गण प्रमुख, कबीलाई देवता और यक्षों से जुड़ाव... कौन हैं और कहां से आए श्रीगणेश?

सनातन परंपरा में भगवान गणेश को देवताओं में अग्रणी और प्रथम पूज्य की उपाधि मिली हुई है. किसी भी कार्य से पहले उन्हें प्रणाम करने की हमारी परंपरा भी रही है, लेकिन इतिहास और ऐतिहासिक साक्ष्य 'गणपति' की भूमिका को किस नजरिये से देखता हैे, यह जानना दिलचस्प है. गणेश चतुर्थी के मौके पर जानिए श्रीगणेश को लेकर क्या है ऐतिहासिक दृष्टिकोण?

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पौराणिक मान्यताओं से इतर इतिहास की दृष्टि से गणेशजी सर्वमान्य रूप से लोकदेवता नजर आते हैं पौराणिक मान्यताओं से इतर इतिहास की दृष्टि से गणेशजी सर्वमान्य रूप से लोकदेवता नजर आते हैं

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 28 अगस्त 2025,
  • अपडेटेड 6:56 AM IST

देशभर में गणेश चतुर्थी की धूम है. बीते डेढ़ दशक तक यह पर्व महाराष्ट्र के लोकपर्व के तौर पर मशहूर था, लेकिन अब इस उत्सव की मान्यता पैन इंडिया हो चुकी है. वैसे उत्तर से लेकर दक्षिण तक, पर्वत से लेकर सागर तक भारत का कोई भी भू-भाग ऐसा नहीं है, जो गणेशजी की मान्यताओं से परे हो. प्रथम पूज्य, गणपति, गणनायक, विनायक, विघ्नहर्ता और मंगलकारी के नाम से जाने और पूजे जाने वाले श्रीगणेश किसी अन्य देवी-देवता के बजाय कहीं अधिक लोक से जुड़े हुए दिखाई देते हैं.

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हालांकि इतिहास इस नजरिये पर अपनी एक अलग राय रखता है. इतिहास और पुरातत्व के साक्ष्य बताते हैं कि गणपति का आरंभिक स्वरूप राजनीतिक पदवी, यक्ष-टोटम और विघ्नकर्ता देवता से जुड़ा रहा है. कभी गणराज्यों के प्रमुख की उपाधि, कभी बौद्ध-तांत्रिक परंपराओं में बाधा डालने वाले देवता और फिर गुप्तकालीन मूर्तियों में शिवपुत्र के रूप में—गणेश की छवि ने समय के साथ कई रूप बदले हैं. यही विकास-यात्रा गणपति को सिर्फ देवता नहीं, बल्कि भारत की सामाजिक-राजनीतिक स्मृतियों का जीवंत प्रतीक भी बनाती है.

गणपति या गणेश, के नाम से ही ऐसा लगता है कि ये किसी गण-व्यवस्था वाले शासन के प्रमुख की कोई पदवी रही होगी. आगे चलकर इसी पदवी को देवत्व से जोड़ा गया. छठी सदी ई.पूर्व के पहले से ही भारत में गण-व्यवस्था शासन की मौजूदगी रही है. इतिहासकार केपी जायसवाल अपनी पुस्तक 'हिन्दू पॉलिटि' में इसे विस्तार से सामने रखते हैं.

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महात्मा बुद्ध ने भी जिस शाक्य कुल में जन्म लिया उसमें भी गण-शासन ही था न कि राजतंत्र और वह भी एक ही कुल की गण-व्यवस्था थी. प्राचीन भारत में वैशाली के लिच्छवी, वज्जि संघ, यादव-वृष्णि आदि बड़े गणतंत्र राज्य थे जिनमें कई कुलों के लोग शामिल थे.

विघ्नहर्ता बनने से पहले विघ्नकर्ता की थी पहचान

एक दिलचस्प बात यह भी है कि, गणपति भले ही आज विघ्नहर्ता और विघ्नविनाशक के तौर पर पूजे जाते हैं, लेकिन एक समय ऐसा था कि वह असल में विघ्नकर्ता माने जाते थे. इसका संदर्भ प्राच्य इतिहासकार भंडारकर के आलेखों और इतिहास वर्णन में मिलता है. वह "गणपति" का प्रारंभिक संबंध उन यक्षों और विनायकों के साथ जोड़ते हैं जो विघ्नकर्ता माने गए हैं, वह स्वभाव से क्रूर थे, उनकी पूजा-उपासना करने पर ही वे शांत होते थे. (ऐसे कई यक्ष भी थे). प्राचीन स्मृतियों मनु और याज्ञवल्क्य में गणपति का नाम 'विघ्नकर्ता' और 'विघ्नेश्वर' तो था ही याज्ञवल्क्य-स्मृति में इन्हें विनायक भी कहा गया है, जो इस संबंध में महत्वपूर्ण साक्ष्य हैं.

