...27 फरवरी 2024
दिन मंगलवार!
पूरे दिन न्यूज चैनल्स के टीवी स्क्रीन्स पर सबसे ज्यादा चर्चित शब्द रहा 'क्रॉस वोटिंग'...
दरअसल उस दिन राज्यसभा की 56 में से 15 सीटों के लिए वोटिंग हो रही थी. राज्यसभा यानी देश की संसद का उच्च सदन, यानी ऐसे लोगों के चुनाव की प्रक्रिया जो देश के लोगों का प्रतिनिधित्व करेंगे, देश के लोगों के लिए कानून बनाने का काम करेंगे. क्रॉस वोटिंग करने वाले भी कोई आम लोग नहीं थे, बल्कि जनता के चुने हुए विधायक थे और अपनी-अपनी विधानसभाओं के लाखों वोटर्स द्वारा चुनकर आए हुए लोग थे. इन विधायकों की क्रॉस वोटिंग यानी अपनी पार्टी की बजाय दूसरी पार्टियों के उम्मीदवारों को वोट देने से 15 में से दो सीटों पर नतीजे बदल गए.
ऐसा भी नहीं है कि राज्यसभा चुनाव में क्रॉस वोटिंग पहली बार हुई हो. हर बार ऐसा होता है और इससे पहले यूपी, राजस्थान, गुजरात, हरियाणा में राज्यसभा चुनाव में क्रॉस वोटिंग के कई मामले चर्चित रह चुके हैं. कौन सी पार्टी जीती और कौन सी पार्टी हारी इस बहस में पड़ने की बजाय इस बात पर आते हैं कि क्या इस सिस्टम में बदलाव की जरूरत है? ऐतिहासिक तथ्य क्या कहते हैं?
पहले कुछ वर्तमान आंकड़ों पर गौर करना जरूरी
चुनावी सुधार और क्रॉस वोटिंग की चर्चा के बीच राज्यसभा यानी संसद के उच्च सदन के कुछ वर्तमान आंकड़ों पर पहले गौर कर लेते हैं. चुनावी डेटा पर नजर रखने वाली संस्था ADR की एक रिपोर्ट के मुताबिक राज्यसभा के 225 सिटिंग सदस्यों (1 मार्च 2024 तक) में से 33 फीसदी यानी करीब 75 ने अपने खिलाफ क्रिमिनल केस होने की बात चुनावी हलफनामों में स्वीकार की है. इनमें से दो सदस्यों के ऊपर हत्या का केस चल रहा है तो 4 के ऊपर हत्या की कोशिश यानी एटेम्प्ट टू मर्डर का केस चल रहा है. उच्च सदन के इन 225 सदस्यों के पास कुल संपत्ति 19,602 करोड़ रुपये है. इनमें से 31 यानी 14 फीसदी राज्यसभा सदस्य अरबपति हैं.
अमेरिकी सीनेट के सिस्टम में क्या है?
देश में जब भी राज्यसभा चुनाव होते हैं तो कई सीटों पर धन-बल, दलबदल और क्रॉस वोटिंग के मामले सुर्खियों में रहते हैं. कई सरप्राइज उम्मीदवारों की जीत इन्हीं रूट से होती हैं और अक्सर इस सिस्टम पर सवाल भी उठता है. मांग होती है कि राज्यसभा चुनाव अमेरिकन सीनेट की तरह होनी चाहिए, जहां जनता सीधे उच्च सदन के मेंबर चुनती है. हालांकि साल 1913 से पहले वहां भी आज के भारत जैसी ही व्यवस्था थी, यानी इनडायरेक्ट चुनाव की.
राज्यसभा चुनाव के सिस्टम पर वरिष्ठ पत्रकार वीर सांघवी लिखते हैं-
'चुनावी लोकतंत्र का तर्क यह बताता है कि क्रॉस वोटिंग नहीं होनी चाहिए. और आज़ादी के बाद कई वर्षों तक वास्तव में, बहुत कम क्रॉस-वोटिंग हुई. फिर, इस प्रक्रिया में पैसा शामिल हो गया. अमीर लोगों ने फैसला किया कि राज्यसभा एक क्लब है, जिसमें वे शामिल होना चाहेंगे. इसके मुताबिक, उन्होंने अपनी राह आसान करने के लिए विधायकों की खरीद-फरोख्त शुरू कर दी. लगातार इस व्यवस्था पर रोक की मांग और चर्चा चलती रही. 1998 में, अटल सरकार ने राज्यसभा चुनाव को लेकर नियम बदला. गुप्त मतदान समाप्त कर दिया गया और मतदान सार्वजनिक हो गया. लेकिन गुप्त मतदान खत्म होने के बाद अब ये गुनागणित नए रूप में सामने आ रहा है.
