व्यवस्था के खिलाफ़ उनकी बगावत को एक स्पष्ट दिशा देने वाली सबसे निर्णायक कारक थी उनकी विदेशी शिक्षा, जिसने उन्हें समतापरक मूल्यों से परिचित कराया और जाति की संरचना पर शोध करने का मौक़ा दिया. भारत लौटने पर उन्होंने समाजशास्त्र के विश्लेषण के अपने उपकरणों को तराशा ताकि उस समाज व्यवस्था को चुनौती दे सकें जिसमें अस्पृश्य ही प्रथम पीड़ित थे.
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पुस्तक: भीमराव आंबेडकर: एक जीवनी
लेखक: क्रिस्तोफ जाफ्रलो
अनुवाद: योगेन्द्र दत्त
भाषा: हिन्दी
विधाः जीवनी
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
मूल्य: हार्डकवर 650.00/, पेपरबैक 225.00/ रुपए 
पृष्ठ सं: 208

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