1700 साल, कई नाम और एक रहस्यमयी चेहरा! कहानी तुर्की के उस लड़के की, जो सांता क्लॉज बन गया

लाल कपड़े, सफेद दाढ़ी और गिफ्ट्स के पिटारे वाले सांता क्लॉज को दुनिया आज जिस रूप में जानती है, उसके पीछे 1700 साल पुरानी एक हैरान करने वाली कहानी छिपी है. जानिए, कैसे एक संत की दयालुता क्रिसमस की सबसे बड़ी पहचान बनी और किस तरह बाजार ने इस छवि को ग्लोबल आइकन में बदल दिया?

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सांता क्लॉज की असली कहानी (Photo: Pexels) सांता क्लॉज की असली कहानी (Photo: Pexels)

धीरज पांडेय

  • नई दिल्ली ,
  • 22 दिसंबर 2025,
  • अपडेटेड 2:27 PM IST

दिसंबर का महीना आधा बीत चुका है. हवा में एक ऐसी ठंडक है, जो हड्डियों में तो चुभती है, पर मन को थोड़ा सुकून भी देती है. उत्तर भारत के किसी मोहल्ले की नुक्कड़ वाली दुकान पर खड़ा लड़का हो या दिल्ली-मुंबई के किसी आलीशान मॉल में घूमता कोई परिवार, सबकी नजरें एक ऐसी चीज ढूंढ रही हैं जो आने वाले कुछ दिनों में हर जगह दिखने वाली है. वो क्या है? वो है एक उम्मीद. एक ऐसी उम्मीद जो बचपन में तकिए के नीचे मोजे रखने से शुरू होती थी और बड़े होने तक 'सीक्रेट सांता' के गिफ्ट तक पहुंच जाती है.

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अजीब बात है न? हम एक ऐसे शख्स का इंतजार करते हैं जिसे हमने कभी देखा नहीं. एक ऐसा बूढ़ा आदमी जो सात समंदर पार कहीं बर्फ के बीच रहता है, जिसके पास उड़ने वाले हिरण हैं और जो रातों-रात दुनिया के हर घर की चिमनी से नीचे उतरकर गिफ्ट छोड़ जाता है. लॉजिक कहता है कि ये नामुमकिन है, लेकिन इस दुनिया में 'फेथ' या भरोसे जैसी भी तो कोई चीज होती है. आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में, जहां बिना मतलब के कोई किसी को रास्ता तक नहीं बताता, वहां एक ऐसा किरदार पिछले करीब सत्रह सौ सालों से जिंदा है, जो सिर्फ देने में यकीन रखता है. वो कुछ मांगता नहीं है, बस ये चाहता है कि आप 'अच्छे बच्चे' बने रहें.

पर क्या आपने कभी सोचा है कि ये लाल कपड़े वाला, गोल-मटोल पेट वाला और सफेद लंबी दाढ़ी वाला शख्स आखिर आया कहां से? क्या ये वाकई कोई जादूगर था या फिर ये किसी बड़े ब्रांड की मार्केटिंग की उपज है? क्या इसका धर्म से कोई लेना-देना है या ये सिर्फ कहानियों का एक हिस्सा है जो वक्त के साथ बड़ा होता गया? ये किस्सा किसी जासूसी फिल्म से कम नहीं है. इसमें आपको समंदर के लुटेरे भी मिलेंगे, मिडिल ईस्ट के तपते रेगिस्तान भी मिलेंगे, न्यूयॉर्क की सड़कों पर चंदा मांगते लोग भी मिलेंगे और एक बड़ी सोडा कंपनी का मास्टरस्ट्रोक भी. तो चलिए, आज तसल्ली से उस किरदार के बारे में जानते हैं जिसे दुनिया सांता क्लॉज के नाम से जानती है.

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एक संत से सांता बनने तक का पूरा किस्सा

कहानी शुरू होती है आज से करीब 1700 साल पहले. जगह थी 'पटारा', जो आज के तुर्की में पड़ता है. तब वहां रोमन साम्राज्य का बोलबाला था. साल 280 ईस्वी के आस-पास एक बच्चे का जन्म हुआ, जिसका नाम रखा गया निकोलस. निकोलस के घर में पैसे की कोई कमी नहीं थी, माता-पिता काफी रईस थे. लेकिन नियति को कुछ और मंजूर था. एक महामारी में निकोलस के माता-पिता चल बसे और पीछे छोड़ गए बेशुमार दौलत. अब निकोलस चाहते तो उस दौर के रईसजादों की तरह ऐश कर सकते थे, लेकिन उन्होंने चुना सेवा का रास्ता.

यहीं से शुरू होता है वो मशहूर किस्सा जिसने निकोलस को 'सेंट निकोलस' बनाने की राह तैयार की. उसी शहर में एक गरीब आदमी रहता था जिसकी तीन बेटियां थीं. गरीबी का आलम ये था कि उस पिता के पास बेटियों की शादी के लिए पैसे नहीं थे और वो उन्हें गलत काम में धकेलने की सोच रहा था. निकोलस को ये बात पता चली. अब निकोलस को दिखावा पसंद नहीं था. वो रात के सन्नाटे में चुपके से उस गरीब के घर पहुंचे और खिड़की से सोने के सिक्कों की एक थैली अंदर फेंक दी. अगले दिन पिता की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. निकोलस ने यही काम दूसरी बेटी के लिए भी किया. तीसरी बार जब वो जा रहे थे, तो पिता ने उन्हें देख लिया और उनके पैरों में गिर पड़े. निकोलस ने बस एक ही शर्त रखी "ये बात किसी को पता नहीं चलनी चाहिए."