ऐतिहासिक तथ्य क्या कहते हैं?
राज्यसभा चुनाव को लेकर देश की सियासत में लंबे समय से चर्चा होती भी रही है. क्रॉस वोटिंग, दलबदल, धन-बल के इस्तेमाल को लेकर जो सवाल आज उठ रहे हैं देश की आजादी के बाद जब संसद के गठन की रूपरेखा तैयार हो रही थी तब भी यही सवाल उठे थे. प्रखर समाजवादी चिंतक और राजनेता रहे मधु लिमये अपनी किताब 'भारतीय राजनीति के अंतरर्विरोध' में आजादी के बाद की उन परिस्थितियों की विस्तार से चर्चा करते हैं जिनमें लोकसभा और राज्यसभा नामक दो संसद की व्यवस्था बनाई गई.
मधु लिमये लिखते हैं-
'भारत संघ के लिए द्विसदनीय विधायिका का मूल प्रस्ताव जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में संघीय संविधान समिति ने तैयार किया था. इस प्रस्ताव की मुख्य विशेषताएं थीं- दो सदनों को राज्यसभा और लोकसभा कहा जाए. इन नामों में इस बात का संकेत था कि इन सदनों का गठन किस प्रकार होगा. लोकसभा के सदस्य भौगोलिक निर्वाचन क्षेत्रों से वयस्क मताधिकार के आधार पर सीधे चुने जाएंगे. राज्यसभा के 250 सदस्य होंगे. भारत के उपराष्ट्रपति राज्यसभा के पदेन सदस्य और सभापति होंगे. वित्त विधेयक को छोड़कर दोनों सदनों के समान अधिकार होंगे और गतिरोधों को संयुक्त बैठक में सुलझाया जाएगा. वित्त विधेयक लोकसभा में रखे जाएंगे और राज्यसभा केवल उनमें संशोधन के सुझाव दे सकेगी, जिन्हें लोकसभा स्वीकार या अस्वीकार कर सकती है. राज्यसभा कभी भंग नहीं होगी, उसके एक तिहाई सदस्य हर दो साल बाद सेवानिवृत्त होते रहेंगे.
जब संविधान को अंतिम रूप से अंगीकृत किया गया तो इन प्रस्तावों में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ, सिवाय एक के जिसके अनुसार साहित्य, विज्ञान, कला और सामाजिक सेवा क्षेत्र में विशेष ज्ञान या व्यवहारिक अनुभव रखने वाले 12 व्यक्तियों को राज्यसभा का सदस्य नामजद करने की व्यवस्था हुई. राज्यसभा की अन्य सीटों को राज्य विधानमंडलों द्वारा चुनकर भरने की व्यवस्था हुई.''
आज राज्यसभा चुनावों को लेकर जो सवाल खड़े हो रहे हैं उस पर तब भी उतनी ही चिंता जताई गई थी. मधु लिमये अपनी किताब में लिखते हैं -
'संविधान सभा में इस बात पर तीव्र मतभेद था कि दूसरा सदन हो या नहीं. कुछ सदस्यों का विचार था कि यह सदन विलंब और अवरोध का ही काम करेगा. एक आलोचक का कहना था कि यह विधायी तंत्र को अपंग कर देगा और विधि निर्माण के काम में अड़ंगा लगाएगा या उसमें विलंब मात्र करेगा, जिसके लिए जनता ने वोट दिया है और जिसमें काफी खर्चा होता है. उस सदस्य का यह भी कहना था कि उच्च सदन राजाश्रय बांटने में पार्टी के उच्च पदाधिकारी की ही मदद करेगा. किंतु इस मुखर आलोचक ने भी यह स्वीकार किया कि जहां संघ की घटक इकाइयों (राज्यों) में दूसरे सदन की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है वहां केंद्र में दूसरे सदन की व्यवस्था करना उचित होगा, ताकि वह घटक राज्यों के हितों का प्रतिनिधित्व कर सके.'
