कभी मठ के साथ, कभी छत्तीस का आंकड़ा, गोरखपुर के इस दिग्गज पर दांव क्यों खेल रही है बीजेपी

पूर्वांचल की राजनीति, हमारे देश की राजनीति का ही प्रतिनिधित्व करती है. यहां की राजनीति में अगर किसी को सर्वाइव करना है तो उसका ब्राह्मण-ठाकुर-यादव-मुसलमान-दलित या पिछड़ा होना बहुत जरूरी होता है. पर मोदी-शाह के युग में पार्टी अपने फैसलों से यहां भी हमेशा अचंभित करती रही है. राधामोहन दास अग्रवाल पर पार्टी की मेहरबानी भी यहां के लोकल कार्यकर्ताओं के लिए कुछ ऐसा ही भाव है.

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डॉक्टर राधामोहन दास अग्रवाल गोरखपुर से 4 बार विधायक चुने गए. (फाइल फोटो) डॉक्टर राधामोहन दास अग्रवाल गोरखपुर से 4 बार विधायक चुने गए. (फाइल फोटो)

संयम श्रीवास्तव

  • नई दिल्ली,
  • 05 अगस्त 2023,
  • अपडेटेड 9:59 AM IST

भारतीय जनता पार्टी ने अभी हाल ही में पार्टी संगठन में कुछ बदलाव करते हुए कई नई चेहरों को तवज्जो दी है. अधिकतर चेहरे वे हैं जिन्हें अगले विधानसभा चुनावों और लोकसभा चुनावों में पार्टी को इस्तेमाल करना है. जाहिर है ऐसे मौकों पर ऐसे ही नेताओं को महत्व मिलता है जो किसी खास जाति, धर्म, समुदाय या रिजन आदि पर अपनी मजबूत पकड़ रखते हैं. पर इस बीच गोरखपुर के 4 बार विधायक रहे डॉक्टर राधामोहनदास अग्रवाल को तवज्जो देकर पार्टी ने यह साबित कर दिया है कि किसी भी नेता को आगे बढ़ने के लिए यह जरूरी नहीं है कि राजनीति के परंपरागत सांचे में वह फिट बैठे.

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गोरखपुर में आरएमडी के नाम से मशहूर डॉक्टर साहब को पार्टी ने पिछले साल राज्यसभा में भेजा और अभी हाल ही में पार्टी का महासचिव नियुक्त किया है. कुल 8 महासचिवों में यूपी से डॉक्टर साहब दूसरे महासचिव हैं. डॉ. अग्रवाल को पार्टी इसके पहले 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए लक्षद्वीप का प्रभारी और केरल का सह प्रभारी भी बना चुकी है. वह आधा दर्जन संसदीय कमेटी के सदस्य भी हैं. सवाल उठता है कि डॉक्टर साहब पर अचानक इतनी मेहरबान क्यों हो गई पार्टी?

पूर्वांचल की राजनीति में आरएमडी का क्या काम है?

पूर्वांचल की राजनीति, हमारे देश की राजनीति का ही प्रतिनिधित्व करती है. यहां की राजनीति में अगर किसी को सर्वाइव करना है तो उसका ब्राह्मण-ठाकुर-यादव-मुसलमान-दलित या पिछड़ा होना बहुत जरूरी होता है. पर गोरखपुर और आस-पास के जिलों में मेन स्ट्रीम की राजनीति ब्राह्मण और ठाकुरों के हाथ में ही रही है. हालांकि मंडल के दौर के बाद इनके एकतरफा वर्चस्व में कमी आई पर नियंत्रण अभी बरकरार है. गोरखपुर और आसपास के जिलों में पहले यादवों ने फिर निषादों ने सत्ता में अपनी हकदारी के लिए मजबूती से कदम रखा पर इन दो जातियों का दबदबा बना रहा. कांग्रेस ने जब तक शासन किया इन दोनों जातियों में बैलेंस बनाकर रखा. 

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संगठन और सरकार में से एक-एक पद दोनों जातियों के हिस्से आता रहा. बीजेपी भी ऐसा ही करती रही है पर मोदी-शाह के युग में पार्टी अपने फैसलों से यहां भी हमेशा अचंभित करती रही है. राधामोहन दास अग्रवाल पर पार्टी की मेहरबानी भी यहां के लोकल कार्यकर्ताओं के लिए कुछ ऐसा ही भाव है.

