कुष्ठ रोग को एक जमाने में कोढ़ के रूप में किसी शाप या अजाब की तरह देखा जाता था. जिन्हें ये रोग हुआ, वो समाज से अलग-थलग पड़ जाते थे. एक तरफ बीमारी इनके शरीर के अंगों को छीनती थी तो दूसरी तरफ करीबी यार-दोस्त और सगे संबंधी खुद ब खुद किनारा कर लेते थे. इन्हें समाज में 'कोढ़ी' की अनचाही पहचान मिल जाती थी.
रोग के संक्रामक होने के कारण न ये लोग कोई रोजगार कर पाते थे और न बीमारी इनका घर बसने देती थी. दिल्ली में जिन इलाकों में कुष्ठ रोगियों को बसाया गया उन जगहों को भी नाम दे दिया गया कोढ़ी कॉलोनी. aajtak.in ने ऐसी ही एक कोढ़ी कॉलोनी गांधी आश्रम में जाकर देखा कि वहां लोग किन हालात में रह रहे हैं.
'एक बैटरी वाली साइकिल ही दिला दीजिए'
जगमगाते शहर दिल्ली के ताहिरपुर परिसर में गांधी ग्राम नाम की यह कुष्ठ कॉलोनी साल 1980 में बसाई गई. कॉलोनी में छोटे-छोटे घरों में 96 रोगियों को दूर-दूर बसाया गया था.यहां हम दोपहर करीब दो बजे पहुंचे. कॉलोनी के एक प्रवेश द्वार पर बड़ा सा मंदिर है, जहां से घुसते ही बैसाखी पर चलते करीब 70 साल के बुजुर्ग आते हैं. बात करने पर कहते हैं कि मेरा नाम सही से लिखिए, तबसी, तपसी नहीं मेरा नाम तवसी अप्पन है.
वो मद्रास के रहने वाले हैं, लेकिन कुष्ठ रोग के कारण इलाज के लिए 1971 में दिल्ली आ गए थे. यहीं उनकी इलाज के दौरान अपनी पत्नी से मुलाकात हुई थी और उन्होंने शादी कर ली थी. पत्नी तो रही नहीं, अब एक बेटा है जिसे पढ़ा-लिखा तो नहीं पाए, लेकिन मेहनत मजदूरी करके उनका भरण पोषण करता है. अप्पन बताते हैं कि कुष्ठ रोग ने उनके हाथों की उंगलियां और एक पैर छीन लिया. अप्पन कहते हैं कि छोटी-सी पेंशन से कुछ नहीं होता, कुछ नहीं तो सरकार से हमें एक बैटरी वाली साइकिल ही दिला दीजिए, अब बैसाखी में चला नहीं जाता.
जगह-जगह खंभों पर स्पीकर
आगे बढ़ते ही कॉलोनी में कच्चे पक्के मकानों का अजीब सा मेल दिखता है. यहां कुछ मकान पक्की छतों वाले हैं तो कुछ दो मंजिला फ्लैट तो कई 25 गज के घर ऐसे हैं जिनमें आज भी कच्ची छत है. यहां जगह जगह खंभों में स्पीकर टंगे हैं. बताया जाता है कि इन स्पीकर्स से अस्पताल से दवा की सूचना आती है.हर सप्ताह इन्हें घावों की ड्रेसिंग के लिए सामग्री और दवाएं दी जाती हैं. इसके अलावा इन रोगियों को अन्य जानकारी भी इन्हीं स्पीकरों से दी जाती है. ये व्यवस्था कई सालों से यहां सतत जारी है.
मिलती-जुलती हैं दर्द में डूबी इनकी कहानियां
कॉलोनी में और भीतर घुसने पर एक घर के सामने करीब आठ-दस बुजुर्ग महिलाओं का मजमा दिखता है. एक चबूतरे पर धूप में एक बुजुर्ग महिला लेटी है. पूछने पर पता चलता है कि आनंदी भी लंबे समय से इस रोग से जूझ रही हैं. उसके पति को भी लेप्रोसी थी, वो दुनिया में रहा नहीं. उसके एक बेटी थी जो शादी करके चली गई, अब एक रिश्तेदार का बेटा है जो कमाकर खाने को दे देता है. ऐसी ही कहानी 62 साल की विमला की भी है, उनके पति को कुष्ठ रोग था, उनकी मौत हो गई. विमला और आनंदी की तरह यहां बैठी ज्यादातर महिलाओं में से किसी की हाथों की उंगलियां तो किसी के पैरों की उंगलियां कुष्ठ रोग की भेंट चढ़ चुकी हैं. 45 वर्षीय सरस्वती का तो दुनिया में कोई नहीं बचा. किसी तरह पेंशन और दूसरों के दान पर उनका जीवन कट रहा है. 60 वर्षीय लक्ष्मी के हाथों की उंगलियां कुष्ठ रोग से गल चुकी हैं, उनकी सेवा बेटी दामाद कर रहे हैं.