प्रारंभिक ब्राह्मण साहित्य में गणेश को विघ्नकर्ता ही माना गया. बौद्ध धर्म भी इससे अछूता नहीं. पालकालीन बौद्ध देवी 'तारा' गणेश को कुचलते हुए मिलती हैं, तिब्बत के 'बौद्ध महाकाल' के चरणों मे गणेश मिलते हैं, क्योंकि वहां गणेश नियम-व्यवस्था तोड़ने वाले हैं. जबकि बौद्ध महाकाल नियम-व्यवस्था स्थापित करने वाले देवता हैं. मूर्तिकला में 'बौद्ध विघ्नान्तक' नाम के देवता भी गणेश को कुचल रहे हैं, क्योंकि गणेश तो यहां भी विघ्नकर्ता थे और इन सबकी कथाएं भी बाकायदा नेपाली/तिब्बती प्राचीन लोककथाओं में मिलती हैं, इसलिए कोई संशय भी नहीं.

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ओडियान मठ की प्रचलित कथा

कथा कुछ ऐसी है कि, ओडियान मठ(काठमांडू) बागमती नदी किनारे जब बौद्ध तांत्रिक सिद्धि प्राप्त करने बैठता है तो गणेश ने कई बाधाएं उत्पन्न कीं फिर उसने बौद्ध विघ्नान्तक देवता का आह्वान किया जिन्होंने भंयकर रूप धारण कर गणेश को पराजित किया. इस तरह बौद्ध तंत्रयान/वज्रयान में भी गणेश विघ्नकर्ता या नकारात्मक देवता के रूप में अपनी स्थिति बनाये हुए थे.

यक्ष प्रतिमाओं से गणपति की समानता

मूर्तिकला और साहित्य में गणेश का जो प्रतिरूप दिखाई देता है, उसमें ठिगना कद, छोटी टांगे, लंबा पेट और हाथी का मस्तक दिखाई पड़ता है, इसमें से प्रथम तीन विशेषताएं तो सीधे यक्षों से ली गई हैं. इस समानता को सांची में बनी यक्षों की मूर्तियों से भी देखा जा सकता है.

महत्वपूर्ण है कि यक्षों के सिर अनिवार्य रूप से मानव के नहीं होते हैं, बल्कि वह गोमुख, अश्वमुख आदि पशुओं के भी होते हैं. हस्तिमुख इसी से संबंधित है. (अमरावती स्तूप में एक यक्ष का मुख हाथी का है, यह गणेश प्रतिमा का ओरिजिन हो सकता है. जो किसी प्राचीन कबीले या जनजाति का टोटम-प्रतीक भी हो सकता है. वैसे भी हाथी-मस्तक प्राचीन विश्व के कई सभ्यताओं के प्रतीक रूप में शामिल था, प्रारंभिक यूनानी सिक्कों पर भी गजटोप हैं.

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गणेश से इतर हाथी की मूर्तियां बौद्ध और जैन धर्म के लिए विशेष महत्व की थीं, सम्राट अशोक और जैन राजा खारवेल ने ईस्वी सदी के ठीक पहले हाथी मूर्तियों से संबंधित कई निर्माण करवाए. बुद्ध भी अपनी माता के गर्भ में सफेद हाथी के रूप में आए, ऐसी बौद्ध कथा है इसीलिए कई लोग हाथियों से अभिषेक करवाती यक्षिणी 'श्री मा'(प्राकृत में लिखित शब्द 'सीरी मा') को बुद्ध की मां महामाया कहते हैं.

आदिम समाज के टोटम और गणपति

डॉ. देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय की पुस्तक "लोकायत" के अनुसार आदिम समाज कबीला समूह में रहता था, इन समूहों के टोटम (प्रतीक चिह्न)होते थे. हस्ति और मूषक समूह में संघर्ष हुआ, हस्ति समूह विजयी हुए, मूषक पराजित, इसी परिणाम स्वरूप हस्तिमुख गणपति के वाहन मूषक हुए. हालांकि मूर्तिकला में गणेश के साथ मूषक थोड़े बाद में बनने शुरू हुए पर कड़ियां जरूर जुड़ती हैं, अन्य वंशागत और धार्मिक कथाओं के आधार पर भी इसे समझा जा सकता है.

मैत्रायणी संहिता में पहला उल्लेख

ॐ गणेशाय नमः या श्रीगणेश कहके जो हम अपना शुभ कार्य शुरू करते हैं, इसकी संकल्पना बहुत प्राचीन नहीं है, क्योंकि हमारे यहां प्राप्त प्राचीन शिलालेखों में प्रमुख देवताओं (कई देवताओं का नाम सहित उल्लेख, जिसमें गणेश नहीं हैं) को नमस्कार अथवा सिद्धम या अर्हन्तो को नमस्कार करके लिखा गया है. आज हम जिन गणेश को जानते हैं उनके इस रूप में पहली बार उल्लेख मैत्रायणी संहिता में हुआ है, मंत्र है-

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एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि। तन्नो दन्ती प्रचोदयात्॥

इस भाग को गणेशोपनिषद (गणपत्युपनिषद्) भी कहते हैं. इसपर सबसे अधिक जानकारी के लिए सम्पूर्णानंद की गणेश पर शोधपरक किताब में पढ़ने को मिलती है.

