LoC से 500 मीटर दूर जीरो प्वाइंट पर बसे इस गांव की हर गली-हर दिल में हिंदुस्तान, जम्मू- कश्मीर में मेरी आंखों देखी

खूबसूरत पहाड़ियों के बीच बसा पुंछ मिनी कश्मीर के नाम से जाना जाता है. यहां के लोगों में पहलगाम हमले को लेकर पाकिस्तान के खिलाफ गुस्सा साफ झलकता है. लोग सरकार से मांग कर रहे हैं कि पाकिस्तान को इस बार ऐसा जवाब दिया जाए कि वो दोबारा ऐसी कायराना हरकत ना करे.

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पहलगाम हमले के बाद पुंछ का हाल पहलगाम हमले के बाद पुंछ का हाल

स्मिता चंद

  • नई दिल्ली,
  • 05 मई 2025,
  • अपडेटेड 2:42 PM IST

पहलगाम हमले को करीब 2 हफ्ते गुजर गए हैं, लेकिन अब भी पूरे कश्मीर में दहशत और गम का माहौल है. जब भी भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव होता है, तो लाइन ऑफ कंट्रोल से जुड़ा इलाका पुंछ तनाव की जद में आ जाता है. कभी आतंक का गढ़ माने जाने वाले पुंछ के लोगों में भी उस आतंकी हमले को लेकर गुस्सा है. लोग सरकार से मांग कर रहे हैं कि पाकिस्तान को इस बार ऐसा जवाब दिया जाए कि वो दोबारा ऐसी कायराना हरकत ना करे. पुंछ के कई इलाके पीओके की सीमा से महज 500 मीटर की दूरी पर हैं. पाकिस्तान की तरफ से जब भी फायरिंग होती है, तो इस इलाके के लोगों के लिए काफी मुश्किल हो जाती है. पिछले कुछ दिनों से लगातार पाकिस्तान की तरफ से उकसावे वाली कार्रवाई की जा रही है, भारतीय सेना भी उसी प्रबलता से जवाब दे रही है.

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खूबसूरत पहाड़ियों के बीच बसा पुंछ मिनी कश्मीर के नाम से जाना जाता है. यहां के लोगों में पहलगाम हमले को लेकर पाकिस्तान के खिलाफ गुस्सा साफ झलकता है. पुंछ में रहने वाले सोशल एक्टिविस्ट आरिफ काज़मी इस हमले से काफी आहत हैं. वो कहते हैं-  'पहलगाम का हमला सिर्फ 26 लोगों पर नहीं, हम सब पर हुआ है. उस हमले के बाद हमारे पूरे शहर ने मातम मनाया. उन लोगों ने हम सभी कश्मीरियों को बदनाम कर दिया. यहां के सभी लोग सेना के साथ मिलकर आतंक के खिलाफ लड़ रहे हैं.' आरिफ आगे बताते हैं- 'पुंछ में हिंदू, सिक्ख और मुस्लिम सब लोग साथ मिलकर आतंक के खिलाफ लड़ रहे हैं. बड़ा अफसोस होता है जब कुछ लोग सोशल मीडिया पर हमारे खिलाफ गलत बातें लिखते हैं. आप प्लीज एक बार यहां आइए मैं आपको पूरा शहर दिखाऊंगा, यहां हर धर्म के लोग अमन चैन से रह रहे हैं.'

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POK से 500 मीटर दूर वो गांव...

2 साल पहले मैं पुंछ गई थी, उन अनजान लोगों ने जिस तरह से मेरा स्वागत किया था वो आज भी मुझे याद है. मुझे देश के कई राज्यों में जाने का मौका मिला, लेकिन जो अपनापन कश्मीर के लोगों ने दिया वो कहीं नहीं मिला. मेरी मुलाकात ऐसे लोगों से हुई जो मेरा नाम तक नहीं जानते थे. दिल्ली से पत्रकार होने की मेरी पहचान ही काफी थी, न नाम पूछा, न धर्म, बस दिल से स्वागत किया. मैं पुंछ के कई गांवों में गई, यहां के लोग अनजान होते हुए भी इस तरह से मिले जैसे बरसों की पहचान हो.