मधु लिमये अपनी किताब में इस सिस्टम में सुधार के तरीके भी बताते हैं -
'राज्यसभा के चुनावों में पार्टी के प्रिय पात्रों को प्रश्रय देने, चुनाव क्षेत्रों को हथियाने और सीटों की खरीद-फरोख्त की बुराइयों से बचा जा सकता है, बशर्ते कि -
- राज्यसभा के लिए प्रत्यक्ष चुनाव हो.
- वर्तमान रोटेशन प्रणाली के स्थान पर राज्यसभा और लोकसभा का कार्यकाल पांच साल के लिए किया जाये. विभिन्न चुनाव एक ही समय पर कराने से चुनाव खर्च में भी कमी आएगी.
- उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और तमिलनाडु आदि बड़े राज्यों को राज्यसभा के चुनाव के लिए तीन या चार-सदस्यीय चुनाव क्षेत्रों में बांटा जा सकता है. अमरीका की सीनेट के अलास्का, टेक्सास और कैलीफोर्निया जैसे चुनाव क्षेत्रों भौगोलिक रूप में अत्यधिक विस्तृत हैं और अनुभव बताता है कि घनी आबादी वाले चुनाव-क्षेत्रों में चुनाव खर्च बिखरी आबादी वाले विस्तृत निर्वाचन क्षेत्रों की तुलना में कम होता है.
- बड़ा मतदाता समूह यह सुनिश्चित करेगा कि राज्य के सुविख्यात राजनेता ही राज्यसभा का चुनाव जीतें और चुनाव क्षेत्र हथियाने वाले- मनमोहन सिंह, बोम्मई और सिकंदर बख्त जैसे लोग न चुने जाएं, ताकि राज्य के हितों का कारगर ढंग से बचाव हो सके. प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली लोकेच्छा की अभिव्यक्ति की सशक्त माध्यम है. यह अभिशाप नहीं, वरदान है.'
मधु लिमये अपनी किताब में राज्यसभा के कानून बनने में बाधा बनने की दलीलों का भी जिक्र करते हैं. वे लिखते हैं -
'दूसरे सदन के समर्थकों ने विलंब के तर्क को स्वीकार नहीं किया और कहा कि 1947 में सत्ता हस्तांतरण के बाद केंद्र में एक ही सदन होने पर भी हिन्दू कोड बिल पास करने में विलंब हुआ है. इस विधेयक को अंतत छोड़ना पड़ा और इसे नये संविधान के अंतर्गत चुनी गई पहली लोकसभा में किस्तों में ही पास कराया जा सका. कुछ सदस्यों ने उच्च सदन के निर्माण का इस आधार पर समर्थन किया कि यह जल्दबादी में बनाए गए कानूनों में आवश्यक सुधार का काम करेगा. यह सदन संशोधन और सुधार के काम की दृष्टि से उपयोगी होगा. वयस्क मताधिकार के आधार पर सीधे चुने गए सदन से कानूनों के जो विभिन्न प्रस्ताव आएंगे, उन पर दूसरे सदन में ही सावधानी से तथा धैर्य के वातावरण में विचार हो सकता है, लोकसभा के ऊपर तो वित्तिय कार्य का ही बहुत बड़ा बोझ होता है. कुछ का कहना था कि दूसरे सदन के होने से विभिन्न प्रकार के अल्पसंख्यक समूहों को विधायिका में प्रतिनिधित्व मिल सकेगा. अंत में समझौते का फॉर्मूला बना. राज्यों को संसद की अनुमति से दूसरे सदन यानी विधान परिषद को समाप्त करने का अधिकार दिया गया. किंतु केंद्र में उच्च सदन को बना रहने दिया गया, मुख्य रूप से राज्यों के कार्यात्मक हितों के प्रतिनिधित्व के लिए.'
