भारतीय रुपया डॉलर के मुकाबले पिछले कुछ समय में तेजी से गिरा है और आगे भी दबाव रहने का अंदेशा लगाया जा रहा है. जिस कारण यह सवाल उठ रहा है कि क्या 2026 में डॉलर के मुकाबले रुपया 100 के लेवल पर पहुंच सकता है? यह सवाल अब केवल मार्केट की अटकलों तक सीमित नहीं है, बल्कि एक गंभीर आर्थिक और पॉलिसी चर्चाओं का हिस्सा बन चुका है.
यह चर्चा इसलिए भी तेज हो गई है, क्योंकि भारत वैश्विक स्तर पर सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बना हुआ है. घरेलू खपत मजबूत बनी हुई है, कंपनियों की बैलेंस शीट पहले के दौर की तुलना में बेहतर स्थिति में हैं और शेयर बााजर मजबूती और स्थिरता पेश कर रहे हैं. वहीं करेंसी की स्थिति इससे बिल्कुल ही अलग है. लिक्विडिटी में कमी, कीमतों में एकतरफा उतार-चढ़ाव और केंद्रीय बैंक के हस्तक्षेप पर इसकी निर्भरता बढ़ चुकी है.
इसी कारण यह सवाल उठ रहा है कि रुपया डॉलर के मुकाबले 100 लेवल पर पहुंचेगा और ये अगर पहुंचेगा तो कितना बड़ा रिस्क है? आइए समझते हैं कि रुपया के इस लेवल पर पहुंचने के बाद क्या होगा और वे कौन-कौन से कारक रहेंगे कि रुपया 100 के लेवल तक जा सकता है.
रुपये में गिरावट की वजह?
एनरिच मनी की सीईओ पोनमुडी आर का कहना है कि रुपये पर दबाव केवल घरेलू कारकों के कारण नहीं है. कई वैश्विक और संरचनात्मक ताकतें USD/INR पर दबाव बनाए हुए हैं, जिनमें वैश्विक अनिश्चितता के दौर में अमेरिकी डॉलर की निरंतर मजबूती, अस्थिर पूंजी का बढ़ना-घटना और विदेशी पोर्टफोलियो में से निकासी, प्रोडक्ट-इम्पोर्ट पर निर्भर अर्थव्यवस्था में चालू खाता दबाव और बढ़ते जियो पॉलिटिकल रिस्क शामिल हैं. यह निवेशकों को सिक्योर प्रॉपर्टी में निवेश की ओर भेजते हैं. ऐसे में अगर ये संकट और बढ़ता है तो रुपये में आगे भी गिरावट हो सकती है.
रुपये का 100 के करीब पहुंचना कितना बड़ा रिस्क?
एनरिच मनी की सीईओ के अनुसार, डॉलर के मुकाबले रुपया 100 के स्तर की ओर बढ़ना किसी संकट के कारण नहीं होगा. अगर वैश्विक डॉलर की मजबूती जारी रहती है, पूंजी प्रवाह अस्थिर रहता है और घरेलू मुद्रा बाजार संरचनात्मक रूप से कमजोर बने रहते हैं, तो समय के साथ धीरे-धीरे रुपया यहां तक पहुंच सकता है. ऐसा कदम भारत की आर्थिक बुनियाद में विश्वास की कमी के बजाय मार्केट स्ट्रक्चर और ग्लोबल सेंटिमेंट को प्रभावित करेगा.
रुपये को कैसे स्थिर किया जा सकता है?
एक्सपर्ट का कहना है कि स्थिरता सख्त नियंत्रणों में नहीं, बल्कि बेहतर बाजार संरचना में शामिल है. सबसे पहले भागीदारी को प्रतिबंधित करने के बजाय उसका पुनर्गठन करना आवश्यक है. खुदरा और गैर-हेजिंग प्रतिभागियों को कैलिब्रेटेड पोजीशन लिमिट, मजबूत मार्जिन फ्रेमवर्क और प्रभावी निगरानी के साथ मुद्रा बाजारों में वापस आने की अनुमति देने से दोतरफा तरलता बहाल करने में मदद मिल सकती है.
दूसरा- डोमेस्टिक प्राइस तय को मजबूत करना महत्वपूर्ण है. घरेलू व्यापार गतिविधियों को प्रोत्साहित करने से विदेशी निर्भरता कम होती है और पारदर्शिता बढ़ती है.
तीसरा- डॉलर की संरचनात्मक मांग को कम करने के लिए निर्यात विविधीकरण और निरंतर व्यापार विस्तार आवश्यक है. आरबीआई और एसईबीआई के बीच घनिष्ठ समन्वय बेहद जरूरी है. मुद्रा बाजारों को अलग-थलग जोखिम क्षेत्रों के बजाय एकीकृत पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में देखा जाना चाहिए. अच्छी बात यह है कि इस तरह के सुनियोजित सुधारों पर चर्चा पहले से ही चल रही है.
आजतक बिजनेस डेस्क