जानें क्‍यों है कोहिनूर दुनिया में मशहूर

किसी बेशकीमती चीज की तुलना कोहिनूर हीरे से की जाती है. लेकिन हैरान कर देने वाली बात यह है कि आज तक कभी इसकी कीमत ही नहीं लगाई गई है. जानें एेसा क्यों है-

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कोहिनूर हीरा एक बार फिर चर्चा में है और इसे देश में वापस लाने की मुहिम जोरों पर है. ऐसे में इस बेशकीमती हीरे के बारे में जानने को सभी उत्सुक हैं. वैसे एक बात बता दें कि आज तक कभी इसकी कीमत ही नहीं लगाई गई है.

कोहिनूर का मतलब: कोहिनूर का अर्थ होता है रोशनी का पहाड़

क्‍यों है खास:
कोहिनूर दुनिया का सबसे मशहूर हीरा है. मूल रूप में ये 793 कैरेट का था. अब यह 105.6 कैरेट का रह गया है जिसका वजन 21.6 ग्राम है. एक समय इसे दुनिया का सबसे बड़ा हीरा माना जाता था.

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वर्तमान में कहां है:
इस वक्त कोहिनूर हीरा ब्रिटेन के राजपरिवार के पास है। लंदन टॉवर, ब्रिटेन की राजधानी लंदन के केंद्र में टेम्स नदी के किनारे बना एक भव्य किला है जिसे सन् 1078 में विलियम द कॉकरर ने बनवाया था. राजपरिवार इस किले में नहीं रहता है और शाही जवाहरात इसमें सुरक्षित हैं जिनमें कोहिनूर हीरा भी शामिल है.

इतिहास:
कोहिनूर के बारे में यह मान्यता है कि वह कृष्णा नदी के पास, कुल्लूर की खदानों में मिला था. यह खदानें आज के आंध्र प्रदेश में स्थित हैं.
1850 में इसके बारे में चर्चा करते हुए ईस्ट इंडिया कंपनी के डायरेक्टर्स को पता लगा कि लोग मानते थे कि यह हीरा उस समय से करीब 5000 वर्ष पहले, महाभारत काल में मिला था.

ऐतिहासिक जानकारी यह है कि इस हीरे के बारे में सबसे पहले जिक्र बाबर की आत्मकथा बाबरनामा में मिलता है. बाबरनामा में बताया गया है कि किस तरह उसके प्यारे बेटे हुमायूं ने उसे यह अभूतपूर्व हीरा भेंट दिया था.

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जब हुमायूं ने इसकी कीमत आंकनी चाही तो बाबर ने उस से कहा कि इतने बेशकीमती हीरे की कीमत एक लट्ठ होती है, जिसके हाथ में भारी लट्ठ होगा उसके हाथ में यह हीरा होगा.

बाबर लिखता है कि पानीपत की लड़ाई में सुल्तान इब्राहिम लोदी को हराकर आगरा किले की सारी दौलत हुमायूं ने अपने कब्‍जे में ली. यहां हुमायूं को ग्वालियर के राजा ने एक बहुत बड़ा हीरा दिया. हुमायूं ने उसे अपने पिता को भेंट कर दिया.

17वीं सदी में बाबर के पड़पोते, शाहजहां ने अपने लिए एक विशेष सिंहासन बनवाया. इस सिंहासन को बनाने में सैयद गिलानी नाम के शिल्पकार और उसके कारीगरों की टीम को तकरीबन सात साल का समय लगा.

इस सिंहासन में कई किलो सोना मढ़ा गया, इसे अनेकानेक जवाहरातों से सजाया गया. इस सिंहासन का नाम रखा गया तख़्त-ए-मुरस्सा. बाद में यह ‘मयूर सिंहासन’ के नाम से जाना जाने लगा. बाबर के हीरे को भी इसमें मढ़ दिया गया. दुनिया भर के जौहरी इस सिंहासन को देखने आते थे. इन में से एक था वेनिस शहर का होर्टेंसो बोर्ज़िया.

बादशाह औरंगज़ेब ने हीरे की चमक बढ़ाने के लिए इसे बोर्ज़िया को दिया. बोर्ज़िया से काम के दौरान हीरे के टुकड़े-टुकड़े हो गए. यह 793 कैरट की जगह महज़ 186 कैरट का रह गया. औरंगज़ेब ने बोर्ज़िया से 10,000 रुपये ज़ुर्माना के रूप में वसूल किए. फिर 1739 में फ़ारस के शाह नादिर ने दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर लिया. नादिरशाह के सिपाही पूरी दिल्ली में कत्ले-आम कर रहे थे.

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इस रोकने के एवज़ में मुगल सुल्तान मुहम्मद शाह ने उसे मुगल तोशखाने से कोई 2,50,000 जवाहरात दिए. उनमें से एक यह हीरा भी था. कहा जाता है कि नादिरशाह ने ही इसे नाम दिया था कोह-ए-नूर यानि रौशनी का पर्वत. नादिरशाह की हत्या के बाद कोहिनूर अहमद शाह दुर्रानी के कब्जे में आ गया.

अहमद शाह दुर्रानी का बेटा, शाह शुजा, जब सिखों की हिरासत में लाहौर जेल में था तो कहा जाता है कि सिख महाराजा रणजीत सिंह ने उसके परिवार को तब तक भूखा प्यासा रखा जब तक कि शुजा ने कोहिनूर हीरा रणजीत सिंह के हवाले नहीं कर दिया.

सिखों को हराने पर कोहिनूर हीरा अंग्रेज ईस्ट इंडिया कम्पनी के हाथ लगा. भारत का वायसराय डलहौजी इसे अपनी आसतीन में सिलवा कर लंदन ले गया. वहां उसने कोहिनूर कंपनी के डायरेक्टर्स को भेंट में दे दिया.

कंपनी के डायरेक्टर्स ने तय किया कि चूंकि हीरा अमूल्य था, इसका कंपनी के लिए कोई इस्तेमाल नहीं था, तो बेहतर यह रहेगा कि इसे रानी विक्टोरिया को भेंट देकर कुछ सद्भाव ही हासिल कर लिया जाए. रानी विक्टोरिया ने इसे अपने ताज में जड़वा लिया.

कोहिनूर की कीमत: कोहिनूर हीरा अपने पूरे इतिहास में अब तक एक बार भी नहीं बिका है यह या तो एक राजा द्वारा दूसरे राजा से जीता गया या फिर इनाम में दिया गया. इसलिए इसकी कीमत कभी नहीं लग पाई.

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मान्‍यता:
1294 के आस-पास यह हीरा ग्वालियर के किसी राजा के पास था हालांकि तब इसका नाम कोहिनूर नहीं था. पर इस हीरे को पहचान 1306 में मिली जब इसको पहनने वाले एक शख्स ने लिखा कि जो भी इंसान इस हीरे को पहनेगा वो इस संसार पर राज करेगा. पर इसकी के साथ उसका दुर्भाग्य शुरू हो जाएगा. हालांकि तब उसकी बात को उसका वहम कह कर खारिज कर दिया गया. हालांकि अगर हम तब से लेकर अब तक का इतिहास देखें तो कह सकते हैं कि यह बात काफी हद तक सही है.

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