18 साल की उम्र में दिल्ली आए थे
यहां चंद कदम पर ही कॉलोनी के एक छोर पर मो खान नियाजी का घर है. कॉलोनी के प्रधान कहे जाने वाले 65 साल के खान नियाजी यहां करीब 35 साल से रह रहे हैं. इनके हाथों की दसों उंगलियों में से कोई आधी तो कोई पूरी तरह कुष्ठ की भेट चढ़ चुकी हैं. भले ही इलाज से वो ठीक हो चुके हैं, लेकिन दोनों हाथों पर जख्मों के निशान अभी भी दिखते हैं. वो कहते हैं कि अब खुद का ध्यान बहुत रखना पड़ता है. आम लोगों की तुलना में हमारे घाव थोड़ी देर से भरते हैं. नियाजी बताते हैं कि वो यूपी से 18 साल की उम्र में दिल्ली आए थे. उनकी ही तरह लेप्रोसी अस्पताल में आने वाले तमाम मरीज दर-दर भटक रहे थे, जिन्हें तब की सरकार ने बसा दिया था.
भीख मांगने के सिवा नहीं था कोई रास्ता
मो नियाज आगे बताते हैं कि यहां रहने वाले हर मरीज ने अपनी जिंदगी में बहुत कुछ सहा है. हम सबने अपने दुख साथ बांटे हैं, कुष्ठ रोगियों के सामने भीख मांगने के सिवा कोई चारा नहीं था. हमें तब सड़कों से भी हटा दिया जाता था. समाज और परिवार का तिरस्कार झेलकर यहां 25 गज के कच्ची छतों वाले घर मिले थे. सरकार हमारा इलाज फ्री करती है. हमें पेंशन के नाम पर 2500 रुपये प्रतिमाह मिलते हैं जो आज की महंगाई के समय बहुत कम है.
यहां सरकार ने कच्ची छतें दी थीं, जिसे फिर पक्का नहीं कराया. जिनके परिवार बस गए और बच्चे कमाने लगे, वही यहां अपनी छतें पक्की करा पाए. बाकी जो अकेले हैं, वो आज भी कच्चे घरों में रह रहे. कई लोग आज भी भीख मांगकर ही गुजारा करते हैं. बस यह है कि इस कॉलोनी में अपने जैसे रोग से जूझ रहे लोगों के साथ रहकर हमें यहां की आदत पड़ चुकी है. अभी भी गांव जाने का मन नहीं करता, वहां लोग हमें इस तरह नहीं अपनाएंगे जैसे यहां लोग समझते हैं. अब भी लोगों को ये जागरूकता नहीं है कि ऐसे कुष्ठ रोग नहीं फैलता.
बाहर लोग बीमारी के नाम से ही डरते हैं
मो नियाजी की पत्नी जरीना बेगम कहती हैं कि मैं इनकी सारी देखभाल करती हूं. बच्चे भी इनके साथ खेलते हैं, हमें कभी इस रोग का डर नहीं लगा. न हमें कभी ये रोग हुआ. हमें ही नहीं, यहां रहने वाले किसी मरीज के बच्चे या अगर पहले से जिसे रोग नहीं था, उसे भी कुष्ठ नहीं हुआ, लेकिन लोग अभी भी इस रोग के नाम से ही डरते हैं. बाहर तभी लोग अपना पता इस कॉलोनी के पुराने नाम से नहीं बताते.
मो नियाज के घर से सटे एक कच्चे घर में मोइनुद्दीन रहते हैं. वो भी बताते हैं कि मेरे माता पिता दोनों को कुष्ठ रोग था. वो लोग बिहार से यहां आए थे. दोनों की मैंने सेवा की, मुझे या मेरी पत्नी को कभी ये रोग नहीं हुआ. बस, हां गरीबी जरूर रही क्योंकि माता पिता हमें पढ़ा नहीं पाए. मोइनुद्दीन की बेटी फातिमा का बचपन भी इसी इलाके में कुष्ठ रोगियों के साथ ही बीता है. फातिमा कहती हैं कि मेरे दादा दादी के साथ दोनों भाई और मैं रहते थे, हमें कभी इस रोग का डर नहीं हुआ.
