विलेन बनते हीरो... औरतों को जूती पर रखती फिल्में, कहां खो गया बॉलीवुड का सॉफ्ट बॉय एरा?

Animal Movie: फिल्मों में वक्त के साथ हीरो की तस्वीर भी बदलती रही है. आज के वक्त में वो हीरो हैं, जो हिंसा करते हैं. इसे फिल्म में जायज़ भी ठहराया जाता है. बॉलीवुड का सॉफ्ट बॉय एरा अब कहीं खो गया है.

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पहले से बहुत बदल गए बॉलीवुड फिल्मों में हीरो (तस्वीर- सोशल मीडिया) पहले से बहुत बदल गए बॉलीवुड फिल्मों में हीरो (तस्वीर- सोशल मीडिया)

Shilpa

  • नई दिल्ली,
  • 09 दिसंबर 2023,
  • अपडेटेड 10:13 PM IST

एक लड़की को कैसा जीवनसाथी चाहिए, इसकी कल्पना वो बचपन से जवानी में कदम रखते ही करने लगती है. फिल्मों ने उसके ज़हन में 'हीरो कैसा होता है' इसकी एक तस्वीर बना दी है. वक्त के साथ बस हीरो के नाम बदलते जाते हैं. 1960 के दशक की लड़कियों को देवानंद जैसा पति चाहिए था. फिल्म 'जब प्यार किसी से होता है' में वो हीरोइन को देख गाना गाते हैं, 'जब प्यार किसी से होता है, तो दर्द सा दिल में होता है, तुम एक हसीन हो लाखों में, भला पाके तुम्हें कोई खोता है...' ये फिल्म 1961 में आई थी.

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वक्त आगे बढ़ा, साल 1973 में फिल्म आई 'ब्लैकमेल', जिसमें धर्मेंद्र अपनी हीरोइन से प्यार का इज़हार करने के लिए उसे ढेर सारे लव लेटर लिखते हैं. हीरोइन शर्माते हुए उन्हें पढ़ती है और हीरो गाना गाता है- 'पल पल दिल के पास तुम रहती हो, जीवन मीठी प्यास ये कहती हो...' इसमें हीरो को बेहद शांत और सौम्य स्वभाव वाला दिखाया गया है. जो हीरोइन के साथ ऐसा व्यवहार करता है, मानो वो एक फूल हो. इस दशक की लड़कियों के लिए धर्मेंद्र जैसा लड़का ही हीरो था.

प्रेम के सभी किरदार खूब पसंद किए गए (तस्वीर- सोशल मीडिया)

वक्त आगे बढ़ा 1989 में सलमान खान की फिल्म आई 'मैंने प्यार किया'. फिल्म में जब हीरो, हीरोइन से दूर होता है, और गाना आता है कबूतर जा जा... हीरो गीत गाते हुए कुछ यूं कहता है... 'यहां का मौसम बड़ा हंसी है, फिर भी प्यार उदास है, उनसे कहना, दूर सही मैं दिल तो उन्हीं के पास है.' सलमान की कई और फिल्में आईं... अब लड़कियों को प्रेम जैसा जीवनसाथी चाहिए था... क्योंकि हीरो कैसे होते हैं? ये फिल्म में बताया गया कि वे प्रेम जैसे होते हैं. 

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कल हो न हो के रोहित ने सबका दिल जीता (तस्वीर- सोशल मीडिया)

इसके बाद साल 2002 में देवदास आई, जिसमें प्रेमिका के किसी और से शादी करने के बाद हीरो देवदास बन जाता है... शराब के नशे में डूबा एक उदास आशिक. 2003 में आई फिल्म 'कल हो न हो' में अमन (शाहरुख) नैना (प्रीति ज़िंटा) से बेइंतहा मोहब्बत करता है, मगर उसे कैंसर है. तो वो रोहित (सैफ अली खान) से उसकी शादी करा देता है. इसमें रोहित नैना को हंसाने वाला थोड़ा लापरवाह लेकिन दिल का अच्छा लड़का है. 