ऋग्वेद में भी जिक्र लेकिन स्पष्ट नहीं

विद्वानों का एक मत यह भी है कि श्रीगणेश को भले ही ऋग्वेद के मंत्र "गणानां त्वा गणपतिम" (ऋ0 2.23.1) से जोड़ा जाता है लेकिन यह मंत्र गौरीपुत्र गणेश के लिए नहीं बल्कि "ब्रह्मणस्पति" गणपति के लिए है जो सभी देवता गणों के अधिपति हैं. उनकी राय में "गणानां त्वा गणपति हवामहे" जिसे अमूमन लोग गणेश मंत्र मानते हैं, जबकि असल में वह अश्वमेध घोड़े से संबंधित मंत्र है.

महत्वपूर्ण है कि परम शिव भक्त महाकवि कालिदास के साहित्य में शिव पुत्र गणेश अनुपस्थित हैं जबकि गणेश की मूर्तियां और पूजा तबतक प्रचलित हो चुकी थीं. गुप्तोत्तर कालीन जैन ग्रंथ भी गणेश महिमा से भरे पड़े हैं. ऋग्वेद में इंद्र को भी गणपति कहा गया है.

गणेश, शिव के पुत्र माने जाते हैं, शिव का भी एक नाम गणपति है. शिव के साथ गणेश सम्बंधित हैं, इसका सबसे बड़ा प्रमाण है:- गणेश मूर्तियों में 'लिंग' प्रदर्शन और सर्प-यज्ञोपवीत. गणेश की अबतक प्राप्त प्राचीनतम मूर्ति मथुरा-कला के अंतर्गत मथुरा से ही मिली है, एक संकिसा से प्राप्त और तीन मथुरा संग्रहालय में रखी हुईं. इन मूर्तियों की विशेषता है; दो भुजाओं वाले, लंबोदर, बायीं ओर सूंड़ के साथ हाथ मे मोदक-पात्र और सर्प का यज्ञोपवीत.

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इन प्रारंभिक मूर्तियों में गणेश के लिंग का प्रदर्शन साफ दिखाया गया है यानी गणेश कहीं न कहीं शिव के आदिरूप के साथ संबंधित थे, इसलिए इन्हें पुराणों में शिव का पुत्र बताया गया है. (बाद में कथाओं की बाढ़ से सब गड्डमड्ड हो जाता है). कुषाण शासक हुविष्क के सिक्के पर भी धनुर्धारी गणेश अंकित हैं जो अब कुषाण शासकों के ही सिक्कों पर शिव, उमा, कार्तिकेय के साथ उनके परिवार का हिस्सा बनने लगे थे. (कुषाण सिक्कों के विकासक्रम में इसका प्रमाण उपलब्ध है).

यूनानी शासक के प्रचलित सिक्के पर गणपति

कुछ इसी तरह पहली सदी ई. पू. के इंडो यूनानी शासक हर्मियस के चांदी के सिक्के पर गणेश जैसे देवता हैं. आइकनोग्राफी के हिसाब से हाथी सिर और मानव धड़ वाले दो अन्य प्राचीन मूर्तियां एक भारत में बौद्ध स्तूप पर दूसरा श्रीलंका में मिलती हैं, लेकिन इन तीनों मूर्तियों पर नाम नहीं मिलता और न ही शास्त्रों में लिखे प्रतिमा-लक्षण के अनुरूप ये बनाए गए हैं इसलिए जिस गणेश भगवान की हम पूजा करते हैं उनसे इनका कितना संबंध है, साफ कहा नहीं जा सकता पर इतना तय है कि इन्हीं प्रतिरूपों के आधार पर कुछ ही सदी बाद देवता गणेश की शास्त्र सम्मत प्रचलित प्रतिमाएं बनाई गईं.

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गुप्तकाल से गणेश मूर्तियां बहुतायत से मिलनी शुरू होती हैं साथ ही उनसे जुड़ी साहित्यिक रचनाएं भी. गुप्तकाल की अफगानिस्तान से 2 गणेश मूर्तियां मिली हैं. यहां भी गणेश को उर्ध्वलिंगी रूप और सर्प-यज्ञोपवीत के साथ दिखाया गया है, महत्वपूर्ण है कि शिव और शिव-अर्धनारीश्वर में भी यही विशेषता रहती है.

गणेश के अतिरिक्त गणेशी और 'अर्धनारीश्वर गणेश' की भी मूर्तियां गुप्तोत्तर काल से मिलनी शुरू हो जाती हैं. गणपति और उनकी मूर्ति परंपरा पर शोधकार्य फ्रांसीसी विदुषी एलिस गेटी ने अपने ग्रंथ "गणेश-ए मोनोग्राफ आन द एलिफेंट-फेस्ड गाड"में लगभग 1940 के आसपास किया ‌था तबसे इनपर बहुत रिसर्च हुआ है.

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