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बीजेपी बनियों की पार्टी शुरू से ही मानी जाती रही है पर चुनाव जीतने के लिए चेहरा कोई और बनता रहा. प्रदेश की बागडोर जब से योगी ( क्षत्रिय) के हाथ में है तब से यह माना जाता रहा है कि पूर्वी यूपी के ब्राह्मणों में बीजेपी को लेकर असंतोष है. 2022 के विधानसभा चुनावों के पहले तक तो कई बार ऐसा लगा कि इस बार बीजेपी को ब्राह्मणों के वोट से मरहूम होना पड़ेगा. शायद यही कारण रहा कि गोरखपुर के एक ब्राह्मण नेता शिवप्रताप शुक्ल को राज्यसभा में ही नहीं भेजा गया बल्कि केंद्र में मंत्री भी बनाया गया. 

विधानसभा चुनावों में पार्टी ब्राह्मणों को मनाने में तो सफल रही पर ओमप्रकाश राजभर के रुठने से पार्टी को कई विधानसभा सीटों से हाथ धोना पड़ा. डैमेज कंट्रोल करने के लिए राजभर और दारा सिंह चौहान की पार्टी में वापसी हो चुकी है पर पूर्वी यूपी के ब्राह्मण अब भी निराश हैं. कलराज मिश्रा और शिवप्रताप शुक्ल जैसे ब्राह्मण चेहरों को पार्टी ने राज्यपाल तो बनाया है पर शायद इतने से इस समुदाय में संतोष नहीं है. इस बीच डॉक्टर अग्रवाल पर हो रही इनामों की बौछार लोगों के बीच कौतुहल पैदा कर रही है.

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दरअसल पिछले साल से ही आरएमडी का जो कद बढ़ना शुरू हुआ जो अभी रुका नहीं है. 2022 में गोरखपुर सदर की सीट से योगी आदित्यनाथ ने चुनाव लड़ा. जिसके चलते डॉक्टर साहब की उम्मीदवारी पर ग्रहण लग गया. डॉक्टर साहब निराश और परेशान थे पर तीन महीना बीता नहीं कि उनकी किस्मत का ताला खुल गया. पार्टी ने उन्हें राज्यसभा भेज दिया. उन्हें केरल और लक्षद्वीप में पार्टी के चुनाव कार्यों में भी लगाया और अब महासचिव भी बना दिया. दरअसल डॉक्टर अग्रवाल ने कभी वैश्य समुदाय के बीच भी अपनी पैठ नहीं बनाई. इसलिए ये कहना भी मुनासिब नहीं है कि उनके आने से वैश्यों के बीच पार्टी की लोकप्रियता बढ़ेगी. एक तो पूर्वांचल में वैश्य लोगों की आबादी बहुत ही कम है. इसके साथ ही वैश्य बीजेपी के परंपरागत वोटर भी हैं.  

सर्वसुलभ विधायक की छवि वाले जमीनी नेता

2002 के विधानसभा चुनावों में हिंदू महासभा के टिकट पर गोरखपुर सदर से डॉक्टर साहब ने चुनाव बीजेपी कैंडिडेट शिवप्रताप शुक्ल के खिलाफ लड़ा था. उस समय हिंदू महासभा का मतलब गोरखनाथ मंदिर ही समझा जाता है. गोरखपुर और आसपास के जिलों में हिंदू महासभा के प्रत्याशी खड़े होते. ये जीतकर विधानसभा तक भले न पहुंचे पर कई नेताओं की हार का कारण बनते थे. गोरखपुर सदर की सीट हिंदू महासभा के बैनर पर कब्जा करने के बाद आरएमडी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. बीजेपी का टिकट और आम जनता के बीच सर्वसुलभ नेता की जो छवि उन्होंने बनाई उसके चलते 2007, 2012, 2017 में लगातार भारी मतों से चुनाव जीतते रहे. 

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इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में एक बार डॉक्टर अग्रवाल ने बताया था कि उनके पास आज कोई कार नहीं है. एक मारुति 800 गाड़ी थी जिसका एक्सीडेंट होने के बाद उन्होंने उसे बेच दिया. दिल्ली में भी वे एयरपोर्ट से उतरकर संसद भवन मेट्रो से जाते हैं. मेट्रो स्टेशन से अपने आवास तक जाने के लिए पार्लियामेंट की फेरी सेवा की सहायता लेते हैं.