अपनी यात्रा के दौरान मैं एक गांव हबीबपुर (काल्पनिक नाम, सुरक्षा कारणों से) गई, जहां भारत और पाकिस्तान की सीमाएं एक-दूसरे से मिलती हैं, एक तरफ तिरंगा लहराता है, तो दूसरी तरफ पाकिस्तानी झंडा हिलाल. यहां से पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाके कश्मीर की सीमा 500 मीटर की दूरी पर है. गांव के लोगों के रिश्तेदार वहां रहते हैं, लेकिन वहां जाने की इजाजत नहीं है, लोग अपने छत से वहां के लोगों से इशारों में बात कर सकते हैं, दोनों के बीच इतनी ही दूरी है.

छोटा सा गांव है, रोजगार का जरिया नहीं है, इसलिए गांव के ज्यादातर मर्द अरब देशों में काम करते हैं. इस गांव की आबादी में ज्यादातर महिलाएं और बच्चे ही नजर आते हैं. मैं पैदल ही उस गांव में घूम रही थी, हर तरफ महिलाएं, बच्चे और कुछ बुजुर्ग ही दिख रहे थे. दिल्ली से करीब हजार किलोमीटर की दूरी पर मौजूद इस गांव की महिलाओं का अंदाज देखकर मैं हैरान हो गई. मैंने सोचा था, पिछड़ा इलाका है तो महिलाएं कम पढ़ी-लिखी होंगी, लेकिन इस गांव की प्रधान एक महिला है. आत्मविश्वास से भरी हुई नाजनीन (बदला हुआ नाम) अपने गांव के लिए हॉस्पिटल और स्कूल की मांग कर रही थीं. मुझसे बार-बार यही कह रही थीं, मेरी ये डिमांड सरकार तक पहुंचा दीजिए, हम लोग जीरो प्वाइंट पर रहते हैं, सुबह का कोई भरोसा नहीं होता.

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मुझे देखते ही करीब 20-25 महिलाएं मेरे पास आ गईं. सबके हाथों में मोबाइल और बिंदास सेल्फी खींचती हुई. इन महिलाओं में जिंदगी के प्रति जुनून साफ झलक रहा था. मुझे सब अपने अपने घर ले जाने की जिद कर रही थीं, मैं जितने घरों में जा सकती थी उनके घर गई भी. छोटे-छोटे घरों को उन लोगों ने बड़े सलीके से सजाकर कर रखा था. किसी ने चाय पिलाया, किसी ने मिठाई खिलाई. वो लोग मेरी मेहमानबाजी ऐसे कर रही थीं, जैसे मैं उनकी करीबी रिश्तेदार हूं. आज जब पहलगाम हमले के बाद दूसरे राज्यों में कश्मीरियों पर हमले की खबरें सुनने को मिल रही हैं, तो बड़ा अफसोस होता है. वो राज्य जहां के लोग अपनी मेहमानबाजी के लिए दुनिया भर में मशहूर हैं, उनके खिलाफ आखिर हिंसा क्यों?  उस गांव की ज्यादातर औरतों ने अपने गांव के बाहर की दुनिया नहीं देखी है, लेकिन दुनिया भर की खबरों से वाकिफ हैं. देश में क्या चल रहा है इसकी पूरी खबर रखती हैं.  

पहले हर रात होती थी फायरिंग

गांव के लोगों की जिंदगी कई सालों तक फायरिंग के बीच गुजरी है. रात के अंधेरे में अक्सर पाकिस्तान की तरफ से रात के सन्नाटे को चीरती हुई गोलियों की आवाज उनके अंदर दहशत भर देती है. हालांकि पिछले कुछ सालों से भारतीय सेना की मुस्तैदी से ये लोग अब बेफिक्र जिंदगी जी रहे हैं.  इस गांव में एक तरफ पाकिस्तान का खौफ है, तो दूसरी तरफ मौसम की बेइमानी कर देती है. लैंडस्लाइड हो जाए तो सारे रास्ते बंद हो जाते हैं, अगर कोई बीमार पड़े तो उसे अस्पताल ले जाना भी काफी मुश्किल होता है, लेकिन अपनी छोटी सी दुनिया में ये लोग बेहद खुश हैं. पहलगाम आतंकी हमले से गांव की प्रधान नाजनीन बेहद निराश हैं. वो कहती हैं- 'ये बहुत गलत हुआ है ऐसा नहीं होना चाहिए था. उन 26 लोगों के साथ बहुत बड़ा जुल्म किया गया है.' वो बार-बार भारतीय सेना को शुक्रिया कहती हैं, जिनकी वजह से वो पाकिस्तान की सीमा पर रहते हुए भी खुद को महफूज महसूस करती हैं. 