फिर वक्त बीता और 2006 में आई फिल्म 'विवाह'. इसमें प्रेम के किरदार में शाहिद एक हादसे में ज़ख्मी हुई अपनी हीरोइन से शादी कर लेते हैं. उसका शरीर घायल था, तो गोद में उठाकर फेरे लेते हैं. हीरो को बेहद सौम्य और नरम दिल वाले लड़के के तौर पर दिखाया गया है. फिर 2007 में आई फिल्म 'जब वी मेट'. इसमें आदित्य कश्यप के किरदार को निभाने वाले शाहिद लड़कियों के चॉकलेटी हीरो बन गए. जिसने मुरझाए फूल सी गीत (करीना कपूर) को एक बार फिर खिला दिया था.

आदित्य कश्यप जैसे लड़के की चाह रखने लगीं लड़कियां (तस्वीर- सोशल मीडिया)

इन सभी फिल्मों में कुछ कॉमन बातें जो दिखीं, वो थीं- हीरो का दाढ़ी मूंछ न होना, शांत स्वभाव, लड़कियों को फूल की तरह ट्रीट करना, बेहद प्यार से बात करना, प्रेमिका का सम्मान करना, प्रेम का इज़हार प्रेम से करना. ऐसा किरदार जिससे सब प्यार करें. जिससे किसी को डर न लगे. जो ज़रूरत पड़ने पर लड़की की सुरक्षा कर सके न कि खुद लड़की के लिए खतरा बन जाए. लेकिन आज की फिल्मों से ऐसे हीरो गायब हो गए हैं. आज के हीरो वो काम कर रहे हैं, जो पहले फिल्मों के विलेन किया करते थे. 

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आज के हीरो से असल में डर जाएं लड़कियां

साल 2019 में फिल्म आई कबीर सिंह. एक रिलेशनशिप में जो चीज़ें नहीं होनी चाहिए, कबीर सिंह (शाहिद कपूर) और प्रीति (कियारा आडवाणी) के रिश्ते में वो सब था. कंट्रोल, पावर, टॉक्सिक बातें, खतरनाक मर्दानगी, खाने से लेकर कपड़े पहनने तक सबका फैसला हीरो ही करेगा. वो लड़की को चाकू दिखाकर कपड़े उतारने को कहता है, एक गिलास तोड़ने पर काम वाली बाई के पीछे दौड़ता है, प्रेमिका को थप्पड़ मारता है. फिल्म में हिंसा भरपूर है. लेकिन हीरो के इस पागलपन को देखकर हॉल में तालियां बजाते लोगों को देखकर ऐसा लगा कि उन्होंने इस क्रूरता को मुस्कान के साथ स्वीकार कर लिया है.  

कबीर सिंह में नहीं दिखा लड़की का कोई सम्मान (तस्वीर- सोशल मीडिया)

इतना कहूंगी कि 'फिल्में समाज का आईना हैं' बोलने वालों को अब पानी में अपनी शक्ल देखना शुरू कर देना चाहिए, क्योंकि उनका आईना उन्हें मन मार्फत चीज़ें ही दिखा रहा है. और ये सब पर्दे नहीं बल्कि समाज में चलवाया जा रहा सिनेमा रच रहा है. शायद कबीर को अपने ही हमनाम कबीर का कहा याद नहीं रहा- 'पोथि पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोए, ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होए.'

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हिंसा करने से तनिक पीछे नहीं हटता कबीर सिंह (तस्वीर- सोशल मीडिया)

इतना ही कहूंगी कि कबीर सिंह प्यार की नहीं बल्कि एक आदमी के पागलपन की कहानी है. जिसका ये पागलपन घिनौना है और फिल्म में उसी घिनौने शख्स को हीरो बना दिया गया है. वो शख्स जो 'प्यार' न मिलने पर किसी भी लड़की के साथ गंदी से गंदी हरकत करने को तैयार है. मर्दानगी की इसी नुमाइश पर सिनेमा हॉल में खूब हंसी-ठिठोली भी देखने को मिली. प्रेमिका का दूर जाना इस हीरो को जंगली बना देता है.

फिल्म में हीरो को सात खून माफ हैं. उसकी खामियों को इस तरह पेश किया जाता है, ताकि वो देखने वाले की नज़र में मजबूरी में की गई गलतियां लगें. इस फिल्म में हीरो बेहिसाब गुस्से वाला, बदज़बानी और प्रेमिका से बदसलूकी करने वाला शराबी है. जो खूब धूम्रपान भी करता है. गालियां देता है. 

