राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरकार्यवाह यानी महासचिव दत्तात्रेय होसबाले ने संविधान की प्रस्तावना से 'सोशलिस्ट' और 'सेक्यूलर', ये दो शब्द हटाने की मांग की है. इमरजेंसी के 50 साल पूरे होने के मौके पर नई दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में दत्तात्रेय होसबाले ने कांग्रेस से इंदिरा गांधी की सरकार के इमरजेंसी लगाने के फैसले को लेकर माफी मांगने की भी मांग की. उन्होंने कांग्रेस पर तंज करते हुए कहा कि उस समय जो लोग यह सब कर रहे थे, वह आज संविधान की कॉपी लेकर घूम रहे हैं.
दत्तात्रेय होसबाले के इस बयान पर कांग्रेस के राज्यसभा सांसद जयराम रमेश की प्रतिक्रिया आई है. जयराम रमेश ने कहा है कि 1949 से ही आरएसएस ने संविधान पर हमला किया है, संविधान का विरोध किया है. उन्होंने कहा कि संघ के लोगों ने पंडित नेहरू और आंबेडकर के पुतले जलाए थे. संघ और कांग्रेस के बीच जुबानी जंग का एक नया फ्रंट खुलता दिख रहा है. वहीं, संविधान की प्रस्तावना में सोशलिस्ट और सेक्यूलर, इन दोनों शब्दों को लेकर एक नई बहस भी छिड़ गई है.
दत्तात्रेय होसबाले ने क्या तर्क दिए?
संघ नेता ने कहा कि इस पर विचार किया जाना चाहिए कि क्या कांग्रेस सरकार की ओर से इमरजेंसी के समय संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द बरकरार रखे जाने चाहिए या नहीं. उन्होंने इन दोनों शब्दों को हटाने की वकालत की. 1976 में 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से संविधान की प्रस्तावना में 'सॉवरेन सोशलिस्ट सेक्यूलर डेमोक्रेटिक रिपब्लिक' जोड़ा गया था. तब देश में इमरजेंसी लागू थी.
इन शब्दों पर विवाद क्यों?
संविधान की प्रस्तावना से ये शब्द हटाने की मांग के पीछे यह तर्क दिया जाता है कि इन्हें तब जोड़ा गया था, जब तानाशाही थी और सरकार की बातें ही कानून थीं. इन शब्दों को संसद में चर्चा कर जोड़े जाने की जगह थोपा गया था. दावे यह भी किए जाते हैं कि सोशलिस्ट देश के रूप में पहचान से पॉलिसी चॉइस सीमित हो जाती है.
संघ की अगुवाई वाले दक्षिणपंथी सेक्यूलर को भारत की हिंदुत्व की विरासत को नकारने जैसा मानते हैं. वहीं, एक धड़ा संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए इन शब्दों का समर्थन भी करता है. समर्थक यह तर्क देते हैं कि इससे भारत की समन्वयकारी संस्कृति स्पष्ट होती और ये शब्द समाज के प्रति सरकार की जिम्मेदारी, आस्था से जुड़े विषयों पर सरकार के न्यूट्रल स्टैंड को भी दर्शाते हैं.
संविधान सभा में सोशलिस्ट और सेक्यूलर पर चर्चा हुई थी?
सोशलिस्ट और सेक्यूलर संविधान के मूल ड्राफ्ट का अंग नहीं थे. इन शब्दों पर संविधान सभा में भी चर्चा हुई थी. संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने संविधान की प्रस्तावना में सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द जोड़ने का प्रस्ताव रखा था. प्रस्ताव रखने वाले सदस्यों का मत था कि सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द देश की विचारधारा को प्रदर्शित करेंगे.
संविधान सभा के सदस्य रहे प्रोफेसर केटी शाह ने ये शब्द संविधान में शामिल कराने के लिए कई प्रयास किए. उनका तर्क था कि सेक्यूलर शब्द से धर्म को लेकर न्यूट्रल रहने की प्रतिबद्धता जाहिर होगी और सोशलिस्ट शब्द आर्थिक असमानता दूर करने का उद्देश्य दर्शाएगा. प्रोफेसर केटी शाह के तर्क का एचवी कामथ और हसरत मोहानी ने भी समर्थन किया था.
डॉक्टर आंबेडकर का क्या स्टैंड था?
संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने संविधान में इन शब्दों को शामिल किए जाने का विरोध किया था. वह सोशलिस्ट को एक अस्थायी नीति के रूप में देते थे, संवैधानिक आदेश के रूप में नहीं. डॉक्टर आंबेडकर का मत था कि ऐसी नीतियों को भविष्य की सरकारों पर छोड़ देना चाहिए. उन्होंने कहा कि संविधान की प्रस्तावना में सोशलिस्ट का स्थायी सिद्धांत के रूप में वर्णन लोकतंत्र के लचीलेपन को कमजोर करेगा. डॉक्टर आंबेडकर ने कहा था, "राज्य की नीति क्या होनी चाहिए... यह ऐसा मामला, जिसे समय और परिस्थितियों के मुताबिक लोगों को खुद तय करना चाहिए. इसे संविधान में नहीं रखा जा सकता. ऐसा करना लोकतंत्र को नष्ट कर देगा."
उन्होंने यह तर्क भी दिया कि सोशलिस्ट शब्द संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में पहले से ही शामिल है. इसलिए भी यह संविधान की प्रस्तावना में गैरजरूरी हो जाता है. प्रोफेसर केटी शाह के जवाब में डॉक्टर आंबेडकर ने कहा था कि अगर नीति निर्देशक तत्व अपने डायरेक्शन और कंटेंट में समाजवादी नहीं हैं, तो यह समझने में विफल हूं कि इससे अधिक सोशलिज्म क्या हो सकता है. उन्होंने कहा था कि ये सोशलिस्ट सिद्धांत पहले से ही हमारे संविधान में शामिल हैं और यह संशोधन स्वीकार करना गैर जरूरी है.