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यही वो मूल जड़ है जहां से 'सीक्रेट गिफ्टिंग' का आइडिया निकला. निकोलस बाद में मायरा शहर के बिशप बने और अपनी दयालुता के लिए इतने मशहूर हुए कि मरने के बाद उन्हें 'संत' की उपाधि मिल गई. अब आप सोचेंगे कि ये बिशप क्या है? तो आसान भाषा में समझिए, जैसे हमारे यहां मठों में 'महंत' होते हैं या किसी बड़े धार्मिक क्षेत्र का मुख्य संरक्षक होता है, वैसे ही ईसाई चर्च में एक बिशप होता है. इस शब्द का असल मतलब होता है निरीक्षक या देखरेख करने वाला.

एक बिशप के जिम्मे एक-दो नहीं, बल्कि पूरे इलाके के चर्चों और पादरियों की कमान होती है. निकोलस ने इस पद पर रहते हुए अपनी सादगी और दयालुता के ऐसे झंडे गाड़े कि लोग उन्हें साक्षात देवदूत मानने लगे. यही कारण है कि उनकी पुण्यतिथि 6 दिसंबर को 'सेंट निकोलस डे' के रूप में मनाई जाने लगी.

संत से सुपरस्टार तक (Photo: Pixabay)

तारीखों का झोल और 25 दिसंबर का वो रहस्य

अब एक सवाल उठता है कि अगर संत निकोलस का दिन 6 दिसंबर था तो ये पूरी रौनक 25 दिसंबर को क्यों होती है? इसकी भी बड़ी दिलचस्प कहानी है. शुरुआती दौर में यीशु मसीह के जन्म की कोई तय तारीख नहीं थी. 4वीं सदी के आस-पास रोमन साम्राज्य ने '25 दिसंबर' को क्रिसमस के लिए चुना. क्योंकि उस समय रोमन लोग इसी तारीख के आसपास सूरज के दोबारा जन्म लेने का त्योहार मनाते थे. चर्च ने सोचा कि लोगों की पुरानी परंपराओं को नया धार्मिक रंग दे दिया जाए.

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वक्त बदला और संत निकोलस की कहानियां क्रिसमस के रीति-रिवाजों के साथ इस कदर घुल-मिल गईं कि उन्हें अलग करना मुश्किल हो गया. खासकर प्रोटेस्टेंट सुधार के बाद, जब संतों की पूजा कम होने लगी, तब लोगों ने गिफ्ट देने वाले इस प्यारे 'बुजुर्ग' को सीधे क्रिसमस के त्योहार से जोड़ दिया. नतीजा ये हुआ कि अब 6 दिसंबर की जगह सांता की 'उपहारों का पिटारा' 24 दिसंबर की रात यानी 'क्रिसमस ईव' को लग गई. सांता क्लॉज अब सिर्फ एक संत नहीं रहे, वे क्रिसमस के ऐसे 'सुपरहीरो' बन गए जो इसी खास तारीख को दुनिया भर की सैर पर निकलते हैं.

एक किरदार के अनेक नाम

सांता क्लॉज की लोकप्रियता का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि दुनिया के हर कोने में उन्हें अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है. यह किसी फिल्म के जासूस जैसा मामला है- शख्स एक है, लेकिन पहचानें अनेक. सबसे पहले तो वे तुर्की के 'सेंट निकोलस' थे. जब वे नीदरलैंड्स पहुंचे, तो डच लोगों ने उन्हें प्यार से 'सिंटरक्लास' बुलाना शुरू किया. जर्मनी के कुछ हिस्सों में उन्हें 'पेल्ज निकेल' कहा गया, जिसका मतलब है 'फर वाले कपड़े पहनने वाला निकोलस'. फ्रांस में बच्चे उन्हें 'पेरे नोएल' कहते हैं, यानी 'क्रिसमस के पिता'. वहीं, रूस में उन्हें 'डेड मोरोज' यानी 'बर्फ वाले दादाजी' कहा जाता है. नाम भले ही बदल गए, लेकिन सबके लिए उनका काम एक ही रहा.