असली जानवरों का सिर झुका दे एनिमल

कबीर सिंह के डायरेक्टर संदीप रेड्डी वांगा ने ही अब एनिमल फिल्म बनाई है. ये एक दिसंबर को रिलीज हुई. अभी तक फिल्म ने 500 करोड़ का आंकड़ा पार कर लिया है. हर तरफ इसी की चर्चा है. सामाजिक स्तर पर खतरनाक ये फिल्म पूर्वाग्रहों को मज़बूत करती है. इसमें हिंसा भर भरकर दिखाई गई है. साथ ही यौन संबंधों को मर्दानगी का गहना बताया गया है. लेकिन लोगों को इसमें मनोरंजन का फैक्टर दिख गया है.

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उनका कहना है कि फिल्म देखनी है तो तर्क वाला दिमाग घर पर रखकर आएं. फिल्म 18+ है, तो आपको क्या दिक्कत? दिक्कत उन्हें नहीं जो इसे महज़ मनोरंजन के तौर पर लें, बल्कि दिक्कत उन टीनेज लड़कों को लेकर है, जो सही गलत की पहचान नहीं कर सकते और इस हीरो की तरह बनने के लिए प्रेरित होंगे.

एनिमल ने हिंसा की सभी हदें पार कीं (तस्वीर- सोशल मीडिया)

इससे समाज में प्रेम तो कतई नहीं बढ़ेगा, हां अपराध ज़रूर बढ़ सकते हैं. चिंता उन टीनेज लड़कियों को लेकर है, जो महिलाओं को जूती चाटने के लिए बोलने वाले जंगली आदमी को हीरो कहेंगी. जो समझेंगी कि फिल्म में 'अल्फा मर्द' की जो परिभाषा बताई गई है, वही असली मर्द होते हैं, हीरो वैसा ही होना चाहिए. 

फिल्म के केंद्र में बदला और हिंसा है. हर तरफ गोलियां ही गोलियां और खून ही खून. हिंसा का वीभत्स से वीभत्स रूप. हत्याओं के भयानक तरीके. और सबसे बड़ी बात यह सब कोई विलेन नहीं बल्कि हीरो करता है. और वो जो काम करता है, वही उसकी खूबी कही जाती है. फिल्म में हिंसा को ही हर समस्या का समाधान बनाकर पेश करता दिखाया गया है.

वैसे तो ये हिंसा बर्दाश्त नहीं होनी चाहिए. लेकिन दर्शक भी इस हिंसा और खून को देख मज़ा लेते हैं. फिल्म में दिखाया गया है कि जो 'अल्फा मर्द' हैं, वो दबंग होते हैं, धौंस जमाने वाले, लोगों पर नियंत्रण रखते हैं, खासतौर से स्त्रियों पर. लोग इनसे डरते हैं. फिल्म में हीरो सबका रखवाला बनता है और उसके पास हर समस्या का समाधान केवल हिंसा है. वहीं महिलाएं जहां तहां दिख जाती हैं. हीरोइन का रोल निष्क्रिय है.

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पितृसत्ता क्या है और उसकी जड़ें कैसे मज़बूत होती हैं, ये समझने के लिए आप इस फिल्म को देख सकते हैं. वो शादी से इतर अफेयर चलाता है. अपनी गर्लफ्रेंड के साथ शारीरिक संबंध बनाता है. उसके शरीर पर दिए निशानों को गर्व से दिखाता है. उसे कानून का कोई डर नहीं है. ये उसके लिए अल्फा मर्द की निशानी हैं. फिल्म में हीरो को दबंग और ज़हरीली मर्दानगी वाले जानवर के तौर पर दिखाया गया है. उसके गुणों को देखकर कहीं एनिमल समूह का तबका ही एतराज़ न जता दे. 

खैर... औरतों को नियंत्रण में रखने वाले ये मर्दाना किरदार वाली फिल्में काफी पसंद की जा रही हैं. ऐसी फिल्में करोड़ों कमा रही हैं. ये दकियानूसी ख्यालों को जायज़ ठहराती हैं. प्यार जैसे खूबसूरत रिश्ते में हिंसा का कोई स्थान नहीं होना चाहिए. इसमें बराबरी और एक दूसरे का सम्मान ही सब कुछ है. बॉक्स ऑफिस में बजती तालियों और इन फिल्मों की सफलता के बीच उम्मीद रहेगी कि किसी दिन इस जश्न को बारीकी से समझकर लोग नकारने की कोशिश करें.

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