मधु लिमये सवाल भी उठाते हैं -
'क्या राज्यसभा ने इतने दशकों के अपने कार्यकाल में संविधान-निर्माताओं की उम्मीदों को पूरा किया है? क्या उसने उन राज्यों के हितों को कारगर ढंग से आगे बढ़ाया है जो राज्यसभा के सदस्यों को चुनते हैं? यह स्वीकार करना होगा कि राज्यसभा सदन के समक्ष आने वाले मामलों में राज्यों के विशेष दृष्टिकोण को कारगर ढंग से प्रतिबिंबित करने में और राज्यों के हितों का जोरदार बचाव करने में असमर्थ रही है. इसका कारण जानने के लिए दूर नहीं जाना पड़ेगा. राज्यसभा की सदस्यता पार्टी के नेताओं के हाथ में राज्यों के हितों का ख्याल किए बिना राजाश्रय के वितरण का माध्यम बन गई है. चूंकि राज्यसभा के सदस्य राज्य विधानसभाओं द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर परोक्ष रीति से चुने जाते हैं, सभी पार्टियों के नेताओं के लिए अपने मनपसंद व्यक्तियों का चयन करना आसान हो जाता है, जिसमें उम्मीदवारों के ज्ञान तथा राज्यों का प्रतिनिधित्व करने की उनकी क्षमका की ओर जरा भी ध्यान नहीं जाता.
यदि राज्यसभा के लिए प्रत्यक्ष चुनावों की व्यवस्था होती जैसी कि अमरीका में संघीय सीनेट के लिए है, तो पार्टी नेता अपने उम्मीदवारों के रूप में चुनाव क्षेत्र हथियाने वालों को नहीं चुनते बल्कि संबंधित राज्य में व्यापक स्वीकृति प्राप्त करने वाले वरिष्ठ एवं प्रसिद्ध व्यक्तियों को चुनते. परोक्ष चुनाव के सिद्धांत के दुर्भाग्यपूर्ण समावेश से ही राज्यसभा राजाश्रय बांटने वाला सदन बन गई है. इसने पार्टी नेताओं, धनाढ्य लोगों और लॉबी चलाने वालों के हाथ में बहुत बड़ी शक्ति दे दी है. पार्टी के नेताओं ने पार्टी तंत्र पर अपने नियंत्रण का उपयोग पिछले दरवाजे से संसद में प्रवेश के लिए किया है.'
मधु लिमये अपनी किताब में आगे लिखते हैं - 'शासक दल और पार्टियां लोकसभा या विधानसभा के चुनावों में हारे हुए उम्मीदवारों को और अपने चहेतों को राज्यसभा के लिए जितवाती रही हैं और बाद में मंत्रिमंडल में भी शामिल करती रही हैं. उदाहरण हैं- दिनेश सिंह (हरियाणा), प्रणब मुखर्जी (गुजरात) और मनमोहन सिंह (असम).'
मधु लिमये के बारे में जानिए...
मधु लिमये भारत में समाजवादी सियासत के बड़े चेहरे थे. वे राम मनोहर लोहिया की विचारधारा पर चलने वाले नेता थे. मूल रूप से वे महाराष्ट्र के पुणे से थे, लेकिन बिहार से चार बार लोकसभा का चुनाव जीते. वे गोवा लिबरेशन आंदोलन में सक्रिय रहे और जेपी आंदोलन में भी वे सक्रिय रहे. इंदिरा गांधी के इमरजेंसी लागू करने के विरोध में वे मुखर स्वर थे. वे जेल भी गए. इमरजेंसी के खिलाफ विपक्षी एकजुटता के लिए वे सक्रिय रहे. जब मोरार जी देसाई की सरकार बनी तो मंत्री बनने का ऑफर भी उन्होंने ठुकरा दिया. उस दौरे के पत्रकार उनकी ईमानदारी के कई किस्से भी सुनाते हैं ,जब जेल में रहते हुए लिमये ने संसद से इस्तीफा दिया और अपनी पत्नी को चिट्ठी लिखकर सरकारी बंगला तुरंत खाली कराकर घर का सामान सड़क पर रखवा दिया.
(नोट- चूंकी ये पुस्तक 1990 के दशक में लिखी गई है इसलिए नाम और उदाहरण भी उसी वक्त के हैं. हालांकि, मधु लिमये के तर्क से इतर एक पहलू ये भी है कि अगर राज्यसभा का सिस्टम नहीं होता तो राष्ट्रपति रहे भारत रत्न प्रणब मुखर्जी और देश के प्रधानमंत्री रहे डॉ. मनमोहन सिंह जैसी शख्सियतों के अनुभव का लाभ देश को नहीं मिल पाता.)
संदीप कुमार सिंह