कल्पना कीजिए, आप किसी गांव में पहुंचें और वहां एक भी व्यक्ति न दिखे—न कोई घर खुला हो, न चूल्हा जल रहा हो, न बच्चों की किलकारियां सुनाई दें. चारों ओर सन्नाटा पसरा हो. न बिजली की चहल-पहल, न चौपाल पर कोई हलचल. यह कोई फिल्मी दृश्य नहीं, बल्कि बिहार के बगहा स्थित थारू बहुल नौरंगिया गांव की जीवंत परंपरा है, जहां हर साल ग्रामीण एक दिन का 'वनवास' मनाते हैं.
सीता नवमी के दिन गांव के सभी निवासी बच्चे, महिलाएं, पुरुष और बुजुर्ग सुबह-सवेरे अपने घर छोड़कर जंगल की ओर चले जाते हैं. उस दिन गांव पूरी तरह वीरान हो जाता है. इसे 'वनवास' कहा जाता है.
परंपरा की जड़ें एक सदी पुरानी
स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, करीब 100 साल पहले गांव में महामारी, आगलगी और अन्य आपदाएं आम थीं. उसी दौरान बाबा परमहंस दास को स्वप्न में आदेश मिला कि यदि ग्रामीण एक दिन के लिए गांव खाली कर जंगल चले जाएं, तो संकट टल सकता है. तभी से यह परंपरा शुरू हुई और आज तक निभाई जा रही है.
'वनवास' का दिन कैसे मनाया जाता है
लोग जंगल में जाकर अस्थायी टोलियों में रहते हैं. वे चटाइयां बिछाते हैं, चूल्हा जलाकर खाना बनाते हैं, पूजा-पाठ करते हैं और दिनभर प्रकृति की गोद में समय बिताते हैं. सूर्यास्त के बाद ही वे गांव लौटते हैं.
ग्रामीणों की राय
स्थानीय पंचायत के मुखिया सुनील महतो बताते हैं, ''पहले गांव में बार-बार आग लगती थी. एक रात बाबा परमहंस दास को स्वप्न में किसी शक्ति ने कहा कि गांव को एक दिन के लिए खाली कर दिया जाए. तब से यह परंपरा निभाई जा रही है और गांव में शांति बनी हुई है.''
स्थानीय महिला चंद्रप्रभा देवी कहती हैं, ''हमें याद नहीं कि यह परंपरा कब शुरू हुई, लेकिन जब से इसे निभा रहे हैं, गांव में बड़ी आपदाएं नहीं आईं. हम हर साल एक दिन सुबह गांव छोड़ते हैं और शाम को लौटते हैं.''
ग्रामीण नंदलाल यादव बताते हैं, ''हम जंगल में ही खाना बनाते और खाते हैं, पूजा करते हैं. उस दिन कोई गांव में नहीं रुकता. यह हमारी जीवनशैली का हिस्सा है.''
अभिषेक पाण्डेय