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ये तो रही उस गांव की कहानी. अब आपको पुंछ के हिल काका की कहानी बताते हैं, जहां कभी आतंक का राज हुआ करता था. मुझे हिल काका के एक स्कूल में जाने का मौका मिला. घने जंगलों के बीच ऊंची चोटी पर बना ये स्कूल एक मिसाल है, जिस इलाके में लोग कभी अपनी जिंदगी के लिए तरसते थे, आज बेफिक्र होकर यहां बच्चे तालीम हासिल कर रहे हैं. दुनिया की चमक धमक से दूर इस स्कूल की बदरंग दीवारों को देखा तो बड़ी मायूसी हुई. किसी कमरे में टूटे फर्नीचर पर बच्चे बैठे थे, तो कहीं पुरानी मैली सी कालीन पर बैठकर कुछ बच्चे पढाई कर रहे थे. सुविधाएं नहीं थी, लेकिन बच्चों के टैलेंट में कोई कमी नहीं थी. 

10 से 12 साल की 3 लड़कियां फटी हुई नीली कालीन पर खड़ी होकर गाना गा रही थीं- 'हां मेरी जमीन... महबूब मेरी.. नस-नस में तेरा इश्क बहे.. फीका न पड़े कभी रंग तेरा, जिस्मों से निकलकर खून कहे.. इतनी सी है आरजू मेरी... नकाब पहने गाना गा रही लड़कियों की आंखों में देशभक्ति का जो जज्बा नजर आ रहा था, उसमें कोई दिखावा नहीं था, उनकी आवाज उनके दिल से निकल रही थी.   

 

इस स्कूल में 8 साल से लेकर 14 साल की उम्र तक के बच्चों होंगे. बच्चों में गाना गाने और कविता सुनाने की होड़ लगी थी. बिना किसी झिझक के वो बच्चे परफॉर्म कर रहे थे. केरल के रहने वाले शहराज यहां के प्रिसिंपल हैं. इस स्कूल में उर्दू, अरबी के साथ-साथ इंग्लिश भी पढाई जाती है. इस स्कूल में ऐसे बच्चे भी हैं, जिनके पैरैंट्स फीस देने की हालत में नहीं है. स्कूल के मैनेजर मोहम्मद कासिम हिल काका की कहानी बताते हैं कि कैसे इस इलाके में पढ़ाई और रोजगार तो दूर की बात है. यहां आतंक का ऐसा राज था कि आए दिन लोगों की जान जाती थी, लेकिन सेना की वजह से पिछले कुछ सालों में यहां के हालात सामान्य हुए तो  2014 में स्थानीय लोगों ने चंदा इकट्ठा कर ये स्कूल शुरू किया था.

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इस इमारत में ग्राउंड फ्लोर पर इंग्लिश मीडियम स्कूल हैं, तो वहीं दूसरी मंजिल पर मदरसा है. इस मदरसे के ज्यादातर बच्चे यतीम हैं. यहां उन्हें पनाह मिली अब ये मदरसा ही उनकी दुनिया है. एक ही इमारत के दो मंजिलों में काफी अंतर दिखा, एक तरफ बच्चे फिल्मी गानों पर थिरक रहे थे, तो वहीं मदरसे के बच्चे शांत अपने कमरे में बैठे थे, मैंने उनसे बात करने की कोशिश की, लेकिन ज्यादातर जवाब हां या ना में भी मिल रहा था. ये बच्चे न तो शाहरुख खान या सलमान खान को जानते हैं न ही विराट कोहली का नाम कभी सुना है, लेकिन क्रिकेट खेलने में एक्सपर्ट हैं. मुझे दिखाने के लिए सब बैट बॉल लेकर क्रिकेट खेलने निकल गए.    

स्कूल के मैनेजर मोहम्मद कासिम पहलगाम हमले से काफी आहत हैं, वो कहते हैं- 'यकीन नहीं होता कोई इस तरह की हरकत कैसे कर सकता है. हम लोगों को अमन चैन से रहने का पाठ पढ़ाते हैं, लेकिन न जाने कहां से ऐसे लोग ऐसी हरकतें करके इंसानियत को शर्मसार कर रहे हैं.'  
 
पुंछ कि गलियों में बिताए वो पल आज भी मेरे जहन में हैं. गांव की महिलाओं के साथ सेल्फी, देश भक्ति के जज्बे से भरे स्कूल के बच्चों की तस्वीरें आज भी मेरे पास हैं. 

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