बौद्ध धर्म मानने वाले डॉक्टर आंबेडकर का भारत के बहु सांस्कृतिक वाद में भरोसा था और सेक्यूलर को लेकर उनका मत था कि यह शब्द गैर जरूरी है. उनका तर्क था कि संविधान में मौलिक अधिकारों के माध्य से पहले ही इसकी गारंटी दी जा चुकी है, यह प्रस्तावना के मसौदे में भी पहले से ही निहित है. डॉक्टर आंबेडकर ने सेक्यूलरिज्म की अवधारणा का नहीं, इसके उल्लेख का विरोध किया. उनका मत था कि संविधान की संरचना इस सिद्धांत को बरकरार रखती है और राज्य सभी धर्मों के समान व्यवहार सुनिश्चित करेगा. यह सुनिश्चित किया जाएगा कि बिना किसी लेबल के किसी के भी साथ भेदभाव न हो.
क्या आंबेडकर से सहमत थे पंडित नेहरू?
देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की इमेज एक कट्टर समाजवादी और सेक्यूलरिज्म के समर्थक नेता की है. उन्होंने सभी के लिए धार्मिक स्वतंत्रता की वकालत करते हुए कहा था कि इसमें उन लोगों की स्वतंत्रता भी शामिल है, जिनका कोई धर्म नहीं है. नेहरू ने भी सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द को प्रस्तावना में शामिल किए जाने की पैरवी नहीं की.
नेहरू का यह मानना था कि संविधान की संरचना हर धर्म के लिए सम्मान के साथ ही कल्याणकारी राज्य सुनिश्चित करती है. आंबेडकर और नेहरू, दोनों के ही मत इस विषय पर एक समान थे. दोनों ही यह मत था कि संविधान को रूपरेखा तय करनी चाहिए, निश्चित नीति नहीं. 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द के बिना प्रस्तावना को अंगीकार किया.
प्रस्तावना में क्यों जोड़े गए सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द?
इंदिरा गांधी की अगुवाई वाली सरकार ने 1976 में संविधान की प्रस्तावना में सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द जोड़े. इस फैसले के पीछे कल्याणकारी राज्य के प्रति राज्य की प्रतिबद्धता को उद्देश्य बताया गया. यह तर्क भी दिए गए कि गरीबी हटाओ के लिए सरकार की प्रतिबद्धता को यह दर्शाता है.
सरकार की ओर से यह भी कहा गया था कि संविधान के मूल उद्देश्य को दर्शाने, धर्म को लेकर तटस्थ रुख मजबूत करने के लिए सेक्यूलर शब्द जोड़ा गया. यह संशोधन रेट्रोएक्टिव तरीके से 26 नवंबर 1949 की तारीख से लागू किया गया, जिसे बाद में आलोचकों ने चुनौती भी दी. इमरजेंसी के बाद 1977 में चुनाव हुए और जनता पार्टी की सरकार बनी. इस सरकार ने 42वें संविधान संशोधन के कुछ भाग हटा दिए, लेकिन सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द बरकरार रखे गए.
इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
सुप्रीम कोर्ट ने डॉक्टर बलराम सिंह बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस में पिछले ही साल (2024 में) सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द संविधान की प्रस्तावना में शामिल किए जाने को दी गई चुनौती खारिज कर दी थी. सर्वोच्च न्यायलय ने अपने फैसले में कहा कि संविधान एक जीवंत दस्तावेज है और इसमें संसद संशोधन कर सकती है.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि समय के साथ भारत ने सेक्यूलरिज्म की अपनी व्याख्या का विकास किया है. इसमें राज्य न तो किसी धर्म का समर्थन करता है और ना ही किसी धर्म को दंडित करता है. यह सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 में निहित हैं. इससे पहले 1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि प्रस्तावना, संविधान का अभिन्न अंग है और अनुच्छेद 368 के तहत इसमें भी संशोधन किए जा सकते हैं, बशर्ते मूल ढांचे का उल्लंघन न हो.
क्यों जारी है इन शब्दों को लेकर बहस?
केंद्र की सियासत में हिंदूवादी मानी जाने वाली पार्टी बीजेपी के मजबूत उभार के बाद सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द को लेकर बहस और तेज हो गई है, जिसकी राजनीति भी समाजवाद के सिद्धांतों पर ही आधारित है. साल 2015 में नरेंद्र मोदी सरकार सोशलिस्ट और सेक्यूलर शब्द के बिना संविधान के प्रस्तावना की एक तस्वीर का इस्तेमाल किया था. तब केंद्रीय मंत्रियों ने इस फैसले का बचाव करते हुए कहा था कि इन शब्दों पर बहस होनी चाहिए. कुछ दक्षिणपंथी विचारक यह तर्क देते हैं कि सेक्यूलर शब्द छद्म धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देता है.
बीजेपी इसे तुष्टिकरण बताती है और कांग्रेस का तर्क है कि यह शब्द समानता और एकता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को व्यक्त करता है. यह शब्द संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप हैं. कांग्रेस के नेता यह भी कहते हैं कि संघ और इसके समर्थक सेक्यूलरिज्म को भारत पर हिंदुत्व थोपने के अपने एजेंडे का जवाब मानते हैं.
संदीपन शर्मा