जम्मू-कश्मीर के कठुआ में हुए गैंगरेप की घटना को लेकर हर कोई गुस्से में है. इस घटना को लेकर कई धार्मिक रंग भी सामने आ रहे हैं. बताया जा रहा है कि नाबालिग पीड़िता बकरवाल समुदाय से ताल्लुक रखती थी. आइए जानते हैं बकरवाल समुदाय से जुड़ी कई बातें...
जम्मू-कश्मीर में बकरवाल समुदाय के 3 से साढ़े तीन लाख परिवार रहते हैं. हालांकि अब कई परिवार जंगलों में चले गए हैं. उनकी प्रदेश में कोई जमीन नहीं है, क्योंकि वो मैदानी क्षेत्रों से जंगलों की ओर जा रहे हैं. प्रदेश की कुल जनसंख्या में उनका अहम हिस्सा है. इन्हें बनजारा मुस्लिम कहा जाता है.
ये घुमंतू समुदाय होता है, जो कि साल में अलग-अलग स्थानों पर रहते हैं. अक्टूबर से अप्रैल वे कठुआ, हीरानगर, जम्मू, अखनूर, सांबा, आरएसपुरा, बिशनाह में रहते हैं. वहीं अप्रैल से अक्टूबर तक वे अपने घोड़े, भेड़, बकरी और कुत्तों के साथ जंगल के क्षेत्रों में चले जाते हैं.
वे हीरानगर, कठुआ, पटनीटॉप, दुरु, वीरनाग, इशान पास जैसे पहाड़ी इलाकों में पैदल ही सफर करते हैं. वे इन्हीं इलाकों में रहते हैं, क्योंकि वे यहां के तापमान के अनुकूल होते हैं. उनके पास कोई पक्का घर नहीं होता है और वे जहां भी जाते हैं वहां अपना ढ़ीरा या कच्चा घर बना लेते हैं. साथ ही जब वो वहां से जाते हैं तो मिट्टी या घास के अपने घर को तोड़ देते हैं.
कई रिपोर्ट्स के अनुसार गुज्जर और बकरवाल मूल रूप से राजपूत हैं, जो अलग-अलग कारणों से गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र से कश्मीर में चले गए थे. प्राचीन कश्मीर के इतिहास कल्हाना में, राजतरंगणिनी में इन लोगों का 9वीं और 10वीं शताब्दी में कश्मीर की सीमा पर रहने का उल्लेख मिलता है. कहा जाता है कि कुछ शताब्दी पहले उन्होंने मुस्लिम धर्म अपना लिया और फिर वे दो अलग-अलग संप्रदायों गुज्जर और बकरवाल में विभाजित हो गए.
उन्हें साल 1991 में केंद्र सरकार की ओर से एसटी का दर्जा दिया गया था और उन्हें राज्य-केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण मिलता है. इन्हें 10 राज्य सरकार की नौकरियों में 10 फीसदी और केंद्र की नौकरियों में 7 फीसदी फायदा मिलता है.
बता दें कि यह भारतीय सेना के लिए जासूस का काम करते हैं. वे चीन और पाकिस्तान के सीमा से जुड़े इलाकों में भारतीय सेना को सूचना देना का काम करते हैं. कारगिल वार के दौरान बकरवाल समुदाय के लोगों ने ही भारतीय सेना को सूचना दी थी कि पाकिस्तानी सेना के जवान भारत की सीमा में घुस रहे हैं.
यह भारतीय सेना के लिए मददगार साबित होते हैं और सुरक्षा बलों और सेना की मदद करते हैं. बता दें कि जम्मू के पूंछ में हिल काका ऑपरेशन सफल होने की वजह भी यह समुदाय है. इस दौरान इन्होंने भारतीय सेना की मदद की, जिससे 75 पाकिस्तानी और लोकल आतंकी मारे गए थे.
अमरनाथ यात्रा के दौरान वे अमरनाथ गुफा में ही रहते हैं और यात्रियों के लिए घोड़ा-सवारी का काम करते हैं. युद्ध के वक्त भी वे भारतीय सेना के साथ काम करते हैं. कई बार वो आंतकियों को कुछ ऐसी दवाइयां दे देते हैं, जिससे कि वो सो जाते हैं और यह समुदाय सेना को सूचना दे देता है.
हाल ही में राज्य सरकार ने इस समुदाय के लिए 110 मोबाइल स्कूल खोलने की योजना बनाई है ताकि उनके बच्चे पढ़ाई कर सके. इनमें अधिकतर लोग अनपढ़ होते हैं और वो अपनी बच्चियों को स्कूल नहीं भेजते हैं क्योंकि वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते हैं. वे जब मैदानी इलाकों में रहते हैं, तब 6 महीने पढ़ाई करते हैं.