फातिमा कहती हैं कि लेकिन यहां से बाहर तो अभी भी लोग इस बीमारी के नाम से डरते हैं. इसलिए मैं कहीं भी जाती हूं तो अपनी पहचान ये कहकर नहीं देती कि मैं कोढ़ी कॉलोनी से हूं, मैं खुद को दिलशाद गार्डेन का ही बताती हूं. वरना हम सबको बाहर काम मिलना भी शायद मुश्किल हो जाए
2500 रुपये की पेंशन से परिवार चलाना आसान नहीं
इसी इलाके में रहने वाले समाजसेवी अरुण कुमार शर्मा कहते हैं कि इन कॉलोनियों को कभी शहर के एक किनारे समाज से अलग-थलग बसाया गया था. लेकिन आज दिल्ली में क्राउड बढ़ने के बाद ये कॉलोनियां भी सघन हो गई हैं. जब इन लोगों के परिवार बसे तो कई रोगियों के बच्चों ने पढ़-लिखकर अपने मां बाप के छोटे से घर को ही पुनर्निर्माण करके दो या तीन मंजिला घर बना दिए. अब कई लोग जिनके घर बन गए, उन्होंने अपने घरों में किरायेदार भी रखे हैं, जिससे उनका रोजमर्रा का खर्च चल पाता है. सरकार की 2500 रुपये की पेंशन से परिवार चलाना आसान नहीं होता. जिन लोगों के परिवार में कोई नहीं है, वो आज भी झोपड़ीनुमा घर में रह रहे हैं. अरुण कहते हैं कि इन कॉलोनियों में किरायेदार भी बहुत मुश्किल से मिलते हैं, कई लोग लेप्रोसी कॉलोनी या कुष्ठ रोग या कोढ़ी कॉलोनी नाम सुनकर डर जाते हैं.
स्थानीय निवासी विजय वर्मा कहते हैं कि यहां रहने वाले पुराने मरीज आपस की बातचीत में इसे कोढ़ी कॉलोनी ही कहते हैं लेकिन ये लोग हमेशा लोगों से दूर रहे, तो आज भी ये समाज के सामने खुलकर नहीं आते. उनके परिवार के लोगभी बाहर कोढ़ी कॉलोनी की पहचान से बचते हैं. जब ये मरीज किसी सार्वजनिक यातायात जैसे बस या मेट्रो से सफर करते हैं या दिल्ली के किसी दूसरे इलाके में बसने जाते हैं तो किसी से अपनी पहचान गांधी आसपास के इलाके जैसे दिलशाद गार्डेन, जीटीबी इनक्लेव आदि बताते हैं. इन्होंने लोगों का तिरस्कार इतना सहा है कि अब अपनी पहचान बताने से भी डरते हैं.
मंदिर में घंटी बजती है तो सब दौड़ पड़ते हैं
इस कॉलोनी के बाहर एक पुराना मंदिर स्थिेत है. इस मंदिर में बहुत से लोग कपड़े या अन्य चीजें दान करने आते हैं. दानदाता के आने पर मंदिर की घंटी जोर जोर से बजाई जाती हैं. मंदिर की घंटी बजते ही कॉलोनी के रोगी मंदिर पहुंच जाते हैं. यह परंपरा तब से बताई जाती है जब लोग इन्हें छूते तक नहीं थे.आज भी शहर के कई परिवार ऐसे हैं जो नियमित तौर पर इस मंदिर में दान देने जाते हैं.
जागरुकता ने भी बहुत कुछ बदला
दिव्यांगों और कुष्ठ रोगियों के रखरखाव और उनकी सहायता के लिए करीब 20 सालों से काम कर रहे पूर्वांचल विकास मंच के डॉ राकेश रमन झा कहते हैं कि ताहिरपुर में तकरीबन 28 कुष्ठ कॉलोनियां हैं, ये गांधी आश्रम कॉलोनी है, यहां 96 कुष्ठ रोगियों के परिवार रहते हैं. इसी तरह विलेज ऑफ होप भी ऐसी ही कॉलोनी है. आनंद ग्राम में करीब 102, कस्तूरबा ग्राम में 175, मानव सेवा में 42 परिवार रहते हैं. इसी इलाके में शांति समिति, जय हिंद, सरस्वती, गंगा जमना सेवा समिति, सरस्वती कॉलोनी, प्रियदर्शि्नी विहार, एकता विहार, सीमापुरी बी, सर्वोदय और विलेज ऑफ होप ऐसी कॉलोनियां हैं जहां मिलाकर आज भी हजारों की संख्या में कुष्ठ रोगी रह रहे हैं. वो बताते हैं कि कभी इन रोगियों को अलग थलग बसाया गया था लेकिन इस बीमारी को लेकर जागरुकता ने भी बहुत कुछ बदला है.
डॉ राकेश रमन कहते हैं कि आंकड़ों के अनुसार 1992 के बाद कुष्ठ रोग के मामलों में लगातार गिरावट आई है, लेकिन उत्तर-पूर्वी दिल्ली और दक्षिणी दिल्ली से बच्चों में नए मामले भी सामने आ चुके हैं. सरकार भले ही इस बीमारी के बारे में पर्याप्त जागरूकता पैदा करने की दिशा में काम कर रही है फिर भी ये भेदभाव कम नहीं हुआ है. कुष्ठ रोग पूरी तरह से ठीक हो सकता है, फिर भी बहुत सारे मिथक और डर हैं जो ठीक हो चुके कुष्ठ रोगी को मेन स्ट्रीम में स्वीकार करने की प्रक्रिया को कठिन बना देता है. मैंने अपने 20 सालों के अनुभव में देखा है कि इन रोगियों के परिवारों में कुष्ठ रोग नहीं फैला है. ये लोग साथ ही रहते हैं, इनके परिवार एकदम स्वस्थ हैं.
मानसी मिश्रा