सनातन परंपरा कहती है कि हर मनुष्य पर तीन ऋण हमेशा हैं. पहला है देवऋण, दूसरा है ऋषि या आचार्य ऋण और तीसरा है पितृ ऋण. ऋण का सीधा अर्थ है कर्ज. हालांकि इसे इतने सामान्य अर्थ में नहीं देखना चाहिए, बल्कि यह बहुत ही गहरी बात है, फिर भी हम समझने के लिए मान लेते हैं कि ऋण का अर्थ हुआ किसी का अहसान या उससे ली गई सहायता.
मनुष्य पर देवताओं का ऋण इसलिए है क्योंकि वह जन्म से लेकर जीवन में मिलने वाली हर उपलब्धियों का कारण हैं. वह चेतना का स्वरूप हैं. ऋषि ऋण यानी कि उस गुरु, संत, आचार्य या महात्मा का अहसान जिसने हमारे जीवन को ज्ञान के प्रकाश से चमकाया और तीसरा है पितृ ऋण. किसी के परिवार में जन्म लेने का ऋण, उनके द्वारा हमारा पालन पोषण करने का ऋण.
मनुष्य को उसकी पीढ़ियों से जोड़े रखता है श्राद्ध
सबसे बड़ी बात है कि जीवन में आप कभी न कभी देव ऋण और ऋषि ऋण चुका ही लेते हैं, क्योंकि यह तब भी आसान होते हैं. लेकिन कठिन होता पितृ ऋण और इसके न चुकाए जाने से लगता है पितृ दोष. सनातन परंपरा सात पीढ़ियों तक के पूर्वजों के प्रति आभार व्यक्त करने का तरीका बताती है और इस तरह इस संस्कृति में पितरों को जल देना, तर्पण करना जरूरी बन जाता है. इस अनुष्ठान को हम श्राद्ध पक्ष में पूरा करते हैं. यह मनुष्य को उसकी पीढ़ियों से जोड़े रखता है.
आमतौर पर भी हम कहते हैं न कि हर आदमी को आगे-पीछे सोचकर चलना चाहिए. आगे सोचना यानि भविष्य की संभावनाओं पर विचार करना और पीछे देखना या सोचना यानी पूर्वजों का आशीर्वाद भी साथ बनाए रखना. इसका गहरा अर्थ यही है कि एक हाथ में मनुष्य पूर्वजों को अपनी उंगली थमाए रखे और दूसरे हाथ में भविष्य को थामकर रखे. श्राद्ध पक्ष, 'कल आज और कल' की इसी खूबसूरत अभिव्यक्ति का साकार स्वरूप है.
इसके अलावा यह पूरी प्रक्रिया प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाए रखने का जरिया भी होता है. तर्पण के दौरान पितृ यानी पितरों को प्राकृतिक तौर पर शुद्ध पदार्थ ही अर्पित किए जाते हैं. इनमें कुशा, तिल, जौ, अक्षत खास तौर पर शामिल हैं. श्राद्ध के लिए जरूरी इन तत्वों का क्या महत्व है, इस पर डालते हैं एक नजर-
श्राद्ध कर्म में क्यों जरूरी है कुशा
श्राद्ध कर्म में सबसे महत्वपूर्ण तत्व हैं कुशा. मान्यता है कि भगवान विष्णु ने जब वराह अवतार लिया तो उनके शरीर से धरती पर गिरे रोएं ही कुशा के रूप में उग आए. इनके जरिए आज की पीढ़ी का पूर्वज-पितरों से सीधा संपर्क हो जाता है. इसके अलावा कुशा का अग्र भाग तेज का भी प्रतीक है जिससे हर क्षण तेजोमय तरंगें निकलती हैं. यह सकारात्मक ऊर्जा का प्रतीक है. कुशा शुद्धता का भी प्रतीक है, क्योंकि इसके तिनकों से झाड़ू भी बनती है. माना जाता है कि जब गरुड़देव अमृत लेकर नागमाता के पास पहुंचे तो उन्होंने अमृत को कुशा पर ही रखा था. रखते समय कलश से अमृत छलक गया और कुशा को पवित्रता मिल गई. कुश के अग्र भाग से जल की बूंदें पितरों तक पहुंचती हैं, जिससे उन्हें तृप्ति और अमृत तत्व मिलता है. कुश पितरों को मार्ग दिखाता है. श्राद्ध में समूल कुश का प्रयोग करना चाहिए.
तिल का तर्पण में क्या है महत्व?
पितृ पक्ष में श्राद्ध के दौरान तिल का प्रयोग भी जरूरी होता है क्योंकि तिल की उत्पत्ति भी विष्णु जी से हुई है. ये नारायण के पसीने से निकला है. ऐसे में इससे पिंडदान करने से मृतक को मोक्ष की प्राप्ति होती है. तिल से भी निकलने वाली रज-तम तरंगे मृत्यलोक में भटक रही पितर आत्माओं को श्राद्धस्थल तक ले आती हैं. इसमें वातावरण और शरीर के भीतर मौजूद नकारात्मक ऊर्जाओं को सोखने की क्षमता होती है. ज्योतिष के अनुसार पितृ दोष से जुड़े शनि, राहु और केतु जैसे ग्रह भी काले तिल का संबंध से शांत होते हैं. श्राद्ध के दौरान काले तिल इन ग्रहों के अशुभ प्रभाव कम करते हैं.
अक्षत से कैसे प्रसन्न होते हैं पितृ
पितर आत्माओं की तृप्ति के लिए उन्हें अक्षत अर्पण किया जाता है. अक्षत जीवन का आधार है और धन-धान्य का पहला प्रतीक है. चावल को सुख-शांति और मोक्ष का भी कारक माना जाता है. इसलिए पितृपक्ष में दान के समय चावल का इस्तेमाल विशेष रूप से करने की मान्यता है. चावल से पिंड बनाकर दान करने से व्यक्ति को कभी भी आर्थिक परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ता है. पितृ इन्हें पाकर संतुष्ट होते हुए धन-धान्य से भरे-पूरे होने का आशीर्वाद देते हैं.
तर्पण में क्यों जरूरी है जौ
जौ दान महादान. जौ यानी यव अनाजों में सर्व शेष्ठ है. यह सोने के ही समान शुद्ध और खरा है. इसलिए यह उन तमोगुणी वैभव का प्रतीक है, जिनके प्रति मनुष्य जीवन रहते लालायित रहते हैं. इनके प्रति जीवन रहते मोह नहीं कम हो पाता और मृत्यु के बाद भी यह इच्छा अतृप्त ही रह जाती है. तर्पण में जो का प्रयोग पितरों को वैभव की संतुष्टि देता है. इसके साथ ही जौ नकारात्मक शक्तियों को दूर रखता है. इसलिए श्राद्ध पूजन में जौ का प्रयोग किया जाता है.
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