उस नेता की कहानी जिससे शुरू हुआ 'आया राम गया राम' का किस्सा, डिस्टर्ब हो गई एक देश-एक चुनाव की परंपरा!

हरियाणा की राजनीतिक स्थिरता ने केंद्र सरकार को ना सिर्फ दल-बदल से जुड़ा कानून बनाने के लिए मजबूर किया, बल्कि एक देश, एक चुनाव को भी डिस्टर्ब कर दिया था. उसके बाद देश में राजनीतिक हालात कुछ ऐसे बने कि विधानसभा और लोकसभा के चुनाव अलग-अलग होने लगे.

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हरियाणा में नेताओं के पाला-बदल से सरकारें बनती और बिगड़ती रही हैं. (Credit: Getty) हरियाणा में नेताओं के पाला-बदल से सरकारें बनती और बिगड़ती रही हैं. (Credit: Getty)

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 23 सितंबर 2024,
  • अपडेटेड 2:16 PM IST

हरियाणा में विधानसभा चुनाव हैं और नेताओं के 'आया राम, गया राम' के किस्से चर्चा में हैं. हाल में सबसे ज्यादा चर्चा में गायक कन्हैया मित्तल आए. उन्होंने पहले कांग्रेस में जाने के साफ संकेत दिए और फिर कुछ ही घंटे बाद अचानक मन बदला और सफाई में कहा कि पिछले दो दिनों में यह अहसास हुआ कि मेरे सभी सनातनी भाई-बहन और बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व मुझे बहुत प्यार करता है. कन्हैया के दोनों वीडियो सोशल मीडिया पर ट्रेंड में आ गए. हालांकि, हरियाणा में दल-बदल कोई नई बात नहीं है. 57 साल पहले हरियाणा की राजनीति में ही 'आया राम गया राम' मुहावरा पहली बार गढ़ा गया था. यहां राजनीतिक इतिहास रहा है कि नेताओं ने पार्टियों को कपड़ों की तरह बदला.

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70 के दशक में हरियाणा की राजनीतिक स्थिरता ने केंद्र सरकार को ना सिर्फ दल-बदल से जुड़ा कानून बनाने के लिए मजबूर किया, बल्कि एक देश, एक चुनाव को भी डिस्टर्ब कर दिया था. उसके बाद देश में राजनीतिक हालात कुछ ऐसे बने कि विधानसभा और लोकसभा के चुनाव अलग-अलग होने लगे. हालांकि, कई राज्यों में आज भी लोकसभा के साथ विधानसभा के चुनाव होते हैं. 

सबसे पहले जानिए 'आया राम, गया राम' से जुड़ा पूरा किस्सा...

राजनीति में आया राम, गया राम का किस्सा हरियाणा से जुड़ा है. एक नवंबर 1966 को पंजाब से अलग होने के बाद हरियाणा राज्य बना और 1967 में पहली बार विधानसभा चुनाव हुए. कांग्रेस ने 81 में से 48 सीटों पर जीत हासिल की. भारतीय जनसंघ को 12, स्वतंत्र पार्टी को तीन और रिपब्लिन आर्मी ऑफ इंडिया को दो सीटें मिलीं थीं. 16 सीटों पर निर्दलीय जीते थे. इनमें एक नाम गया लाल का था. वे पलवल जिले की हसनपुर (रिजर्व सीट) से 360 वोटों से जीते थे. उन्होंने कांग्रेस उम्मीदवार एम सिंह को हराया था. हसनपुर सीट, अब होडल में समायोजित हो गई है.

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गया लाल ने पहले कांग्रेस का समर्थन किया

राज्य में पहली बार कांग्रेस की सरकार बनी. 10 मार्च 1967 को भगवती दयाल शर्मा ने सीएम पद की शपथ ली. गया लाल ने कांग्रेस को समर्थन किया. हालांकि, यह सरकार बहुत दिन नहीं चल सकी और हफ्तेभर के भीतर ही दक्षिणी हरियाणा के असंतुष्ट नेता राव बीरेंद्र सिंह ने कांग्रेस के 37 विधायकों के साथ बगावत कर दी. उन्होंने स्वतंत्र पार्टी, जनसंघ और निर्दलीय विधायकों के समर्थन से 24 मार्च को 1967 को नई सरकार बना ली. इस नए मोर्चे को नाम दिया गया- संयुक्त विधायक दल (SVD). 

जब 9 घंटे में तीसरी बार गया लाल ने पाला बदला

निर्दलीय गया लाल भी नई सत्ता का हिस्सा बनना चाहते थे. असमंजस के बीच उन्होंने बड़ा फैसला लिया और कांग्रेस छोड़कर बीरेंद्र सिंह के संयुक्त मोर्चे में चले गए. गया लाल का पाला-बदलने का सिलसिला थमा नहीं. उन्होंने 9 घंटे के भीतर ही तीन बार पाला-बदला. कांग्रेस से SVD में आए. फिर वापस कांग्रेस में गए और अचानक मन बदला और दोबारा SVD में आ गए.

जब गया लाल दूसरी बार SVD में आए तो सीएम राव बीरेंद्र सिंह ने चंडीगढ़ में प्रेस कॉन्फ्रेंस की और गया लाल का सबसे परिचय कराया. सीएम ने ऐलान किया, 'गया राम, अब आया राम हैं.' कहते हैं कि गया लाल के अप्रत्याशित पाला-बदल के घटनाक्रमों ने राजनीति में 'आया राम, गया राम' का नया मुहावरा गढ़ दिया.

