मोबाइल पर एक सवाल टाइप किया, AI ने जवाब दे दिया. देखने में सब कुछ हल्का और डिजिटल लगता है, लेकिन इस जवाब के पीछे जो मशीनें चलती हैं, वो भारी बिजली निगलती हैं. अब हालात ऐसे बन चुके हैं कि AI सिर्फ टेक्नोलॉजी नहीं रहा, बल्कि बिजली के मामले में एक अलग देश जैसा बनता जा रहा है.
ताज़ा अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट्स बताती हैं कि आने वाले कुछ सालों में AI और उससे जुड़े डेटा सेंटर्स इतनी बिजली इस्तेमाल करेंगे, जितनी आज कई पूरे देश भी नहीं करते.
इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी यानी IEA के मुताबिक, साल 2030 तक दुनिया के डेटा सेंटर्स की कुल बिजली खपत करीब 945 टेरावॉट-ऑवर तक पहुंच सकती है. इस बढ़ोतरी की सबसे बड़ी वजह है आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस यानी AI. अब इस आंकड़े को देश के पैमाने पर समझते हैं.
नॉर्वे जैसे देश साल भर में करीब 130–140 टेरावॉट-ऑवर बिजली इस्तेमाल करते हैं. फिनलैंड करीब 85 TWh, ग्रीस करीब 55 TWh, पुर्तगाल करीब 50 TWh और न्यूज़ीलैंड लगभग 45 TWh बिजली खपत करता है.
यानी जिन देशों की पूरी आबादी, इंडस्ट्री और ट्रांसपोर्ट मिलकर जितनी बिजली इस्तेमाल करते हैं, उससे कई गुना ज़्यादा बिजली आने वाले समय में अकेला AI सिस्टम इस्तेमाल कर सकता है. सीधे शब्दों में कहें तो अगर AI को एक देश मान लिया जाए, तो वह बिजली खपत के मामले में दुनिया के कई असली देशों से आगे निकल जाएगा.
डेटा सेंटर्स और पावर कंजंप्शन..
इसकी वजह समझना ज़रूरी है. AI हवा में नहीं चलता. इसके पीछे विशाल डेटा सेंटर्स होते हैं, जिनमें लाखों सर्वर चौबीसों घंटे चलते रहते हैं. हर बार जब कोई यूज़र ChatGPT से सवाल पूछता है, कोई इमेज बनाता है या कोई AI टूल इस्तेमाल करता है, तब ये सर्वर एक्टिव होते हैं. ये सर्वर जितना काम करते हैं, उतनी ही तेज़ी से गर्म होते हैं, और उन्हें ठंडा रखने के लिए भारी मात्रा में बिजली की ज़रूरत पड़ती है.
यही वजह है कि AI के बढ़ते इस्तेमाल के साथ बिजली की मांग भी तेजी से ऊपर जा रही है. IEA का कहना है कि 2024 से 2030 के बीच डेटा सेंटर्स की बिजली खपत करीब 15 प्रतिशत सालाना की रफ्तार से बढ़ सकती है. यह रफ्तार किसी भी दूसरे सेक्टर से कहीं ज्यादा तेज़ मानी जा रही है.
दिलचस्प बात यह है कि डेटा सेंटर्स सिर्फ इंटरनेट या क्लाउड के लिए नहीं होते. अब इनका बड़ा हिस्सा खास तौर पर AI मॉडल चलाने के लिए इस्तेमाल हो रहा है. रिसर्च बताती है कि मौजूदा समय में डेटा सेंटर्स की कुल बिजली खपत का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ AI सर्वरों से आता है, और आने वाले सालों में यही हिस्सा सबसे तेज़ी से बढ़ेगा.
पुराने प्लांट्स को फिर से चालू किया जा रहा है..
अमेरिका और यूरोप में तो इसका असर ज़मीन पर दिखने भी लगा है. रिपोर्ट्स के मुताबिक, कई जगहों पर बिजली कंपनियों को पुराने पावर प्लांट दोबारा चालू करने पड़ रहे हैं, क्योंकि नए AI डेटा सेंटर्स की मांग अचानक बहुत तेज़ हो गई है. कुछ राज्यों में ग्रिड पर दबाव इतना बढ़ गया है कि नई फैक्ट्रियों और हाउसिंग प्रोजेक्ट्स को कनेक्शन देने में दिक्कत आने लगी है.
यानी AI सिर्फ डिजिटल दुनिया नहीं बदल रहा, बल्कि असली बिजली सिस्टम पर भी असर डाल रहा है. हालांकि कई कंपनियां इफिशिएंट डेटा सेंटर्स पर काम कर रही हैं, लेकिन इस स्पेस में काफी काम होना बाकी है.
एक्सपर्ट्स मानते हैं कि आने वाले समय में यह सवाल और बड़ा होगा, लेकिन इतनी बिजली आएगी कहां से? अगर यह बिजली कोयला या गैस से बनी, तो कार्बन उत्सर्जन बढ़ेगा. और अगर रिन्यूएबल से बनी, तो उसके लिए बड़े निवेश और इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत पड़ेगी. इसलिए अब कई देश AI को सिर्फ टेक्नोलॉजी का मुद्दा नहीं, बल्कि ऊर्जा नीति का हिस्सा मानने लगे हैं.
दिलचस्प बात यह भी है कि आम यूज़र को इस पूरी कहानी का अंदाज़ा तक नहीं होता. एक छोटा सा सवाल, एक इमेज या एक पैराग्राफ लिखवाना, सब कुछ फ्री और आसान लगता है. लेकिन बैकएंड में वही सवाल बिजली मीटर को तेज़ी से घुमा देता है. यही वजह है कि एक्सपर्ट अब कह रहे हैं कि आने वाले वक्त में AI को एनर्जी-एफिशिएंट बनाना उतना ही जरूरी होगा जितना उसे स्मार्ट बनाना.
आज AI को फ्यूचर की ताकत कहा जा रहा है, लेकिन सच यह है कि वह भविष्य की बिजली भी मांग रहा है. और अगर यही रफ्तार रही, तो आने वाले सालों में सवाल यह नहीं होगा कि AI क्या कर सकता है, बल्कि यह होगा कि दुनिया उसके लिए इतनी बिजली पैदा कर पाएगी या नहीं.
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