अपनी सादगी और जनता के लिए हर समय उपलब्धता के चलते उन्होंने अपना एक अलग समर्थक तबका खड़ा कर लिया. धीरे-धीरे मंदिर के प्रत्याशी होने की छवि को बदलने में भी सफलता हासिल कर ली. पर 2017 में योगी आदित्यनाथ की सरकार बनने के बाद इन पर अपनी ही सरकार की लगातार आलोचना करने का आरोप लगने लगा. कई बार विकास कार्यों की उपेक्षा को लेकर इन्होंने अपनी ही सरकार को घेरा. इस तरह डॉक्टर अग्रवाल ने एक कद्दावर नेता की छवि विकसित कर ली.  2022 में गोरखपुर सदर से इनका टिकट कट गया. 

दरअसल, गोरखपुर सदर की सीट बीजेपी के हार्डकोर समर्थकों की सीट रही है. इस सीट से बीजेपी लगातार चुनाव जीतती रही है.शायद यही कारण रहा कि इस सीट से खुद प्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ ने चुनाव लड़ा और रिकॉर्ड वोटों से विजयी रहे. आरएमडी को इसके बदले कोई दूसरी सीट नहीं ऑफर की गई. स्थानीय राजनीतिक समीक्षकों को तो एक समय ऐसा लगा कि जैसे गोरखपुर की राजनीति से आरएमडी का नाम हमेशा के लिए डिलिट कर दिया गया हो. पर राजनीतिक बियाबान में जाने से पहले डॉक्टर साहब बाजीगर बनकर उभरे.  

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योगी से मनमुटाव की खबरों में कितनी सच्चाई

कभी योगी आदित्यनाथ के सबसे करीबी रहे डॉक्टर साहब के रिश्ते बाद के दौर में खराब होते गए. प्रदेश सरकार के खिलाफ आलोचना के चलते ये मान लिया गया कि ये सीएम के विरोधी हो गए हैं. इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट बताती है कि डॉक्टर राधा मोहन ने एक बार कानून व्यवस्था को लेकर अपनी ही सरकार के खिलाफ ट्वीट कर दिया था जिसे बाद में डिलीट कर दिया गया. इसके चलते पार्टी ने इन्हें शोकॉज नोटिस भी जारी किया था. इसी तरह एक बार भ्रष्टाचार के मामले में एक इंजीनियर पर कार्रवाई न होने के मुद्दे पर भी अपनी ही सरकार से भिड़ गए थे. 

डॉक्टर अग्रवाल के समर्थक उनकी नाराजगी को सीएम के खिलाफ अभियान नहीं मानते . दरअसल, अग्रवाल का कद कभी इतना बड़ा नहीं हुआ कि वो सीएम के खिलाफ अभियान चला सकें. उनके साथ पार्टी का शायद ही कोई विधायक सीएम से मोर्चा लेने के लिए उनका साथ देता. इसलिए इसे विरोध की जगह नाराजगी या मनमुटाव ही कहा जा सकता है जो समय के साथ बढ़ता गया. अग्रवाल के ट्वीट इस बात की गवाही देते हैं कि प्रदेश के सीएम से उनके संबंध बुरे नहीं तो अच्छे भी नहीं हैं. महासचिव बनाए जाने के बाद भी दोनों ओर से किसी के लिए बधाई या धन्यवाद देने की मामूली रस्म भी अदा नहीं की गई.

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गोरखपुर में एक राष्ट्रीय अखबार के संपादक रहे दिनेश पाठक कहते हैं कि कोई भी पार्टी अपने कार्यकर्ताओं के बीच बैलेंस बनाकर ही चुनाव जीत सकती है. ये बात बीजेपी अच्छी तरह समझती है. यही कारण रहा कि योगी आदित्यनाथ के सीएम बनने के बाद शिव प्रताप शुक्ल को सांसद और मंत्री बनाया गया. पीएम मोदी भी जब गोरखपुर पधारे तो गोरखपुर मंदिर न जाकर केंद्रीय मंत्री पंकज चौधरी के घर जाना उचित समझा. डॉक्टर अग्रवाल सादगी, ईमानदारी और संगठन के लिए मिसाल हैं, उन्हें तवज्जो देकर पार्टी ने कार्यकर्ताओं को बड़ा संदेश दिया है.

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