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गया लाल के रुख ने हरियाणा में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल पैदा कर दिया. बीरेंद्र सिंह सरकार से भी विधायक छिटकने लगे. 44 विधायकों ने पार्टी बदल ली. एक सदस्य ने पांच बार, दो सदस्यों ने चार बार, तीन विधायकों ने तीन बार, चार विधायकों ने दो बार और 34 विधायकों ने 1 बार अपना खेमा बदला. 

गया लाल ने बेटे उदयभान को सौंपी राजनीतिक विरासत

हरियाणा में बीरेंद्र सिंह की सरकार करीब आठ महीने चली. 2 नवंबर को उन्होंने सीएम पद से इस्तीफा दे दिया. राज्य की विधानसभा भंग हो गई और साल 1968 में फिर विधानसभा चुनाव कराए जाने की नौबत बन गई. गया लाल उसके बाद भी कई दलों में गए. उनमें आर्य सभा, भारतीय लोक दल और जनता पार्टी का नाम भी शामिल है. गया लाल का साल 2009 में निधन हो गया. उन्होंने अपनी राजनीतिक विरासत बेटे उदयभान को सौंपी. उदयभान भी कई पार्टियों का हिस्सा रहे हैं. वर्तमान में वे हरियाणा कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष हैं.

पाला-बदल से बनती और बिगड़ती रहीं सरकारें

जानकार कहते हैं कि हरियाणा में कई विधायकों और मंत्रियों ने व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के चलते खुलकर पाला बदला. जिसके कारण राज्य की सरकारें बनती और बिगड़ती रहीं. एक समय ऐसा भी आया कि दल-बदल लोकतंत्र के लिए बड़ी चुनौती बन गया. एक रिपोर्ट के मुताबिक, 1957 से 1967 के बीच 542 बार सांसदों और विधायकों ने पार्टी बदली. 1967 के आम चुनाव से पहले 430 बार सांसदों-विधायकों ने पार्टी बदल डाली. 1967 के बाद तो एक रिकॉर्ड भी बना, जिसमें दल बदलुओं के कारण 16 महीने के भीतर ही 16 राज्यों की सरकारें गिर गईं. हरियाणा में 1979 में जनता पार्टी से जुड़े चौधरी देवीलाल की सरकार भी गिर गई थी. राज्य सरकार में मंत्री रहे भजनलाल ने ना सिर्फ मुख्यमंत्री की कुर्सी हथिया ली थी, बल्कि पार्टियों और विधायकों की ऐसी उठापटक की थी, जो इतिहास में दर्ज हो गई.

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दल-बदल को लेकर कब आया कानून, क्या है नियम?

80 के दशक तक ऐसी घटनाओं में बहुत तेजी देखने को मिली. इस बीच, इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई. 1984 के लोकसभा चुनाव के लिए राजीव गांधी को कांग्रेस का फेस बनाया गया. तब राजीव ने लोगों से दल-बदल कानून लाने का वादा किया. कांग्रेस सत्ता में लौटी. राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाया गया. सत्ता संभालने के 8 हफ्ते के भीतर ही उन्होंने 1985 में दल बदल विरोधी कानून लागू कर दिया.

इस कानून में कहा गया कि अगर कोई विधायक या सांसद अपनी मर्जी से पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में जाता है तो उसे अयोग्य करार दिया जा सकता है. इसमें ये भी प्रावधान था कि अगर कोई विधायक या सांसद पार्टी व्हीप का पालन नहीं करेगा तो भी उसकी सदस्यता जा सकती है. दल बदल को रोकने के लिए कानून तो बना दिया गया लेकिन नेताओं ने इसका तोड़ भी निकाल लिया. 1985 में आए कानून में ये भी प्रावधान था कि अगर किसी पार्टी के दो-तिहाई विधायक या सांसद पार्टी बदलते हैं तो उनकी सदस्यता नहीं जाएगी. 2003 में इस कानून में सख्ती की गई, जिसके तहत अयोग्य सदस्यों को मंत्री बनाने पर रोक लगा दी गई. हालांकि, नेताओं ने इसका तोड़ निकाल लिया. पार्टियों ने दो-तिहाई विधायकों को तोड़कर राज्य सरकारों को गिराने का खेल शुरू कर दिया. इसके अलावा इससे बचने का एक और रास्ता भी है. वो ये कि सांसद-विधायक पहले अपनी सदस्यता से इस्तीफा देता है, फिर पार्टी छोड़ देता है.

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कैसे बंद हो गई एक देश, एक चुनाव की परंपरा....

देश में वन नेशन, वन इलेक्शन की चर्चा जोरों पर है. हालांकि, यह पहली बार नहीं है, जब वन नेशन वन इलेक्शन को अंतिम रूप देने की तैयारी चल रही है. इससे पहले देश में 1952, 1957, 1962 और 1967 तक चार बार लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ हुए हैं. यही वो समय था, जब हरियाणा समेत अन्य राज्यों में दल-बदल की वजह से राजनीतिक अस्थिरता का माहौल बना और फिर फिर एक देश, एक चुनाव की परंपरा बाधित हो गई. यह परंपरा साल 1968-69 में बंद हो गई. क्योंकि उस समय कुछ विधानसभाओं को समय से पहले ही भंग करने की नौबत बन गई थी. साल 1970 में केंद्र की कांग्रेस सरकार में भी बगावत हुई और इंदिरा गांधी की सरकार अल्पमत में आ गई. उसके बाद उन्होंने दिसंबर 1970 को लोकसभा भंग करने की सिफारिश कर दी. मार्च 1971 में समय से पहले पांचवीं लोकसभा के आम चुनाव हुए. इंदिरा गांधी ने प्रचंड जीत हासिल की. उस समय इंदिरा ने देश में गरीबी हटाओ का नारा दिया था.

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