तीन साल का विहान जमीन पर बैठा स्पेस वाली किताब के पन्ने पलट रहा है. सोफे पर बैठी उसे देख रही उसकी मां अनन्या के होठों पर मुस्कान है लेकिन माथे पर चिंता की लकीरें साफ नजर आ रही हैं.
वो मुस्कुराते हुए पूछती हैं कि वो सारे ग्रहों के नाम जानता है, लेकिन किसी से ज्यादा बात नहीं करता. बाकी बच्चे दिनभर बोलते रहते हैं, वो बस सुनता रहता है. क्या ये नॉर्मल है?
ये अकेली चिंता अनन्या की ही नहीं बहुत से पेरेंट्स ऐसे हैं जो इस डर से जूझते हैं. जब बच्चा ज्यादा नहीं बोलता, दूसरों से घुलता-मिलता नहीं या अपनी ही दुनिया में खोया रहता है. लेकिन हर बार चुप रहना किसी दिक्कत की निशानी नहीं होता. कभी-कभी ये गहरी सोच या इंटेलिजेंट होने का संकेत भी हो सकता है.
आइंस्टीन: मैंने भी देर से बोलना शुरू किया था
आइंस्टीन ने अपनी आत्मकथा में लिखा था कि सच है कि मेरे माता-पिता चिंतित थे क्योंकि मैंने काफी देर से बोलना शुरू किया था, उन्होंने डॉक्टर तक से सलाह ली.लेकिन वही बच्चा आगे चलकर दुनिया का सबसे बड़ा वैज्ञानिक बना जिसने रिलेटिविटी और स्पेस-टाइम जैसे कॉन्सेप्ट समझाए. आइंस्टीन का 'देर से बोलना' दरअसल सोच का धीमापन नहीं बल्कि गहराई थी जो शब्दों से पहले विचार बन रही थी.
आइजैक न्यूटन: जो अकेले पेड़ के नीचे बैठता था
न्यूटन भी एक शांत स्वभाव वाला बच्चा था. वो कम बोलता, क्लास में खेल-कूद की बजाय मैकेनिकल खिलौने बनाना पसंद करता और ज्यादातर अकेले रहता. एक सहपाठी ने उन्हें गंभीर, शांत और सोचने वाला लड़का कहा था. वही बच्चा आगे चलकर गति और गुरुत्वाकर्षण के नियमों का जनक बना. वो भी बहस करके नहीं बल्कि गहरी ऑब्जर्वेशन से खुद को प्रूव किया.
चार्ल्स डार्विन: मैं साधारण बच्चा समझा जाता था
डार्विन ने अपनी आत्मकथा में लिखा कि मेरे सभी शिक्षक और पिता मुझे औसत या उससे भी नीचे दर्जे का छात्र मानते थे. वो शर्मीला, जल्दी विचलित होने वाला और खुद को व्यक्त करने में धीमा था. लेकिन वही साधारण बच्चा बाद में बायोलॉजी को नई दिशा देने वाला बना. कीड़े-मकौड़ों, पक्षियों और पौधों को घंटों चुपचाप देखकर उसने 'द आरिजिन ऑफ स्पेसीज' लिखी.
इमैनुअल कांट: भीतर की दुनिया का दार्शनिक
दार्शनिक कांट ने कहा था कि दो चीजें मेरे मन को हमेशा नए आश्चर्य और सम्मान से भर देती हैं. वो दो चीजे हैं, मेरे ऊपर तारों भरा आकाश और मेरे भीतर का नैतिक नियम. कांट का बचपन भी बेहद शांत बीता. उसका सन्नाटा किसी झिझक का नहीं बल्कि गहरी सोच का प्रतीक था जिसने आधुनिक नैतिक दर्शन की नींव रखी.
रवीन्द्रनाथ टैगोर: सपनों में खोया बच्चा
भारत के नोबेल पुरस्कार विजेता रवीन्द्रनाथ टैगोर बचपन में क्लासरूम से ऊब जाते थे. टीचर कहते थे कि ये हमेशा ख्यालों में खोया रहता है. लेकिन उनके पिता ने उन्हें प्रकृति से सीखने दिया. वो खिड़की से बाहर देखते-देखते कविताएं रचते थे. वही बच्चा आगे चलकर भारत का राष्ट्रगान लिखने वाला बना और शिक्षा को रचनात्मकता से जोड़ने वाला विचारक बना.
'लेट टॉकर' पर साइंस क्या कहती है
आज एक्सपर्ट भी मानते हैं कि देर से बोलना हमेशा कोई दिक्कत नहीं है. वैंडरबिल्ट यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर के प्रोफेसर डॉ. स्टीफन कैमारा्टा कहते हैं कि हर 'लेट टॉकर' को लैंग्वेज डिसऑर्डर नहीं होता. कई बच्चे बस देर से बोलते हैं लेकिन बाद में बिल्कुल नॉर्मल डेवलपमेंट दिखाते हैं.
(स्रोत: Camarata, S. (2015). Late-Talking Children: A Symptom or a Stage? MIT Press)
डॉक्टरों का कहना है कि असली संकेत ये नहीं है कि बच्चा कितने शब्द बोल रहा है बल्कि ये है कि
क्या वो आंखों से संपर्क करता है? क्या उसमें जिज्ञासा है? क्या वह कहानियों या प्यार पर रिएक्ट करता है? यानी शुरुआती बातों से ज्यादा जरूरी है उसकी इंगेजमेंट और कनेक्शन.
क्या होती है चुप दिमाग की ताकत
इतिहास बताता है कि गहरी सोच वाले मन अक्सर चुप रहते हैं. आइंस्टीन ने ही कहा था कि एक शांत और साधारण जीवन की एकरसता रचनात्मक सोच को बढ़ावा देती है. आज जब दुनिया हर समय बोलने, दिखने और परफॉर्म करने पर जोर देती है तो शायद सबसे बड़ा हुनर 'रुकना, सुनना और सोचना' है. विहान की मां अनन्या अब मुस्कुराती हैं कि शायद वो बस सोच रहा है. उसका बेटा अब भी किताब में शनि के छल्लों को उंगली से छू रहा है. आज वो एक चुप बच्चा है… शायद कल वही बड़ा सोचने वाला आइंस्टीन बने.
मेघा चतुर्वेदी