पितृपक्ष हिंदू संस्कृति में पितरों के प्रति कृतज्ञ होने और उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करने का प्रतीक है. पुराणों में इस मौके को बहुत पवित्र बताया गया है. पितृपक्ष में पितृकर्म को पूरी निष्ठा से करने लिए पुराणों में बताया गया है. इस दौरान पिंडदान, तर्पण और श्राद्ध तीनों ही कार्य किए जाते है.
इसमें भी पिंडदान को लेकर नियम हैं कि इन्हें न तो किसी अन्य के हाथ से कराया जा सकता है और न ही पिंड को किसी अन्य के हाथ में दिया जा सकता है. क्योंकि तर्पण और पिंड आत्मा के लिए करते हैं और आत्मा ऊर्जा ही का रूप है. महाभारत में इसे लेकर एक कथा का भी वर्णन है, शरशैय्या पर लेटे भीष्म पितामह और युधिष्ठिर के बीच जब संवाद होता है तब पितामह ने उनके पूछने पर पितृ के प्रति उनके कर्म बताए थे.
युधिष्ठिर ने भीष्म से पूछा प्रश्न
कहानी के मुताबिक, भीष्म पितामह से युधिष्ठिर पूछते हैं कि पितृ कौन होते हैं और उनकी पूजा या उनके लिए श्राद्ध किस तरह से करना चाहिए. युधिष्ठिर के ऐसा पूछने पर भीष्म ने अपनी ही एक आपबीती खुद सुनाई थी. यह घटना तब हुई थी जब भीष्म अपने पिता शांतनु का श्राद्ध कर रहे थे.
भीष्म कहते हैं कि युधिष्ठिर! पिंडदान को पौराणिक रीति से ही करना चाहिए. इसमें किसी तरह का भ्रम नहीं होना चाहिए. जब मैं अपने पिता का पिंडदान कर रहा था तब एक घटना हुई. मैं अपने पिता के लिए उनकी आत्मा को पिंड प्रदान कर रहा था. इसी दौरान धरती को फाड़ते हुए एक हाथ बाहर निकला. यह मेरे पिता का हाथ था. मैंने उसे पहचान लिया क्योंकि उनकी हथेलियों में वही शुभ चिह्न वाली रेखाएं थीं. वही श्वेत वस्त्र का पटका था जो मेरे पिता पहनते थे और वैसे ही हाथ में पहने जाने वाले आभूषण, कड़े, अंगूठियां और बाजू बंद थे, जो मेरे पिता के थे.
मैं उनके हाथ को देखकर सोच में पड़ गया. वह हाथ इशारे कर-करके मुझसे पिंड मांगने लगा, लेकिन मैंने विचार किया कि शास्त्र में, नीति में और नियमों में मैंने कहीं भी ऐसा कोई वर्णन न पढ़ा न ही सुना. इसलिए मैंने अपने विवेक का प्रयोग करते हुए पिंड उस हाथ में नहीं दिया, बल्कि दान की वेदी पर ही रखा. मैंने कुशा पर ही वह पिंड समर्पित कर दिया.
यह क्रिया संपन्न होते ही मेरे पिता महाराज शांतनु संपूर्ण शरीर के साथ आकाश में प्रकट हुए और मुझे आशीष देकर बोले- हे पुत्र! तुमने शास्त्र की रीति से मेरा सफल पिंडदान किया है. तुम मेरे हाथ के कारण भी भ्रम में नहीं पड़े और सही विधि अपनाई. इस तरह मैं अब अपने ऋण से मुक्त हुआ तुम भी अपनी परीक्षा में सफल हुए. इस तरह पिंडदान के बाद मेरे पिता को उत्तम लोक की प्राप्ति हुई.
कैसे शुरू हुई पिंडदान की प्रक्रिया?
भीष्म पितामह ने यह भी बताया कि प्राचीन समय में सबसे पहले महर्षि निमि को अत्रि मुनि ने श्राद्ध का ज्ञान दिया था. इसके बाद निमि ऋषि ने श्राद्ध किया और उनके बाद अन्य ऋषियों ने भी श्राद्ध कर्म शुरू किए और श्राद्ध कर्म करने की परंपरा प्रचलित हुई.
aajtak.in