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दुनिया का सबसे प्यारा किरदार (Photo: AP)

जब 'सिंटरक्लास' बने अमेरिका के लाडले

अब आप सोचेंगे कि तुर्की का एक संत आखिर सात समंदर पार अमेरिका कैसे पहुंच गया? दरअसल, यह मुमकिन हुआ लोगों के पलायन यानी एक देश से दूसरे देश जाकर बसने की वजह से. हुआ यह कि 17वीं-18वीं सदी में डच जब अमेरिका जाकर बसने लगे, तो वे अपने साथ अपनी संस्कृति और अपने पसंदीदा संत 'सिंटरक्लास' (Sinterklaas) की यादें भी ले गए. डच भाषा में सेंट निकोलस को ही सिंटरक्लास कहा जाता था. न्यूयॉर्क की सड़कों पर जब ये डच परिवार अपने संत का त्योहार मनाते, तो बाकी अमेरिकी भी इसे बड़े उत्सुकता से देखते. धीरे-धीरे 'सिंटरक्लास' बोलने की कोशिश में अमेरिकियों की जुबान लड़खड़ाई और यह नाम वक्त के साथ घिसते-घिसते 'सांता क्लॉज' हो गया.

लेकिन रुकिए, अभी सांता वो नहीं बने थे जो आज दिखते हैं. 1822 तक सांता कभी पतले थे, कभी किसी डच सिपाही जैसे दिखते थे, तो कभी किसी जादूगर जैसे. फिर एंट्री हुई एक कवि क्लेमेंट क्लार्क मूर की. उन्होंने एक कविता लिखी जिसका नाम था 'ए विजिट फ्रॉम सेंट निकोलस'. इस कविता ने सांता को वो पहचान दी जिसे हम आज जानते हैं. उन्होंने ही पहली बार जिक्र किया कि सांता एक स्लेज पर आते हैं जिसे आठ बारहसिंगा (Reindeer) खींचते हैं. मूर ने उन्हें 'खुशमिजाज और गोल-मटोल' बताया.

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बाजार का रंग और सांता का लाल चोला

सांता के रंग-रूप को लेकर भी एक बड़ी दिलचस्प चर्चा होती है. अक्सर ऐसा कहा जाता है कि सांता को ये लाल रंग कोका-कोला कंपनी ने दिया है, पर सच तो ये है कि यह बात आधी-अधूरी है. सांता कोका-कोला के विज्ञापनों से पहले भी लाल रंग के कपड़ों में नजर आते थे, हालांकि उस दौर में उनका रंग कभी नीला होता था, तो कभी भूरा.

ऐसा कहा जाता है कि 1860 के दशक में थॉमस नास्ट नाम के एक मशहूर कार्टूनिस्ट ने 'हार्पर्स वीकली' के लिए सांता के कुछ स्केच तैयार किए थे और उन्हें पहली बार लाल कपड़े पहनाए. सांता की पूरी लाइफस्टाइल का स्ट्रक्चर भी नास्ट ने ही खींचा था. उन्होंने ही पहली बार यह बात दुनिया को बताई कि सांता 'नॉर्थ पोल' यानी उत्तरी ध्रुव पर अपनी पत्नी मिसेज क्लॉस के साथ रहते हैं और वहां उनके पास एक बड़ी सी वर्कशॉप है, जहां नन्हे बौने (Elves) साल भर बच्चों के लिए खिलौने बनाने का काम करते हैं.

लेकिन सांता को 'ग्लोबल सुपरस्टार' बनाने का काम 1931 में कोका-कोला ने किया. उन्होंने हडसन संडब्लोम नाम के कलाकार से सांता के पोस्टर बनवाए ताकि सर्दियों में उनकी कोल्ड ड्रिंक की सेल बढ़ सके. इन विज्ञापनों में सांता को और भी ज्यादा इंसानी, हंसमुख और प्यारा दिखाया गया. वो लाल रंग का कोट, सफेद बाल और हाथ में कोका-कोला की बोतल, ये इमेज दुनिया के कोने-कोने में ऐसी छपी कि आज सांता का मतलब ही वही लाल ड्रेस वाला बूढ़ा हो गया है.

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लाल ड्रेस के पीछे का सच (Photo: Pixabay)

भारत में सांता की एंट्री कैसे हुई?

भारत की बात करें, तो यहां सांता की लोकप्रियता का किस्सा थोड़ा अलग है. आजादी के काफी समय बाद तक क्रिसमस एक छोटा सा धार्मिक पर्व था जो मुख्य रूप से ईसाई समुदाय तक सीमित था. लेकिन 1990 के दशक में जब भारत की इकोनॉमी खुली, विदेशी चैनल आए और बॉलीवुड की फिल्मों में 'क्रिसमस पार्टी' का कल्चर बढ़ा, तो सांता क्लॉज अचानक से हर मॉल और स्कूल के बाहर खड़े नजर आने लगे. आज हालत ये है कि गांव का बच्चा भले ही सेंट निकोलस को न जानता हो, पर उसे ये पता है कि 25 दिसंबर को एक 'लाल बाबा' आएंगे जो टॉफियां बांटेंगे.

अंत में बात वही है, चाहे वो तुर्की का निकोलस हो, डच का सिंटरक्लास हो या मॉल में खड़ा कोई सांता, ये किरदार असल में उस इंसानियत का प्रतीक है जो हमें सिखाती है कि खुशियां बांटने के लिए किसी बड़े कारण की जरूरत नहीं होती. सांता क्लॉज भले ही एक काल्पनिक चेहरा हो, लेकिन वो जो मुस्कान बच्चों के चेहरे पर छोड़ जाता है, वो सौ फीसदी असली है.

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