कौन किसका और किस परिस्थिति में कर सकता है श्राद्ध, जानिए पितृपक्ष के लिए शास्त्रों का जरूरी नियम

पितृपक्ष में श्राद्ध करने की परंपरा इसलिए विशेष है क्योंकि इस दौरान पितर पृथ्वीलोक पर अपने पुत्र-पौत्रों से पिंडदान और तिलांजलि की अपेक्षा रखते हैं. शास्त्रों में कहा गया है कि यदि श्राद्ध न किया जाए, तो पितरों को दुख होता है,

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पितृ पक्ष में तिथि के अनुसार श्राद्ध किया जाता है पितृ पक्ष में तिथि के अनुसार श्राद्ध किया जाता है

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 11 सितंबर 2025,
  • अपडेटेड 10:33 PM IST

सनातन परंपरा में पितृपक्ष और श्राद्ध का विशेष महत्व है. यह वह समय है जब मनुष्य अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता व्यक्त करता है. शास्त्रों के अनुसार, जब सूर्य नारायण कन्या राशि में प्रवेश करते हैं, तब पितृलोक पृथ्वीलोक के सबसे निकट होता है. यह अवधि भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से शुरू होकर आश्विन कृष्ण अमावस्या तक चलती है, जिसे पितृपक्ष के रूप में जाना जाता है. इस दौरान पितरों की संतुष्टि के लिए श्राद्ध कर्म किए जाते हैं, जो पितृऋण से मुक्ति का एक महत्वपूर्ण माध्यम माने जाते हैं. 

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पितृपक्ष और श्राद्ध का अर्थ
श्राद्ध का शाब्दिक अर्थ है "श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए." यह वह कर्म है जो पितरों की आत्मा की शांति और उनकी संतुष्टि के लिए किया जाता है. हिंदू धर्म में श्राद्ध को पितृयज्ञ भी कहा जाता है, जिसमें तर्पण, पिंडदान, ब्राह्मण भोजन और दान जैसे कार्य शामिल हैं. मान्यता है कि श्राद्ध के माध्यम से पितरों को तृप्ति मिलती है, और वे अपने वंशजों को दीर्घायु, संतति, धन, यश, सुख और मोक्ष का आशीर्वाद देते हैं.

पितृपक्ष में श्राद्ध करने की परंपरा इसलिए विशेष है क्योंकि इस दौरान पितर पृथ्वीलोक पर अपने पुत्र-पौत्रों से पिंडदान और तिलांजलि की अपेक्षा रखते हैं. शास्त्रों में कहा गया है कि यदि श्राद्ध न किया जाए, तो पितरों को दुख होता है, और वे श्राद्धकर्ता को शाप भी दे सकते हैं, जिससे वंशहीनता, रोग, और जीवन में कष्ट जैसी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं.

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श्राद्ध के प्रकार
श्राद्ध मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं:
1. एकोदिष्ट श्राद्ध: यह श्राद्ध केवल एक पितर की संतुष्टि के लिए किया जाता है. यह उस तिथि पर किया जाता है, जिस दिन पितर की मृत्यु हुई थी या उनका दाह संस्कार हुआ था. इसमें एक पिंड का दान और एक ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है.

2. पार्वण श्राद्ध: यह श्राद्ध पितृपक्ष में किया जाता है, जिसमें सामान्यतः नौ ब्राह्मणों को भोजन कराने का विधान है. हालांकि, शास्त्र एक सात्विक और संध्यावंदन करने वाले ब्राह्मण को भोजन कराने की भी अनुमति देते हैं. और इसे ही उचित भी बताते हैं.

पितृपक्ष में श्राद्ध की तिथियां
पितृपक्ष में श्राद्ध उस तिथि पर किया जाता है, जिस दिन पितर की मृत्यु हुई थी. यदि मृत्यु भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को हुई हो, तो उसी दिन से पितृपक्ष का प्रारंभ माना जाता है.

पूर्णिमा तिथि का श्राद्ध, मूकबधिर पितरों का श्राद्ध.
नवमी तिथि का श्राद्ध, सौभाग्यवती (मातृ नवमी) श्राद्ध.
द्वादशी तिथि का श्राद्ध (सन्यासियों का श्राद्ध).
चतुर्दशी तिथि का श्राद्ध (अकाल मृत्यु, शस्त्र या दुर्घटना में मृत पितरों का श्राद्ध).
अमावस्या तिथि का श्राद्ध, सर्वपितृ श्राद्ध.

कौन कर सकता है श्राद्ध?
शास्त्रों में श्राद्ध के लिए निम्नलिखित व्यक्ति अधिकारी माने गए हैं:
पुत्र: पिता का श्राद्ध करने का प्रथम अधिकार पुत्र को है. पुत्र को नरक से मुक्ति दिलाने वाला माना गया है.
पत्नी: यदि पुत्र न हो, तो पत्नी श्राद्ध कर सकती है.
सगा भाई: पत्नी के अभाव में सगा भाई श्राद्ध करता है.
संपिंड: भाई के अभाव में संपिंड (निकट संबंधी) श्राद्ध कर सकते हैं.

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बड़ा पुत्र: यदि एक से अधिक पुत्र हों, तो सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है.
पुत्री का पति या पुत्र: ये भी श्राद्ध के अधिकारी हैं.
पौत्र या प्रपौत्र: पुत्र के अभाव में पौत्र या प्रपौत्र श्राद्ध कर सकते हैं.

विधवा स्त्री: यदि पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र न हों, तो विधवा स्त्री श्राद्ध कर सकती है.
भतीजा: यदि कोई अन्य न हो, तो भतीजा श्राद्ध कर सकता है.
गोद लिया पुत्र: गोद लिया गया पुत्र भी श्राद्ध का अधिकारी है.
राजा: यदि कोई न हो, तो राजा को मृतक के धन से श्राद्ध करना चाहिए.

हालांकि राजा वाली व्यवस्था अब लागू नहीं होती है, क्योंकि जब राजा का शासन हुआ करता था, तब सारी प्रजा राजा का ही परिवार हुआ करती थी. इसलिए राजा पर मृतक के श्राद्ध का दायित्व हुआ करता था. 

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