दिल्ली के लिए 'सुरक्षा कवच' का काम करने वाली अरावली पर्वतमाला को छलनी करने का प्रयास कोई नया नहीं है. सरकारें लंबे समय से इसे बिल्डरों और कंपनियों के हवाले करने की कोशिश में लगी हुई हैं. अरावली को खोखला करने के काम में नेता, ब्यूरोक्रेट और बिल्डर सब शामिल हैं. दिल्ली से सटे अरावली का बड़ा हिस्सा हरियाणा सरकार के अधीन आता है. हरियाणा में सरकार किसी भी की रही हो...सबने अरावली को वन क्षेत्र की परिभाषा से निकालने की भरपूर कोशिश की है, ताकि बिल्डरों का फायदा हो. लेकिन, भला हो पर्यावरणविदों, सुप्रीप कोर्ट और एनसीआर प्लानिंग बोर्ड का जिसने अपने सख्त फैसलों से इसे बचाया, वरना दिल्ली और फरीदाबाद से लेकर गुड़गांव तक अरावली में बिल्डिंगें ही बिल्डिंगें खड़ी होतीं. यह पर्यावरण के लिहाज से बहुत ही खतरनाक होता.
हरियाणा सरकार ने एनसीआर प्लानिंग बोर्ड में फरीदाबाद क्षेत्र की 17,000 एकड़ भूमि को 'वन भूमि' के दायरे से बाहर निकालने का प्रस्ताव दे दिया था. जिसे बोर्ड ने दिसंबर 2017 में रद्द कर दिया. साथ ही कहा कि अरावली का दायरा हरियाणा के गुड़गांव और राजस्थान के अलवर तक ही सीमित नहीं होगा. इसका दायरा पूरे एनसीआर में माना जाएगा. अरावली वन भूमि का सीमांकन बोर्ड के फैसले और पर्यावरण मंत्रालय की अधिसूचना के मुताबिक होगा. बोर्ड के इस निर्णय से अरावली और छलनी होने से बच गई. वरना इस जमीन पर और हाईराइज बिल्डिंगें तैयार होतीं.
डीआरडीओ को बेच दिया पहाड़
हरियाणा सरकार के अधीन आने वाले फरीदाबाद नगर निगम (MCF) ने रक्षा मंत्रालय को डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट आर्गेनाइजेशन (DRDO) का सेंटर बनाने के लिए अरावली में 407 एकड़ ऐसी जमीन बेच डाली जो पंजाब भूमि संरक्षण अधिनियम (Punjab Land Preservation Act) की धारा 4 और 5 के तहत आती थी. जिसके तहत किसी भी गैर-वन गतिविधि पर रोक लगती है. नगर निगम ने शर्त लगाई थी कि डीआरडीओ एनवायरमेंट क्लीयरेंस खुद लेगा. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट की सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी (CEC) और पर्यावरण मंत्रालय ने निर्माण की कसेंट नहीं दी, वरना संरक्षित पहाड़ में बड़ा निर्माण खड़ा होता. अरावली और खोखली हो जाती. भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) ने रक्षा मंत्रालय को इस अविवेकपूर्ण फैसले के लिए फटकार लगाई.
दरअसल, डीआरडीओ ने फरवरी 2004 में 700 एकड़ जमीन खरीदने की प्रक्रिया शुरू की थी. अगस्त 2005 में इसे बढ़ाकर 1,100 एकड़ कर दिया गया. इसके बाद डीआरडीओ ने वन विभाग से वन भूमि को गैर-वन उपयोग के लिए डायवर्ट करने की मंज़ूरी लेने के लिए संपर्क किया, तब नवंबर 2005 में क्षेत्रीय वन संरक्षक ने बताया कि 1,091 एकड़ जमीन वन भूमि है. उन्होंने डीआरडीओ को यह भी बताया था कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के अनुसार, उक्त भूमि के गैर-वन उपयोग के लिए केंद्र से मंज़ूरी लेनी होगी. मई 2007 में, DRDO ने अपनी जरूरत को घटाकर 407 एकड़ कर दिया और दो महीने बाद, नगर निगम कमिश्नर ने डीआरडीओ को बताया कि राज्य सरकार ने जमीन आवंटित करने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है, बशर्ते डीआरडीओ डी-नोटिफिकेशन के लिए जरूरी कार्रवाई करे.
फॉरेस्ट क्लीयरेंस का इंतजार हो ही रहा था कि डीआरडीओ ने हरियाणा सरकार को तीन किस्तों में 73.26 करोड़ रुपये का पेमेंट किया और अप्रैल 2008 में जमीन पर कब्जा कर लिया. लेकिन जब डीआरडीओ ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी से इजाजत मांगी, तो उसने उसे खारिज कर दिया.
हुड्डा सरकार ने बनाया था खतरनाक प्लान
फरीदाबाद-गुरुग्राम के बीच एक बेहद खूबसूरत गांव है मांगर. जून 2007 में तत्कालीन हुड्डा सरकार ने मांगर क्षेत्र में एक डच कंपनी को 500 एकड़ भूमि पर यूरोपियन टेक्नॉलोजी पार्क बनाने की मंजूरी दे दी थी. स्थानीय पर्यावरण और पारिस्थितिकी के संरक्षण के लिए केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने हुड्डा सरकार के इस प्रोजेक्ट पर रोक लगा दी.
हुड्डा सरकार यहीं नहीं रुकी. साल 2012 में मांगर डेवलपमेंट प्लान-2031 का मसौदा तैयार किया. मांगर गांव के आसपास 23 गांवों की 10,426 हेक्टेयर जमीन पर यह प्लान बना था, लेकिन वन क्षेत्र को बचाने के लिए एनसीआर प्लानिंग बोर्ड ने इसकी मंजूरी देने से मना कर दिया, वरना अरावली का स्वरूप बहुत बिगड़ चुका होता. हरियाणा में कांग्रेस सरकार की यह कोशिश नाकाम रही तो फिर उसके बाद वाली बीजेपी सरकार कम नहीं थी.
खतरनाक संशोधन पर सुप्रीम रोक
मनोहर लाल के कार्यकाल में हरियाणा विधानसभा ने 27 फरवरी, 2019 को पंजाब भूमि संरक्षण (हरियाणा संशोधन) विधेयक, 2019 (Punjab Land Preservation (Haryana Amendment) Bill, 2019) पारित कर दिया. जिससे अरावली क्षेत्र की लगभग 60,000 एकड़ वन भूमि को रियल एस्टेट और खनन के लिए खोला जा सकता था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी थी. PLPA में संशोधन पर पर्यावरणविदों और उच्चतम न्यायालय ने गहरी चिंता व्यक्त की थी. संशोधन के जरिए अरावली के एक बड़े हिस्से को संरक्षित श्रेणी से बाहर करना था, जिससे वहां निर्माण और रियल एस्टेट गतिविधियों का रास्ता साफ हो सके. सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा सरकार के इस कदम पर कड़ी आपत्ति जताई थी और राज्य सरकार को फटकार लगाते हुए कहा था कि सरकार "जंगलों को खत्म नहीं कर सकती". कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि PLPA के तहत आने वाली भूमि को 'वन' माना जाना चाहिए.
ओम प्रकाश