खेती-किसानी की दुनिया बाहर से जितनी साधारण और बोरिंग नज़र आती है, भीतर से उतनी ही जटिल और रोचक है. इसमें राजनीति, अर्थशास्त्र और विज्ञान का अनोखा संगम दिखाई देता है. किसानों को बचाने और फसलों को सुरक्षित रखने के लिए सरकारें कई ऐसे कदम उठाती हैं, जिनकी कल्पना आम लोग शायद ही कर पाते हों. सरकार जहाँ एक ओर अनाज और सब्ज़ियों का उत्पादन बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर उर्वरकों का आयात करती है, वहीं ज़रूरत पड़ने पर कीटों का भी आयात किया जाता है.
यह सुनकर सबसे पहले सवाल उठता है—कीड़ों का आयात क्यों? आमतौर पर लोग कीड़ों को खेती के लिए खतरनाक मानते हैं, लेकिन हर कीट हानिकारक नहीं होता. असल में, अगर कोई बाहरी कीट भारतीय कृषि के लिए खतरा बन जाता है, तो सरकार उसके मूल क्षेत्र से उसका प्राकृतिक शत्रु कीट मंगाती है. ये दुश्मन कीट प्राकृतिक ढंग से उस हानिकारक कीट को खत्म कर देते हैं या उसके प्रकोप को कम कर देते हैं. इसी प्रक्रिया को क्लासिकल बायोलॉजिकल कंट्रोल कहा जाता है.
कसावा मिलीबग का मामला
अप्रैल 2020 में केरल के त्रिशूर ज़िले में एक विदेशी कीट कसावा मिलीबग (Cassava Mealybug) देखा गया, जिसने फसलों को संभावित नुकसान हो सकता था. मई 2020 में बेंगलुरु स्थित नेशनल ब्यूरो ऑफ एग्रीकल्चरल इंसेक्ट रिसोर्सेज (NBAIR) ने इसकी पहचान की. जल्द ही तमिलनाडु और केरल के टैपिओका (साबूदाना) खेतों में इसका संक्रमण फैल गया, जिससे उपज पर गहरा असर पड़ा. स्थिति को नियंत्रित करने के लिए भारत ने बेनिन स्थित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल एग्रीकल्चर (IITA) से कसावा मिलीबग के परजीवी एनागाइरस लोपेजी (Anagyrus Lopezi) का आयात किया.
यह परजीवी कीट मूल रूप से मध्य अमेरिका का है और दुनियाभर में कसावा मिलीबग के खिलाफ सबसे कारगर जैविक हथियार माना जाता है. 1970 के दशक में अफ्रीका में इसी मिलीबग ने कसावा फसल को तबाह कर दिया था. उस समय एनागाइरस लोपेजी को आयात कर बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया और लाखों लोगों की खाद्य सुरक्षा बचाई गई.
भारत में कीट आयात का इतिहास
डॉ. सुभाष चंदर, जो मशहूर कीटविज्ञानी और राष्ट्रीय एकीकृत कीट प्रबंधन संस्थान (NCIPM) के पूर्व निदेशक रह चुके हैं, बताते हैं कि भारत में कीट आयात की परंपरा काफी पुरानी है.
1930 के दशक में जब संतरे की फसल पर कॉटनी कुशन स्केल (Cottony Cushion Scale) नामक कीट का हमला हुआ, तब भारत ने ऑस्ट्रेलिया से उसका प्राकृतिक शत्रु लेडी बर्ड बीटल मंगाया. इस बीटल ने संक्रमण को काफी हद तक खत्म कर दिया.
1936-37 में सेब के बागानों पर वुली एप्पल एफिड (Woolly Apple Aphid) का प्रकोप हुआ. इसे नियंत्रित करने के लिए ब्रिटेन से एफेलिनस माली (Aphelinus Mali) परजीवी मंगाया गया, जिसने कुल्लू, कश्मीर घाटी और शिलांग जैसे इलाकों में सेब की खेती को बचाया.
इसी तरह, सेब पर हमला करने वाले सैन जोस स्केल (San Jose Scale) को रोकने के लिए भी यूके से एनकार्सिया पर्निसियोसी (Encarsia perniciosi) परजीवी कीट लाया गया और कश्मीर में इस्तेमाल किया गया.
कीटनाशकों पर निर्भरता क्यों खतरनाक है?
डॉ. सुभाष चंदर का मानना है कि जैविक नियंत्रण की यह पद्धति कीटनाशकों के इस्तेमाल से कहीं बेहतर है. उनका कहना है कि जब किसान जहरीले रसायनों का छिड़काव करते हैं तो हानिकारक कीटों के साथ-साथ लाभकारी मित्र कीट भी मर जाते हैं. इससे पारिस्थितिकी असंतुलित होती है और एक नया संकट जन्म लेता है.
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कुल मिलाकर, कृषि में कीड़ों का यह रहस्यमयी खेल हमें यह सिखाता है कि प्रकृति ने हर जीव के लिए संतुलन बनाने वाले शत्रु तैयार किए हैं. ज़रूरत केवल इन्हें सही समय पर पहचानने और इस्तेमाल करने की है. यही वजह है कि खेती को बचाने के लिए सरकार कभी-कभी कीटों का आयात भी करती है—ताकि कीट ही कीट से लड़कर किसानों की फसल और उनकी मेहनत सुरक्षित रख सकें.
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ओम प्रकाश