सायरन की गूंज और ब्लैकआउट... 1971 की जंग से पहले भी हुई थी मॉक ड्रिल, ऐसा होता था माहौल!

Civil Defence mock drill in India: युद्ध के दौरान दुश्मन के हवाई हमलों से बचने के लिए ब्लैकआउट का पालन अनिवार्य था. सुमेर सिंह के अनुसार, "गांव में कोई रोशनी नहीं की जाती थी. चूल्हा जलाना भी मना था. अगर चूल्हा जलाना पड़ता, तो खिड़कियों पर कागज या पर्दे लगा दिए जाते ताकि रोशनी बाहर न जाए."

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कैप्टन भंवर सिंह राठौड़, ग्रामीण सुमेर सिंह और व्यवसायी गोविंद शर्मा ने बताया जंग के दौरान कैसे होती थी मॉक ड्रिल की तैयारी कैप्टन भंवर सिंह राठौड़, ग्रामीण सुमेर सिंह और व्यवसायी गोविंद शर्मा ने बताया जंग के दौरान कैसे होती थी मॉक ड्रिल की तैयारी

शरत कुमार

  • जयपुर,
  • 06 मई 2025,
  • अपडेटेड 6:34 PM IST

जम्मू और कश्मीर के पहलगाम में आतंकी हमले के बाद बॉर्डर पर तनाव बढ़ गया है. देशभर में 7 मई 2025 को युद्ध जैसी स्थिति के लिए मॉक ड्रिल का आयोजन होने जा रहा है. इस ड्रिल का मकसद नागरिकों को आपातकालीन परिस्थितियों के लिए तैयार करना है. इस मौके पर 1965 और 1971 के भारत-पाक युद्ध की यादें भी ताजा गई हैं, जब सायरन की आवाज के साथ बॉर्डर के आसपास के गांव में रहने वाले लोग युद्ध की तैयारियों में जुट जाते थे. उस दौर में सायरन बजते ही लोग घरों की बत्तियां बुझाकर खाइयों में छिप जाते थे. आइए, 1971 के युद्ध के समय की तैयारियों को उन लोगों की जुबानी समझते हैं, जिन्होंने इसे जिया.

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सायरन की आवाज: युद्ध की आहट
1971 के युद्ध के दौरान सायरन युद्ध की शुरुआत का संकेत होता था. ग्रामीण सुमेर सिंह बताते हैं, "सायरन धीरे-धीरे बजना शुरू होता था, जिससे हमें तैयारी का वक्त मिल जाता था. रेडियो के जरिए पहले ही सूचना मिल जाती थी कि जब तक युद्ध चल रहा है, ब्लैकआउट रहेगा." सायरन की आवाज सुनते ही लोग सतर्क हो जाते थे और किसी भी वक्त हमले की आशंका को देखते हुए तैयारियां शुरू कर देते थे. सायरन रात में भी बजता था, जिससे नागरिकों को तुरंत फैसले लेने पड़ते थे.

ब्लैकआउट का सख्त नियम
युद्ध के दौरान दुश्मन के हवाई हमलों से बचने के लिए ब्लैकआउट का पालन अनिवार्य था. सुमेर सिंह के अनुसार, "गांव में कोई रोशनी नहीं की जाती थी. चूल्हा जलाना भी मना था. अगर चूल्हा जलाना पड़ता, तो खिड़कियों पर कागज या पर्दे लगा दिए जाते ताकि रोशनी बाहर न जाए." यह ब्लैकआउट कई दिनों तक चलता था, और रेडियो के जरिए सूचनाएं दी जाती थीं. व्यावसायी गोविंद शर्मा बताते हैं, "सेना ने पहले ही हिदायत दे दी थी कि सायरन बजते ही लाइट बंद कर देनी है. हम खिड़कियों पर कागज चिपका देते थे ताकि रोशनी न दिखे."

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खाइयों में सुरक्षा की तलाश
युद्ध के समय नागरिकों की सुरक्षा के लिए खाइयां खोदी जाती थीं. गोविंद शर्मा याद करते हैं, "हमने अपने घरों के आसपास खाइयां खोद रखी थीं. सायरन बजते ही आसपास के लोग एक साथ खाइयों में भागकर छिप जाते थे. रात में सायरन बजने पर भी हम लाइट नहीं जलाते थे और तुरंत खाई में चले जाते थे." ये खाइयां हवाई हमलों से बचने का सबसे सुरक्षित तरीका थीं, और सेना की सलाह पर लोग इसे गंभीरता से मानते थे.

सेना की तैयारी और नागरिकों को जागरूकता
सेना का रोल युद्ध की तैयारियों में अहम था. कैप्टन भंवर सिंह राठौड़, जो 1965 औप 1971 के युद्ध में हिस्सा ले चुके हैं, बताते हैं, "हमें पहले बॉर्डर पर भेजा जाता था ताकि इलाके को समझ सकें. हम गांव वालों को बताते थे कि युद्ध की परिस्थितियों में क्या करना है." सेना बॉर्डर के पास पहुंचकर स्थिति का जायजा लेती थी और नागरिकों को पीछे हटने की सलाह देती थी. कैप्टन राठौड़ कहते हैं, "हम सभी सिविलियन्स को पहले सूचित करते थे कि पीछे हट जाएं ताकि जान-माल का नुकसान न हो."

रेडियो: सूचना का एकमात्र जरिया
उस दौर में रेडियो सूचना का सबसे विश्वसनीय साधन था. सुमेर सिंह बताते हैं, "रेडियो के जरिए ब्लैकआउट और युद्ध की खबरें मिलती थीं. जब तक युद्ध चलता, ब्लैकआउट की सूचना रेडियो से ही मिलती थी." सायरन के साथ-साथ रेडियो के जरिए दी जाने वाली सूचनाएं नागरिकों को समय पर सतर्क करती थीं. यह सुनिश्चित करता था कि लोग युद्ध की गंभीरता को समझें और नियमों का पालन करें.

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आज की मॉक ड्रिल: अतीत से सबक
7 मई 2025 को होने वाली मॉक ड्रिल 1965 और 1971 के युद्धों के अनुभवों से प्रेरित है. उस समय सायरन, ब्लैकआउट और खाइयों ने लोगों की जान बचाई थी. आज का यह अभ्यास नागरिकों को आपातकाल के लिए तैयार करने का प्रयास है, ताकि वे ऐसी परिस्थितियों में सही कदम उठा सकें. 1971 के युद्ध के अनुभव बताते हैं कि सेना और नागरिकों का तालमेल ही युद्ध के समय सुरक्षा की कुंजी है.

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