राजकमल चौधरी की हिंदी और मैथिली की चर्चित कवि हैं. उनकी कृतियों में कंकावती, मुक्ति प्रसंग, इस अकाल वेला में तथा स्वर-गंधा खास शामिल हैं. 13 दिसंबर को उनके जन्मदिन के मौके पर उनकी ‘इस अकाल बेला में’ और ‘तुम मुझे क्षमा करो’ जैसी चर्चित कविताएं साहित्य आजतक के पाठकों के लिए विशेष तौर पर प्रस्तुत हैः
पहली कविता : इस अकाल बेला में
होश की तीसरी दहलीज़ थी वो
हां! तीसरी ही तो थी,
जब तुम्हारी मुक्ति का प्रसंग
कुलबुलाया था पहली बार
मेरे भीतर
अपनी तमाम तिलमिलाहट लिए
दहकते लावे-सा
पैवस्त होता हुआ
वज़ूद की तलहट्टियों में
फिर कहां लांघ पाया हूं
कोई और दहलीज़ होश की...
सुना है,
ज़िंदगी भर चलती ज़िंदगी में
आती हैं
आठ दहलीज़ें होश की
तुम्हारे 'मुक्ति-प्रसंग' के
उन आठ प्रसंगों की भांति ही
सच कहूं,
जुड़ तो गया था तुमसे
पहली दहलीज़ पर ही
अपने होश की,
जाना था जब
कि
दो बेटियों के बाद उकतायी मां
गई थी कोबला मांगने
एक बेटे की खातिर
उग्रतारा के द्वारे...
...कैसा संयोग था वो विचित्र !
विचित्र ही तो था
कि
पुत्र-कामना ले गई थी मां को
तुम्हारे पड़ोस में
तुम्हारी ही 'नीलकाय उग्रतारा' के द्वारे
और
जुड़ा मैं तुमसे
तुम्हें जानने से भी पहले
तुम्हें समझने से भी पूर्व
वो दूसरी दहलीज़ थी
जब होश की उन अनगिन बेचैन रातों में
सोता था मैं
सोचता हुआ अक्सर
'सुबह होगी और यह शहर
मेरा दोस्त हो जाएगा'
कहां जानता था
वर्षों पहले कह गए थे तुम
ठीक यही बात
अपनी किसी सुलगती कविता में
...और जब जाना,
आ गिरा उछल कर सहसा ही
तीसरी दहलीज़ पर
फिर कभी न उठने के लिए
इस 'अकालबेला में'
खुद की 'आडिट रिपोर्ट' सहेजे
तुम्हारे प्रसंगों में
अपनी मुक्ति ढूंढ़ता फिरता
कहां लांघ पाऊंगा मैं
कोई और दहलीज़
अब होश की...
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दूसरी कविता: तुम मुझे क्षमा करो
बहुत अंधी थीं मेरी प्रार्थनाएं.
मुस्कुराहटें मेरी विवश
किसी भी चंद्रमा के चतुर्दिक
उगा नहीं पाई आकाश-गंगा
लगातार फूल-
चंद्रमुखी!
बहुत अंधी थीं मेरी प्रार्थनाएं.
मुस्कुराहटें मेरी विकल
नहीं कर पाई तय वे पद-चिन्ह.
मेरे प्रति तुम्हारी राग-अस्थिरता,
अपराध-आकांक्षा ने
विस्मय ने- जिन्हें,
काल के सीमाहीन मरुथल पर
सजाया था अकारण, उस दिन
अनाधार.
मेरी प्रार्थनाएं तुम्हारे लिए
नहीं बन सकीं
गान,
मुझे क्षमा करो.
मैं एक सच्चाई थी
तुमने कभी मुझको अपने पास नहीं बुलाया.
उम्र की मखमली कालीनों पर हम साथ नहीं चले
हमने पावों से बहारों के कभी फूल नहीं कुचले
तुम रेगिस्तानों में भटकते रहे
उगाते रहे फफोले
मैं नदी डरती रही हर रात!
तुमने कभी मुझे कोई गीत गाने को नहीं कहा.
वक़्त के सरगम पर हमने नए राग नहीं बोए-काटे
गीत से जीवन के सूखे हुए सरोवर नहीं पाटे
हमारी आवाज़ से चमन तो क्या
कांपी नहीं वह डाल भी, जिस पर बैठे थे कभी!
तुमने ख़ामोशी को इर्द-गिर्द लपेट लिया
मैं लिपटी हुई सोई रही.
तुमने कभी मुझको अपने पास नहीं बुलाया
क्योंकि, मैं हरदम तुम्हारे साथ थी,
तुमने कभी मुझे कोई गीत गाने को नहीं कहा
क्योंकि हमारी जिंदगी से बेहतर कोई संगीत न था,
(क्या है, जो हम यह संगीत कभी सुन न सके!)
मैं तुम्हारा कोई सपना नहीं थी, सच्चाई थी!
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